परिवार का विघटन कर्ता धर्ता कौन – parivar ka vighatan

परिवार का विघटन कर्ता धर्ता कौन - parivar ka vighatan

वर्त्तमान युग में दार्शनिक कहें, विचारक कहें अथवा और कुछ कहें ये सब भी वही बन रहे हैं अथवा उन्हें बनाया जा रहा है जो लुटेरे की योजना को सफल करने में योगदान कर सकें। ये लोग GDP, मंहगाई, अर्थव्यवस्था, पूंजीवाद, साम्यवाद, नारी उत्थान, मानवाधिकार, जीवनशैली, गुणवत्ता आदि उन्हीं विषयों की उसी प्रकार से चर्चा करते हैं तो वह लुटेरा चाहता है। पूर्व आलेख में हमने यह समझा है कि हमसे क्या लूटा जा रहा है और अब हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि लुटेरा आखिर है कौन, किस प्रकार से परिवार का विघटन (parivar ka vighatan) हो रहा है, कर्ता धर्ता कौन है ?

सोचना और समझना मानवीय विशेषता है, किन्तु वर्त्तमान युग में हमसे सोचने और समझने की शक्ति छीनी जा रही है। और तो और अब तो AI आ गया है जो कह रहा कि आप मत सोचो मैं ही सोचूंगा। किन्तु विकट प्रश्न तो यह है कि हमसे हमारी सोचने की शक्ति छीनने का प्रयास कर कौन रहा है ? हमारी हानि क्या होगी, उसे लाभ क्या होगा ? अरे हम सोचना-समझना छोड़ देंगे तो पूर्णतः जीवित मशीन बन जायेंगे जिसे वो चलायेगा। जिसने हमें उपभोक्ता बनाया है वही अब चार कदम और आगे बढ़कर हमें जीवित मशीन बनाना चाह रहा है।

कौन लुटा, किसे लूटा, क्या लूटा, क्यों लूटा आदि चर्चा पूर्व आलेखों में की गयी है। यहां लुटेरा कौन से भी बड़ा विषय परिवार का विघटन, विघटन में योगदान देने वाले, और विघटन रोकने के लिये अपेक्षित प्रयासों की चर्चा की गई है।

यदि सामान्य लोग स्वयं सोचें तो वो आवश्यकता को समझ जायेंगे जिससे अपव्यय नियंत्रित होगा और अपव्यय नियंत्रित होने से वैश्विक अर्थव्यवस्था को बड़ी ठेंस लगेगी। हुआ यह है कि अर्थव्यवस्था का आडम्बर करके लोगों को उपभोक्ता बना दिया गया और शनैः-शनैः उसे अपव्यय करने की लत लगा दी गयी है। किन्तु यह अपव्यय भी यदि बढ़ाई न जाय तो अर्थव्यवस्था में वृद्धि; जो लक्ष्य निर्धारित किया जाता है; उसके अनुसार न होगी।

सरकारों को सबसे बड़ी उपलब्धि अर्थव्यवस्था में वृद्धि होना समझा दिया गया है। वृद्धि के लिये अपव्यय द्वारा अर्थव्यवस्था के गुब्बारे में हवा भरने की तकनीक बनाई गयी। अर्थव्यवस्था में वृद्धि दर को बढ़ाने के लिये यह आवश्यक है कि हवा निरंतर भरते भी रहें।

भारत के लिये एक समस्या तो यह है कि वो भी इस दलदल में फंस चुका है और इससे निकलना सरल नहीं है, दूसरी समस्या यह है कि वर्तमान में हमारे यहां जो दार्शनिक-विचारक-विश्लेषक आदि बनते हैं उनका भारतीय दृष्टिकोण ही नहीं है वो विदेशों में पढ़ते हैं और उनका दृष्टिकोण भी वैसा ही हो जाता है। हम बात भले ही विश्वगुरु की कर रहे हैं किन्तु हम विश्व को ज्ञान देने नहीं विश्व से ज्ञान लेने जा रहे हैं। जो भी सक्षम होता है उसके बच्चे विदेशों में पढने के लिये क्यों जाते हैं ? जाते हैं तो जायें हमारे देश में वही विचारक-विश्लेषक-दिशानिर्देशक क्यों बन रहे हैं जो भारतीय दृष्टिकोण नहीं रखते हैं।

संसद जो देश की दिशा और गति निर्धारित करता है वहां विचार-विमर्श तो होता ही नहीं है मात्र तू-तू-मैं-मैं और यहां तक की मार-पीट भी होने लगी है। सांसदों/विधायकों का लक्ष्य TRP अथवा ध्यानाकर्षण मात्र रह गया है और राजनीतिक दलों का लक्ष्य सरकार बनाना मात्र। इन सांसदों/विधायकों को कौन समझाये, कैसे समझाये कि हम भटक गये हैं, हमारी दिशा और गति विपरीत हो गयी है। समझाने वाले तो भारतीय दृष्टिकोण रखते ही नहीं हैं।

एक-दो उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि हमारी दिशा और गति कैसे विपरीत है :

  1. हमने तीर्थाटन को पर्यटन बना दिया है क्योंकि हमने भारतीय दृष्टिकोण को तिलांजलि दे दिया।
  2. हम लोगों को नारकीय प्राणी बना रहे हैं, स्त्रीधन का उपभोग करना नरक का कारण है कर सरकारें स्त्रियों के खाते में पैसे भेज रही है जो स्त्रीधन हो जाता है और परिवार उस स्त्रीधन का उपभोग कर रहा है जिससे वह नरक का भागी बन रहा है।

अरे हम जो बात कर रहे हैं उसकी चर्चा करना निंदनीय हो गया है, पिछड़ापन कहा जाता है, पुरानी सोच कही जाती है।

ये तो रोना-धोना कहा जायेगा, हम मूल विषय पर आने का प्रयास करते हैं जिसकी भूमिका ऊपर दी गयी है।

वास्तविक लुटेरा

यदि किसी एक को वास्तविक लुटेरा कहा जाय तो सही नहीं होगा, इसमें कई घटक हैं और सभी घटक एक जगह थोड़ा स्थिर होते हैं वो मंच है अर्थव्यवस्था, GDP, व्यापार। किन्तु ये स्वयं में ही घटक नहीं है, घटक वास्तव में अनेक हैं जो भिन्न-भिन्न वादों के नाम से, विचारधारा के नाम से भी जाने जाते हैं। अर्थव्यवस्था स्वयं का विस्तार करने के उद्देश्य से नये-नये आवश्यकताओं को जन्म देती जा रही है, नई आवश्यकता के अनुरूप वस्तु निर्माण करके उसका व्यापार कराती है।

यह आवश्यकताओं को जन्म देने वाला प्रकल्प जो है वही विकृत हो गया है। प्रथम तो वस्तु के नष्ट होने से पूर्व ही उसका त्याग करना सिखाती है जिसमें कोई बड़ी समस्या नहीं है।

स्क्रैच आते ही गाड़ी बदल लेना, मोबाइल बदल लेना आदि के साथ ही नये मॉडल का आते रहना और नवीनतम मॉडल का उपयोग करने की लत जनसामान्य तक पहुंचाने का प्रयास भी मात्र धन लूटने तक ही सीमित है।

समस्या तो वहां से आरम्भ होती है जब अर्थव्यवस्था के विस्तार की भूख अत्यधिक बढ़ जाती है। एक व्यक्ति यदि एक बार विवाह करता है तो उससे एक बार अर्थव्यवस्था में योगदान होता है यदि वही व्यक्ति 3 – 4 बार विवाह करने लगे तो अर्थव्यवस्था में वह 6 – 8 बार योगदान देगा और अनेकों प्रकार से देगा। अधिवक्ताओं की तिजोरी भी भरी रहेगी और न्यायालय में लगने वाली तलाक की भीड़ अर्थव्यवस्था के विस्तार में योगदान करती रहेगी।

वर्त्तमान काल में विवाह हेतु भी एक नये प्रचलन को जन्म दे दिया गया है वो है अर्द्धायु व्यतीत होने के पश्चात् विवाह करना। जब युवा हो तब विवाह नहीं करना है क्योंकि वो विवाह होगा और उसके टूटने की संभावना नहीं होगी। अधेड़ व्यक्ति शादी नामक अनुबंध करेगा और फिर तोड़ेगा, फिर करेगा, फिर तोड़ेगा। किन्तु इसका एक और दुष्परिणाम है वो है दुराचारी जोड़ा बनना जिसे दुराचारी जोड़ा नहीं कहा जाता है क्योंकि उससे भी अर्थव्यवस्था का विस्तार होता है।

एक विवाहित जोड़े का अर्थव्यवस्था में जितना योगदान होता है उससे अधिक दुराचारी जोड़े का होता है। इसी कारण इसे दुराचार/व्यभिचार न कहकर “लिव & रिलेशनशिप” नाम दे दिया गया जिससे ऐसे दुराचारियों को शिर झुकाना न पड़े, ये अकड़कर कहें कि हम “लिव & रिलेशनशिप” में हैं।

ये “लिव & रिलेशनशिप” को तोड़ना सरल होता है, शादि में अनेकों कठिनाई होती है, तोड़ने को तो विवाह भी कानूनन तोड़ा जा रहा है किन्तु विवाहविच्छेद नहीं होता है। जो बच्चे “लिव & रिलेशनशिप” में जाते हैं लगभग अपने परिवार से टूटकर ही जाते हैं। हाँ पूरा परिवार ही दुराचारी हो तो अलग बात होती है वो विभिन्न अवसरों पर मिलकर संबंध को बनाये रखने का भी प्रयास करते हैं।

इसके साथ ही दूसरी बात होती है बच्चों को माता-पिता अथवा परिवार से अलग रहने की लत लग जाती है और वो साथ नहीं रह सकते। अब उसके माता-पिता के लिये फिर नया प्रकल्प होता है वृद्धाश्रम का।

इसके आगे की योजना बच्चों की देखभाल है क्योंकि अभी तो अत्यल्प दुराचारी ही होते हैं जो शादी-तलाक का खेल खेलते हैं किन्तु यदि अंकुश न लगाया गया तो ये अर्थव्यवस्था अपने विस्तार के लिये इसे देश भर में गांव-गांव तक भी पहुंचायेगी। कोई बच्चा शादी से पहले होगा, कोई बच्चा शादी के पहले के गर्भ से होगा किन्तु किसी दूसरे से शादी के बाद जन्म लेगा, इसी तरह कोई बच्चा पहले पति का तो होगा किन्तु दोनों का तलाक और शादी वाले खेल में दूसरी शादी के बाद भी जन्म लेगा, तो कोई तीसरी शादी में।

ये खेल ऐसा है जिसमें माता-पिता की अपेक्षा बच्चे अधिक पीड़ित होंगे और बच्चों के नाम पर भी रोजगार बनाये जायेंगे, अर्थव्यवस्था का विस्तार होगा।

कुछ लोग इस अव्यवस्था के पक्ष में भी बोलेंगे, समर्थन करेंगे क्योंकि जंगली व्यवस्था चाहने वाले लोग भी दुनियां में हैं।

जंगली जीवन से भी लोगों को आपत्ति हो सकती है किन्तु जब शादी-तलाक का खेल होने लगेगा तो वो जंगली जीवन ही सिद्ध होगा।

यही अर्थव्यवस्था है जो विस्तार के लिये पति-पत्नी, भाई-भाई, भाई-बहन, पिता-पुत्र सभी संबंधों को तोड़ेगी। जितने संबंध टूटेंगे उतने ही अधिक रोजगार सृजन होंगे और अर्थव्यवस्था का विस्तार होगा।

ऐसा लगता है कि वास्तविक लुटेरा अर्थव्यवस्था ही है, किन्तु यह असत्य है। अर्थव्यवस्था तो पहले भी थी और पहले भी विस्तार करती थी। यदि अर्थव्यवस्था ही वास्तविक लुटेरा होता तो अब तक जो कल्पना की जा रही है वो सब घटित हो चुका होता है। अर्थात अर्थव्यवस्था दोषी प्रतीत होता तो है किन्तु अर्थव्यवस्था स्वयं दोषी नहीं है, अपितु अर्थव्यवस्था चलाने वाले लोग, विचारधारा आदि वास्तविक दोषी है। अर्थव्यस्था विस्तार में नीति, मर्यादा, संस्कृति आदि जो भी कहें को यदि ताक पर रख दिया जाये तो ऐसा होगा जो वर्त्तमान में कुछ दशकों से हो रहा है।

जिस प्रकार देश की सुरक्षा सरकार का दायित्व होता है, करती भले ही सेना हो उसी प्रकार देश की संस्थाओं की सुरक्षा भी सरकार का ही दायित्व है। नीति निर्धारण करना, देश की दिशा-दशा निर्धारित करना सब-कुछ सरकार का ही दायित्व है। समाज का संरक्षण करने में सरकार विफल रही है और समाज का बहुत बड़े स्तर तक विघटन हो चुका है। परिवार का विघटन आरंभ हो गया है और सरकार की नीतियां ही मुख्य दोषी है।

या तो सरकार के पास दार्शनिक-विचारक-समाजशास्त्री आदि नहीं हैं जो पथप्रदर्शन कर सके, भले ही थिंकटैंक नाम से कुछ होता हो अथवा यदि वो उचित पथप्रदर्शन कर भी रहे हों तो सरकार ही चाहती है कि परिवार का भी विघटन हो जाये।

यहां जब हम सरकार की बात कर रहे हैं तो एक भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि क्या सरकार ही कर रही है, इस भ्रम का निवारण कर लें। ऐसे समझें कि किसी थाने में अपराध दर अत्यधिक है, तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि पुलिस स्वयं ही कर रही है अपितु संभाल नहीं पा रही है अथवा अपराधियों का ही संरक्षण कर रही है। अर्थात अपराधी कोई अन्य ही है किन्तु दोषी पुलिस भी होगी।

सरकार यदि चाहती तो समाज के संरक्षण हेतु नीति निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तक सब कुछ करती और आज समाज नष्ट न होता। समाज नष्ट होने का तात्पर्य लोगों के झुंड तो हैं किन्तु सामाजिक मूल्य समाप्त हो गया है। जहां ५ दशक पूर्व समाज के बड़े लोगों के समक्ष बच्चे-युवा मर्यादित रहते थे अब कोई मर्यादा नहीं रही। सामाजिक मूल्यों के पक्षधर बड़े लोग बारात जाना छोड़ चुके हैं। अमर्यादित आचरण करने वालों को देखकर स्वयं ही मुंह मोड़ते हैं।

एक ऐसा काल था जब बड़े लोगों को देखकर ही बच्चे व युवा सतर्क हो जाते थे, कोई अमर्यादित आचरण नहीं, कोई असभ्यता नहीं कर पाते थे, भले ही पहचानते हों अथवा न हों। आज पड़ोस के बड़ों का भी सम्मान करना छोड़ दिया गया है। आज के युग में कोई व्यक्ति किसी असभ्य बच्चे को भी नहीं रोक सकता है न ही उसके घर में शिकायत करने जाता है। ये है समाज का नष्ट होना और यदि यह तथ्य त्रुटिपूर्ण है तो आपलोग टिप्पणी करके अवगत करें।

समाज के विघटन को समझना आवश्यक था, यदि समाज के विघटन को समझ लेते हैं तो परिवार के विघटन सम्बन्धी तथ्य भी आपको सत्य ही लगेंगे कपोल कल्पना नहीं। समाज के विघटन को यदि नहीं समझेंगे तो कपोल-कल्पना लगेगी। जब समाज का अस्तित्व था तब किसी भी घर में कुछ अच्छा बनता था तो दूसरे को भी देते थे, यदि किसी को कुछ चाहिये होता तो उसे मांगने भी कोई हिचक नहीं होती थी और देने वाला भी हर्षित होकर देता है।

आगामी समय तो ऐसा आने जा रहा है कि किसी से भी कुछ लेना-देना भयकारक होगा, क्योंकि द्वेष-विवाद से आगे बढ़ते हुये लोगों को षड्यंत्र करना सिखाया जा रहा है। सिखाने वाले हैं फिल्म, धारावाहिक आदि। लोगों को भोजन में जहर देना सिखाया जा रहा है। सरकार यदि न चाहे तो ये फिल्म और धारावाहिक अथवा पत्र-पत्रिका, सोशलमीडिया आदि ऐसे कुकृत्य थोड़े न कर पायेंगे।

कितने लोग हैं जो मित्रों के ऊपर विश्वास रखते हैं ? और जो विश्वास करते हैं अवसर मिलते ही मित्र उसके साथ विश्वासघात कर देता है, विश्वासघात करना तो राजनीतिक दल भी सीखा रहे हैं। पढ़ाया जा रहा “इश्क और जंग में सब जायज”

संकट समाज पर जब था तब संरक्षित करने के लिये कोई प्रयास नहीं किया गया और समाज का विघटन हो गया है। राजनीतिक रूप से प्रदर्शन, महापंचायत आदि के नाम पर जुटने वाली भीड़ अथवा होने वाली गतिविधि को समाज नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उसमें सामाजिक मूल्य ही नहीं होते हैं।

समाज का एक छोटा रूप था संयुक्त परिवार और इसे परिवार का बृहत् स्वरूप कहा जा सकता है और लोग कहेंगे। लेकिन यही परिवार था, एकल परिवार तो खंडित परिवार है, एक ही वृक्ष की शाखाओं का शोषण करने के लिये उसे काटकर अलग कर लिया जाता है। संयुक्त परिवार के लिये सभी प्रकार की विपरीत व्यवस्था बनाई गयी अथवा नहीं, एकल परिवार के लिये सभी अनुकूल व्यवस्था की गयी अथवा नहीं। सरकार की नीतियों पर उन समूहों, संगठनों, संस्थाओं का बड़ा प्रभाव होता है जो अर्थव्यवस्था में योगदान करते हैं।

अच्छा समाज और संयुक्त परिवार को नष्ट करके यही लोग सोसाइटी, फर्म, संगठन, NGO आदि बनाकर क्या-क्या नहीं करते हैं ? राजनीतिक दलों का ही सत्ता पर नियंत्रण होता है अन्यथा इनके कुकर्मों की तो चर्चा की ही नहीं जा सकती। समाज को तोड़ने की राजनीति ही तो थी, संयुक्त परिवार को तोड़ने की राजनीति ही तो हुयी। परिवार को तोड़ने की भी राजनीति हो रही है। पहले ही एकल परिवार बना दिया अब वैचारिक स्वतंत्रता की बात करते हैं, एकजुटता का पाठ नहीं पढ़ाते।

वर्त्तमान में संकट परिवार पर आ गया है और त्वरित सक्रिय होते हुये युद्धस्तर पर परिवार के संरक्षण हेतु सरकार को प्रयास करना चाहिये, नीतिनिर्माण करना चाहिये। अर्थव्यवस्था के विस्तार की बात हो अथवा रोजगार सृजन की किसी भी नीति और गतिविधि से परिवार का विघटन न हो ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिये। सबसे बड़ी बात तो यह है कि “दुराचार” और “शादी-तलाक” जैसे खेल पर विराम लगाने वाली नीति बनानी चाहिये। अपराध भले ही न माने और दंडात्मक विधान भले ही न बनाये किन्तु प्रोफाइल के आधार पर लाभ से वंचित करने वाली व्यवस्था तो अवश्य ही बनाना होगा।

वर्त्तमान में सरकार की नीतियां इन्हें प्रश्रय दे रही है। न्यायपालिका इनका संरक्षण करती है भले ही वैसे कानून हों अथवा न हों, न्यायपालिका भी तो कानून बनाने लगी है : “मेरा वचन ही है शाशन” वर्तमान न्यायपालिका के संदर्भ में सटीक बैठता है। सभ्य समाज में जिसके लिये कोई स्थान नहीं होता, न्यायपालिका उसका संरक्षक बनकर खड़ी हो जाती है। सामान्य लोगों को न्याय मिले, निरपराध प्रताड़ित न हों इस प्रकार की गतिविधि कभी दिखती है क्या ? कश्मीर के प्रताड़ित को नहीं सुनेंगे, आतंकवादियों को रात के 2 बजे भी सुनेंगे, षड्यंत्रकारियों को छुट्टी वाले दिन भी 15 मिनट में बेल दे देंगे।

नेताओं को दण्डित होने पर भी बाहर कर देंगे। पता नहीं कोर्ट फिक्सरों का साम्राज्य कब तक रहेगा। व्यभिचार वाली एक CD तो एक बड़े अधिवक्ता जो कि बड़े नेता भी हैं आई थी। ऐसे एक थोड़े न हैं, अनगिनत हैं, अब उसे कैसे दण्डित करेंगे, चलो व्यभिचार को भी जीवन का ही अंग बना दो और बना दिया। यदि न बनायें तो अपने व्यभिचारों के लिये कैसे बचेंगे ? तब तो ढेरों विडियो बाहर आयेंगे और सबके नंबर लगने लगेंगे। यदि विडियो बाहर आने पर भी कुछ हो ही न तो लोग लाकर करें तो क्या ?

आपको लग रहा होगा हम भटक रहे हैं किन्तु हम भटक नहीं रहे हैं भटकी हुई न्यायपालिका के बारे में बता रहे हैं। यदि न्यायपालिका इसे अवमानना कहे तो कहे किन्तु चुप नहीं रहा जा सकता। परिवार के विघटन में, दुराचार को बढ़ाने में न्यायपालिका का जो योगदान है वो भी बहुत महत्वपूर्ण है। न्यायपालिका में वो लोग जमे हैं जो विदेशी चश्मा से देखते हैं, भारतीय संस्कृति को जानते-समझते ही नहीं हैं, और यदि जानते-समझते भी हैं तो इससे द्रोह रखते हैं, द्वेष करते हैं। यदि वो ऐसे ही हैं तो देश की संस्कृति-सभ्यता को अपने स्तर से जितना नष्ट-भ्रष्ट कर सकते हैं करेंगे ही।

कितना हास्यास्पद विषय है कि दो विवाह तो नहीं कर सकते हैं किन्तु अनैतिक संबंध जितने चाहें रख सकते हैं। अरे मूर्खों विवाह करने पर अनैतिक नहीं कहलाता, दुराचार नहीं कहलाता, व्यभिचार नहीं कहलाता। यदि वह दुराचार है तो उसे दुराचार कहो, प्रश्रय देना बंद करो। विवाह पूर्व के संबंध अनैतिक हैं, दुराचार हैं तो उसे दुराचरण कहो, दुराचारी जोड़ा कहो “लिव & रिलेशनशिप” बनाकर प्रश्रय देना बंद करो।

यदि तुम देश, समाज, परिवार संस्कृति के लिये घातक हो गये हो तो तुम्हारे विरुद्ध भी बोलेंगे। यदि न्यायपालिका को ये अवमानना प्रतीत हो तो वह स्वतः संज्ञान, स्वयं निस्तारण करने से बचे। इस विषय के लिये विधायिका को न्यायिक अधिकार का प्रयोग करने दे, क्योंकि प्रश्नचिह्न ही न्यायपालिका पर है तो वही किस प्रकार निस्तारण करेगी, कैसे न्याय करेगी, यदि न्यायपालिका की ही त्रुटि सिद्ध हो जाये तो स्वयं के विरुद्ध क्या करेगी ?

इनकी तो अवमानना हो जाती है किन्तु बच्चों के माता-पिता की अवमानना नहीं होती, परिवार की अवमानना नहीं होती, समाज की अवमानना नहीं होती, संस्कृति की अवमानना नहीं होती, धर्म की अवमानना नहीं होती। वहां बच्चों का पता नहीं कौन-कौन सा अधिकार हो जाता है ? किन्तु हम इनके कुकृत्यों पर भी मौन रहें, क्योंकि उस समय हमारे सभी अधिकार नष्ट हो जायेगें, यदि बोलेंगे तो इनकी अवमानना हो जायेगी, ये हमारे धर्म, संस्कृति, भगवान सबसे बड़े जो बने बैठे हैं। भगवान को भी तो आदेश दे देते हैं हाजिर हों और भगवान की प्रतिमायों को भी ठेले पर सवार होकर हाजिर होने चले जाते हैं।

“लिव & रिलेशनशिप” वाले दुराचारी जोड़ा हो अथवा परिवार की अवमानना करके शादी-तलाक का खेल करने वाला उसे भी दुराचारी जोड़ा ही कहा जाये और दुराचारी जोड़ों के ऊपर अनेकों प्रकार के प्रतिबंध लगाये जाने चाहिये; यथा :

  • दुराचारी जोड़ा किसी के घर में नहीं जा सकते भले उन्हें आमंत्रित भी क्यों न किया गया हो।
  • दुराचारी जोड़ा किसी प्रकार का कोई शैक्षणिक (शिक्षण-प्रशिक्षण से संबंधित) कार्य नहीं कर सकता है।
  • दुराचारी जोड़ों को वरीयता सूची में कट मार्क्स का सामना करना पड़ेगा।
  • दुराचारी जोड़ों को पदोन्नति में भी कट मार्क्स का सामना करना पड़ेगा।
  • दुराचारी जोड़ा कितना भी दक्ष हो वह परिवार व समाज को अनैतिकता का संदेश देता है, अनैतिकता की प्रेरणा देता है इसलिये उसे A & B ग्रेड का कर्मचारी नहीं बनाया जाय।
  • दुराचारी जोड़ा चुनाव के लिये अयोग्य घोषित किया जाय।
  • दुराचारी जोड़ों को फर्म, कंपनी, संस्था, संघटन आदि चलाने का अधिकार नहीं होगा।
  • दुराचारी जोड़ों को तीर्थ, मंदिर आदि जाने का अधिकार नहीं हो।
  • जीवन यापन के लिये भी उसके लिये सीमित व्यवस्था ही रहे, जहां कहीं भी लोगों का प्रत्यक्ष संपर्क होता है वहां दुराचारी जोड़ों का कार्य करना प्रतिबंधित हो।

निष्कर्ष : परिवार के विघटन का प्रथम कारक अर्थव्यवस्था का विस्तार प्रतीत होता है और रोजगार सृजन भी इसी में समाहित है। किन्तु अर्थव्यवस्था वास्तविक उत्तरदायी नहीं है क्योंकि नीति बनाने का कार्य, संस्थाओं के संरक्षण का कार्य तो सरकार का है। वास्तव में सरकार की नीति ही ऐसी है जो “दुराचार”, “शादी-तलाक के खेल” आदि को प्रश्रय देते हुये परिवार का विघटन कर रहा है। इसका मुख्य दायित्व न तो फिल्म-धारावाहिक पर जायेगा, न ही मीडिया-पत्र-पत्रिका-सोशलमीडिया आदि पर। सरकार चाहे तो सबको नियंत्रित कर सकती है और ये सरकार का ही कार्य है।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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