शुद्धिकरण : पवित्रीकरण मंत्र और विधि का विश्लेषण – Pavitrikaran – 1

शुद्धिकरण : पवित्रीकरण मंत्र और विधि का विश्लेषण - Pavitrikaran

कर्मकांड में कोई भी कर्म हो सर्वप्रथम पवित्रीकरण ही किया जाता है। पवित्रीकरण के बारे में सामन्यतः यही समझा जाता है कि अपवित्रः मंत्र पढ़कर गंगाजल शरीर पर छिड़कना पवित्रीकरण होता है। किन्तु जब हम पवित्रीकरण के विश्लेषण और मंत्रों की चर्चा करेंगे तो अनेकों नयी बातें स्पष्ट होती है। कर्मकांड सीखने हेतु प्रत्येक विषय को गंभीरता से जानने और समझने की भी होती है, मात्र मंत्र को जानने की नहीं। इस आलेख में पवित्रीकरण की विस्तृत चर्चा की गयी है और अनेकों मंत्र भी दिये गये हैं जो विशेष उपयोगी भी हैं।

शुद्धिकरण या पवित्रीकरण को समानार्थी ही माना जाता है, जिसका भाव पवित्र करना अथवा शुद्ध करना होता है। जब हम पवित्र या शुद्ध करने की बात करते हैं तो इससे एक प्रश्न भी उत्पन्न होता है कि क्या पवित्रीकरण से पूर्व अपवित्र थे, शुद्धिकरण से पूर्व अशुद्ध थे। इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर है हाँ अशुद्ध या अपवित्र होने के कारण ही शुद्ध/पवित्र होने की आवश्यकता होती है। ये अपवित्रता शरीर ही नहीं सभी वस्तुओं में भी रहती है और पवित्रीकरण मात्र शरीर की ही नहीं सभी वस्तुओं की भी करनी होती है। हमें सर्वप्रथम पवित्रीकरण का तात्पर्य समझना आवश्यक है।

पवित्रीकरण/शुद्धिकरण का तात्पर्य

यदि हम उस भाव में स्थित हो जायें जहां सर्वत्र ब्रह्म व्याप्त है तो फिर ब्रह्म से रहित कोई स्थान नहीं, कोई वस्तु नहीं और उसी स्थिति में किसी वस्तु को अपवित्र भी नहीं समझा जायेगा। इस कथन का तात्पर्य यह है कि कुछ आधुनिक विचारधारा वाले बुद्धिजीवी जिनका लक्ष्य ही सनातन के सिद्धांत, कर्मकांड, वेद-पुराणों की निंदा करना होता है वो लोग ऐसा कुतर्क कर सकते हैं कि जब “सब मम प्रिय सब मम उपजाये” है, सभी भगवान द्वारा ही बनाया गया है तो अशुद्ध कैसे हो सकता है। यदि जिज्ञासा हो तो प्रश्न का औचित्य है, किन्तु यदि लक्ष्य निंदा करना हो तो यह कुतर्क है।

पवित्रीकरण/शुद्धिकरण का तात्पर्य

कोरोनाकाल में सभी सेनेटाइजर लगा रहे थे क्यों, वो भी तो हाथों की एक विशेष शुद्धि ही कर रहे थे न। हाथों पर कुछ दिखता तो नहीं था, फिर हाथ के अपवित्र होने (वायरसयुक्त) होने का भ्रम ही रहता था क्या ? कोरोना वायरस क्या भगवान की सृष्टि से बाहर की दुनियां का है ? यदि कोरोना भी भगवान की उसी सृष्टि का हिस्सा है तो उससे क्यों परेशानी ? ये उत्तर मात्र है उन लोगों के लिये जो पवित्रीकरण के ऊपर भ्रमित करना चाहते हैं। जो लोग श्वान को अपने शय्या पर सुलाते हैं, और गाय से द्वेष करते हैं, उनके कुतर्कों पर ध्यान देना ही मूर्खता है।

आशा है कोई इस भ्रम में नहीं रहेंगे कि संपूर्ण सृष्टि ईश्वरीय है तो कोई भी वस्तु अपवित्र कैसे हो सकती है। किन्तु अब प्रामाणिक रूप से भी समझेंगे की कोई वस्तु अपवित्र कैसे होती है ?

प्रश्न : पुष्पं तु भ्रमरोच्छिष्टं मत्सोच्छिष्टं तु तज्जलम् । जिह्वोच्छिष्टं तु तन्मन्त्रं कथं पूजा विधीयते ॥
उत्तर : पुष्पं तु प्रोक्षणाच्छुद्धिः जलमुत्पवनं तथा ‌। जिह्वादाचमनं शुद्धिः एवं पूजा विधीयते ॥

प्रश्न है कि पुष्प भ्रमण का, जल मछली आदि जीवों का, जिह्वा तो स्वयं ही उच्छिष्ट (जूठा) है, फिर इन से पूजा कैसे की जा सकती है ? आगे हम उत्तर की भी चर्चा करेंगे किन्तु पहले इस प्रश्न से ही स्पष्ट हो जाता है की सभी वस्तुयें किसी न किसी प्रकार से उच्छिष्ट होती है, उल्लेख भले ही तीन वस्तुओं का किया गया हो।

सभी वस्तुयें किसी न किसी प्रकार से अशुद्ध ही होती है और अशुद्ध वस्तुओं से पूजा नहीं की जा सकती। पूजा में शुद्ध वस्तुओं की ही अपेक्षा होती है क्योंकि पूजा दिव्य देवताओं की की जाती है। इसी क्रम में वस्तुओं के शुद्धिकरण या पवित्रीकरण का विधान होता है, विशेष क्रिया करने से वस्तु की अशुद्धि/अपवित्रता का निवारण हो जाता है।

प्रमाण क्या है

अब प्रश्न होता है कैसे माने, उत्तर है कि शास्त्रों में लिखा है इसलिये माने। क्या आपने समुद्र, शार्क, व्हेल, ज्वालामुखी, भूगर्भ, भूगर्भ के प्लेट इत्यादि अनेकानेक वस्तुयें देखी है, हो सकता है कुछ वस्तुयें देखी भी हो किन्तु जिनको नहीं देखी उसको कैसे स्वीकार करते हैं ? कहीं न कहीं पढ़ा-सुना है। उसी प्रकार शास्त्रों में भी लिखा है जिसे स्वीकार करना ही आस्तिकता है। अस्वीकार करना ही नास्तिकता है।

ऊपर जो प्रश्न था उसका उत्तर भी दिया गया है पुष्प (आदि अन्य वस्तुओं) की शुद्धि प्रोक्षण करने से, जल की शुद्धि उत्पवन करने से, जिह्वा की शुद्धि आचमन करने से होती है।

कुशा जिसका एक नाम ही पवित्री होता है की उत्पत्ति भगवान लोम (रोयें) से कही गयी है और यह पवित्र करने वाला है। ग्रहणकाल में जो भोजनादि होता है उसमें कुशा देने से वह अपवित्र नहीं होता किन्तु जिन भोज्यान्नों में कुशा न दी जाय वह अशुद्ध हो जाता है। पवित्रीकरण में कुशा का महत्वपूर्ण स्थान होता है और यदि स्वर्ण की अंगूठी धारण किया भी गया हो तो भी अन्य प्रयोग में कुशा आवश्यक होता ही है।

पवित्रीकरण की विधि

ऊपर यह बताया जा चुका है कि जल की पवित्री उत्पवन से, जिह्वा की पवित्री आचमन से और पुष्पादि वस्तुओं की पवित्री प्रोक्षण से होती है। इस प्रकार अब हमें इन विधियों के बारे में भी समझना आवश्यक है एवं इसे समझने से क्रम संबंधी भ्रम का भी निवारण हो जाता है, क्योंकि आचमन और शरीर शुद्धि को लेकर भ्रम रहता है पहले क्या करें ?

कर्मकांड सीखें आपको मात्र कुछ मंत्र और विधि की संक्षिप्त या विस्तृत जानकारी नहीं देता है अपितु सीखने के उद्देश्य से किसी भी विषय का गंभीर विश्लेषण करता है एवं भ्रमों के निवारण का प्रयास भी करता है, जिसके माध्यम से कर्मकांड की उक्त विषय को गहराई से समझा जा सकता है और एक कुशल कर्मकांडी बना जा सकता है।

प्रोक्षण और आचमन : पहले क्या करें ?

पहले आचमन करें या पहले प्रोक्षण करें इस विषय को लेकर विवाद होता ही रहता है। इसका निवारण ऊपर दिये गये प्रश्न और उत्तर से ही हो जाता है। जल भी मत्स्य का उच्छिष्ट है अतः प्रथम जल की शुद्धि होगी फिर अन्य वस्तुओं का आचमन, प्रोक्षण। किन्तु यहाँ तो वस्तुओं का प्रोक्षण बताया जा रहा है जबकि प्रश्न का तात्पर्य शरीर का प्रोक्षण है, वास्तव में हम जिसे शरीर का प्रोक्षण समझते हैं वह उत्पवन का रूपांतरण है। जब जल शुद्ध होगा तभी तो जल से आचमन किया जायेगा।

उत्पवन का तात्पर्य होता है – शुद्ध करना, स्वच्छ करना, शोधन करना, शुद्धिकरण क्रिया का भाव।

शरीर (बाह्याभ्यंतर) शुद्धि हेतु “पवित्रेस्थो …. तच्छकेयम्” मंत्र से पवित्री धारण करके “अपवित्रः पवित्रोवा ….. शुचिः” मंत्र भगवान विष्णु का स्मरण करते हैं और उक्त मंत्र का अर्थ ही होता है कि पुण्डरीकाक्ष का स्मरण करने से शरीर (बाहर और भीतर दोनों प्रकार से) शुद्ध हो जाता है। इसके साथ ही क्षेत्रभेद, कर्मकांडी भेद से और भी मंत्र पढ़े जाते हैं यथा “गङ्गागङ्गेति ……. गच्छति”, इसका तात्पर्य भी वही शरीर की शुद्धि ही होता है। मुच्यते सर्वपापेभ्यो से पापमुक्ति की सिद्धि होती है अर्थात अशुद्धि/अपवित्रता का निवारण भी होता है।

शरीर (बाह्याभ्यंतर) शुद्धि हेतु पवित्रेस्थो मंत्र से पवित्री धारण करके अपवित्रः पवित्रोवा मंत्र भगवान विष्णु का स्मरण करते हैं और उक्त मंत्र का अर्थ ही होता है कि पुण्डरीकाक्ष का स्मरण करने से शरीर (बाहर और भीतर दोनों प्रकार से) शुद्ध हो जाता है।

  • “द्रव्याणां चैव सर्वेषां शुद्धिरुत्पवनं स्मृतं” इसमें उत्पवन की विधि ज्ञात नहीं होती किन्तु यह ज्ञात होता है कि शुद्धिकरण की क्रिया का नाम ही उत्पवन है।
  • “प्रादेशप्रमाणकुशद्वयाभ्यामुत्पवनेन शुद्धिः” इससे यह ज्ञात होता है कि प्रादेशप्रमाण दो कुशाओं द्वारा उत्पवन करने से (जल की) शुद्धि होती है।

“पवित्रमध्येन जलादेरुत्क्षेपणम्” यहां उत्पवन से तात्पर्य स्पष्ट होता है कि पवित्री के मध्यभाग से जल का उत्क्षेपण करना (ऊपर की ओर उछालना) उत्पवन है जो विशेषरूप से हवन काल में देखने को मिलता है। अन्यत्र उसी का रूपांतर हाथ से जल ऊपर की और उछालना देखा जाता है जो सिर पर जाता है।

हवन काल में उत्पवन की विशेष विधि की जानकारी भी प्राप्त होती है, प्रादेश प्रमाण दो कुशाओं की पवित्री निर्माण कर, दोनों हाथों के अंगुष्ठ व अनामिका से पकड़ते हुये (हाथ को अधोमुखी रखते हुये) पवित्री के मध्य भाग से जल, घृत आदि को ऊपर की ओर उछाला जाता है।

अब प्रश्न है कि पूजा आदि के प्रारंभ में जल की इसी विधि से शुद्धि क्यों नहीं की जाती। पद्धतियों में उत्पवन की चर्चा क्यों नहीं प्राप्त होती है। इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि हाथ में पवित्री धारण करने के उपरांत हाथ में लिये गये जल का उसी पवित्री के मध्य भाग से स्पर्श हो जाता है और हाथ से ही ऊपर की ओर उछाला जाता है, किसी प्रमाण से ये भी उत्पवन का ही प्राकारान्तर हो जो ज्ञात नहीं है। अथवा यह एक अनुमान भी हो सकता है।

अथवा वो शरीर का ही प्रोक्षण हो यह भी हो सकता है और उत्पवन का उल्लेख पृथक रूप से पद्धतियों में हवन के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं किया गया है, संभवतः इसे गुप्त रखा गया हो यह भी हो सकता है। किन्तु अनुमान से कुछ भी हो सकता है, जब तक सप्रमाण सिद्ध न हो जाय कि जल हाथ में लेकर भी ऊपर की ओर उछालना उत्पवन का ही प्राकारान्तर है। इस विषय में हम विद्वानों के विचार और प्रमाणों को आमंत्रित करते हैं। इस प्रश्न का सप्रमाण उत्तर देने वाले विद्वान का आलेख यहां सचित्र प्रकाशित किया जायेगा।

पवित्रीकरण के संबंध में दो विषय जानने की उत्सुकता हो सकती है : “पवित्रीकरण के मंत्र” और “पवित्रीकरण प्रयोग” दोनों के अनुसरण पथ यहां समाहित हैं जो सहयोगी वेबसाइटों पर प्रकाशित किये गये हैं।

सारांश : कर्मकांड में पवित्रीकरण सबसे पहले होता है, और इसे सामान्य रूप से गंगाजल छिड़ककर किया जाता है। पवित्रीकरण का तात्पर्य है अशुद्धता को दूर करना, और इसके लिए कई मंत्र और विधियाँ हैं। लेकिन पवित्रीकरण का तात्पर्य मात्र शरीर की ही शुद्धि नहीं, प्रत्येक वस्तु को शुद्ध करना है। यह समझना आवश्यक है कि पवित्रीकरण क्यों और कैसे किया जाता है। हमारे आसपास प्रत्येक वस्तु में कुछ न कुछ अशुद्धता होती है, इसलिये जब भी कोई कर्मकांड किया जाता है तो सबको शुद्ध करना आवश्यक होता है। शुद्धिकरण की उचित विधि को समझना आवश्यक है, जिससे भ्रमों का निवारण हो सके।

विनम्र आग्रह : त्रुटियों को कदापि नहीं नकारा जा सकता है अतः किसी भी प्रकार की त्रुटि यदि दृष्टिगत हो तो कृपया सूचित करने की कृपा करें : info@karmkandvidhi.in

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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