आम की समिधा हवन में ग्राह्य या अग्राह्य – Amra samidha

आम की समिधा हवन में ग्राह्य या अग्राह्य - Amra samidha

हवन में आम की समिधा ग्राह्य है अथवा नहीं यह गंभीर प्रश्न है और इसका उत्तर कुछ विद्वान ग्राह्य बताते हैं तो कुछ विद्वान अग्राह्य बताते हैं। प्रमाण सबके पास होता है अर्थात दोनों पक्ष शास्त्रोक्त प्रमाण प्रस्तुत करते हैं और ऐसी स्थिति में यह प्रश्न और जटिल हो जाता है। इस आलेख में हम इसी प्रश्न का उत्तर ढूंढने का प्रयास करेंगे। वस्तुतः यह संकलन मेरा नहीं है अपितु इसके संकलनकर्त्ता आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी हैं और यहां उनका संकलन यथावत प्रस्तुत किया गया है।

बहुधा ऐसा देखा जाता है कि सङ्कलनकर्ता व्यक्ति का नाम छुपाकर, कृतघ्नतापूर्वक लोग सामग्रियां प्रस्तुत करते हैं और उसमें मेरे अनेकों आलेख भी हैं जो “संपूर्ण कर्मकांड विधि” पर प्रकाशित हैं एवं संकलन करना कितना जटिल कार्य होता है यह मुझे ज्ञात है। अस्तु यह संकलन जिनका है श्रेय उनको ही दिया जायेगा।

इस संकलन का श्रेय संकलनकर्त्ता आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी को ही जाता है और इसके लिये हम उनके आभारी हैं कि वो इतना परिश्रम करते हुये ऐसे संकलन सतत अपने व्हाटसप समूह “ब्रह्मसूत्र” में प्रस्तुत करते रहते हैं। यहां उनकी छवि भी प्रस्तुत की गयी है। आगे का भाग यथावत प्रस्तुत किया गया है जैसा की प्राप्त हुआ है।

आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी
आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी

॥ होमादिकृत्योंमें आम्रसमिधाकी ग्राह्यता-अग्राह्यताका विचार ॥

बहुकालसे शुक्लयजुर्वेदीय आह्निकसूत्रावलीका एक प्रमाणवचन उद्धृत होता आया है कि आम्रसमिधा यज्ञादिमें अग्राह्य है, वह वचन निम्न है – “तिन्दुकधवलाम्रनिम्बराजवृक्ष शाल्मल्यरत्नकपित्थकोविदारविभीतक श्लेष्मातक सर्वकण्टक वृक्ष विवर्जितम्

यहाँ स्पष्ट रूपसे आम्र नामोल्लेखपूर्वक आम्रसमिधाका निषेध कहा गया है, कहीं मित्रपरिशिष्टके सन्दर्भ से तो कहीं मैत्रायणीपरिशिष्टके नाम से उपर्युक्त वचनको उद्धृत किया जाता है। वास्तवमें यह वचन विचारणीय है क्योंकि आह्निकसूत्रावली तो नवीन ग्रन्थ है, आह्निकसूत्रावलीसे अत्यन्तप्राचीन ग्रन्थोंमें उपरोक्त वचन उद्धृत अवश्य किया गया है किन्तु वहाँ आम्र (आम) का ग्रहण नहीं-

🔸 चतुर्वर्गचिन्तामणिमें हेमाद्रि ने –
तिलकनीपनिम्बराजवृक्ष शाल्मल्यरत्नकपित्थकोविदारविभीतक श्लेष्मातकसर्वकण्टकवृक्षविवर्जितम्॥
🔸 सामवेदीय कर्मप्रदीपव्याख्यान में –
तिल्वकधवनीप-निम्बकपित्थ-कोविदार-विभीतक-श्लेष्मातक-राजवृक्षरक्तकण्टकिवर्जम्
🔸 लक्ष्मीधरकृत कृत्यकल्पतरु में भी-
तिल्वक-धव-नीप-निम्ब- राजवृक्ष-शाल्मल्यबन्ध-कपित्थ-कोविदार-विभीतक-श्लेष्मातक-सर्वकण्टकिवर्जम्

उपरोक्त सभी प्राचीन निबन्धोमें आम्र शब्दका श्रवण कहीं भी नहीं है अतैव निषेध भी प्राप्त नहीं होता। प्रश्न सम्भव है कि क्या कहीं आम का ग्रहण प्राप्त है? तो उत्तर है अवश्य ही, हारितसंहिता में नक्षत्रहोमवर्णनावसर पर समिधाओं के वर्ग में –

अर्कः खदिरपालाशो वदरी पारिभद्रकः ।
दूर्वा शमी कुशः काशः पीप्पलो वटसम्भवः ॥
‘जम्बाम्म्रः’ करहाटश्च सोमवल्ली कलिद्रुमः ।
रक्तमारश्चन्दनञ्च जयन्ती वृद्धदारकम् ॥
शतावरी सहचरी स्वर्णक्षीरो निशायुगम् ।
उदुम्बरस्तथा विल्वः समिद्वर्गः प्रकीर्त्तितः ॥

यहाँ समिद्वर्गमें आम्रसमिधा भी परिगणित है। हस्तनक्षत्रके होम हेतु विधान भी है “शन्नो देवोरिति आम्रसमिधा” शन्नोदेवी इस मन्त्रसे आमकी समिधा ग्रहण करें।

अजस्यैकपदः पूर्वे प्रोष्ठपदाः। वैश्वानरं परस्ताद्वैश्वावसवमवस्तात् । (तैत्तिरीयब्राह्मण १.५.१.१)

आदि वचनों द्वारा विहित नक्षत्रेष्टिके समय पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र हेतु आम्रसमिधा प्रयुक्त होती है। स्मार्त्तरघुनन्दनके किसी ग्रन्थमें भी आम्रसमिधाका प्रयोग दृष्ट हुआ था, स्मरण आने पर उसे भी लेखमें जोड़ेंगे।

वैखानसगृह्यसूत्रोंकी तात्पर्यचिन्तामणि नामक व्याख्यामें भी निषिद्धवृक्ष वर्णित हैं – निम्बश्लेष्मातकनीपतिल्वराजवृक्ष विभीतक शाल्मलि कोविदारकरञ्ज बाधकारुनिर्गुण्डीफ्लअण्डुजपानां समिधः परिधींश्च वर्जयेत् ।

गोभिलगृह्यसूत्र में भी – खादिरपालाशालाभे बिभीदकतिल्वकबाधकनीवनिम्ब राजवृक्ष शाल्मल्यरलुदधित्थकोविदारश्लेष्मातकवर्जं सर्ववनस्पतीनामिध्मो यथार्थं स्यात् ( गोभिलगृह्यसूत्र १.५.१५)

खादिरपलाश के न होने पर वर्णित वनस्पतियों के अतिरिक्त सभी वृक्ष ग्राह्य हैं यह कथित है। त्रिकाण्डमण्डन में भी-

पालाशः खादिरो वेध्मो मुख्यः स्यात्तदलाभतः ।
वनस्पतीनां सर्वेषामिध्मः कार्यों विशेषतः ॥
तत्रैतान् वर्जयेद् वृक्षान् कोविदारविभीतकौ ।
कपित्थं करभं राजवृक्षं शाकद्रुमं तथा ॥
नीपं निम्बं करजं च तिलकं शाल्मलीमपि ।
श्लेष्मातकमपि त्यक्त्वा ग्राह्योऽन्यः सकलो द्रुमः ॥

(त्रिकाण्डमण्डन २.८२-८४)

पूर्वोक्त निषेधोंकी भांति यहाँ भी आम्र परिगणित न होने पर निषिद्धवृक्षोंके अतिरिक्त “ग्राह्योऽन्यः सकलो द्रुमः” अन्य सभी वृक्ष ग्राह्य हैं, अतैव मुख्यवृक्षोंके अभावमें आम्रादिवृक्षकी समिधा ग्राह्य है। बाज़ार से ख़रीदी गई समिधाको “हिरण्यवर्णाः शुचयः” इत्यादि अनुवाकसे प्रोक्षित कर ही प्रयोग करें। माध्यन्दिनशाखीयों के लिए “पु॒नन्तु॑ मा पि॒तर॑: सो॒म्यास॑” इत्यादि पवमानसूक्तसे प्रोक्षणका विधान है।

उपरोक्त संकलन का अवलोकन करने के पश्चात् हमें यह देखना आवश्यक है कि बहुमत किस पक्ष में है तदनन्तर क्षेत्रीय परंपरा क्या है ? यदि बहुमत को देखें तो हमें आम्र समिधा ग्राह्य का पक्ष मिलता है अर्थात अग्राह्य वाला पक्ष अल्पमत में आ जाता है और शास्त्रोक्त विचारों में यदि प्रमाणों में विरोधाभास हो तो बहुमत पक्ष का ग्रहण किया जाता है। इसके अतिरिक्त एक और तथ्य भी है कि हमारे पूर्वजों ने कौन सा पक्ष ग्रहण किया था वही परंपरा हमारे लिये पालन करने योग्य है।

यथा मिथिला में यदि देखा जाये तो आम्र समिधा और इंधन दोंनो ही रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं। इंधन रूप में तो मुख्यतः आम्र का ही प्रयोग किया जाता है साथ ही नवग्रह समिधा में जो अनुपलब्ध हो उसके लिये भी आम्र समिधा को ही विकल्प रूप में ग्रहण किया जाता है।

इस प्रकार मात्र उन क्षेत्रों के लिये जहां आम्र समिधा निषेध वाला पक्ष परम्परा से ग्रहण किया हुआ प्रचलित है उनके अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में आम्र समिधा ग्राह्य है।

हम अन्य विद्वद्जनों से भी इसी प्रकार की शास्त्रसम्मत व ज्ञानवर्द्धक संकलन, आलेख की आकांक्षा करते हैं।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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