नित्य अर्थात जिसकी प्रतिदिन पुनरावृत्ति हो वैसे कर्मों को समझना अत्यावश्यक है। कर्मकांड सीखने वालों के लिये सर्वप्रथम नित्यकर्म सीखना ही आवश्यक होता है। नित्यकर्म से रहित कर्मकांड का कोई महत्व नहीं है अतः नित्यकर्म और नैमित्तिक कर्मों के अंतर को भी समझना होगा, भ्रम को भी समझना होगा। इस आलेख में नित्य कर्म विषयक गंभीर चर्चा की गयी है साथ ही आवश्यकता है अथवा अनिवार्यता इसे भी समझने का प्रयास किया गया है और इस आलेख से नित्यकर्म विषयक ज्ञान की वृद्धि होती है।
सनातन धर्म में नित्यकर्म: एक विस्तृत अध्ययन | आवश्यकता या अनिवार्यता – Nitya Karma in Hindi
नित्य शब्द के अनेकों अर्थ होते हैं किन्तु हमें सनातन धर्म के कर्मकांड से संदर्भित जो नित्यकर्म उसके परिप्रेक्ष्य में यहां अर्थ ग्रहण करना होगा। कर्मकांड में नित्य से तात्पर्य जीवन पर्यन्त कर्तव्य है, क्योंकि जीवन के पश्चात इसका महत्व नहीं हो सकता भले ही नित्य का सदा विद्यमान रहने वाला होता हो। इसी प्रकार नित्य से और भी भाव प्राप्त होते हैं जो इसके लक्षण कहे जा सकते हैं, जिसकी चर्चा आगे करेंगे।
परिचय
प्रत्येक जीव जीवन पर्यन्त कुछ ऐसे कर्म करते ही रहते हैं जिसकी सदैव पुनरावृत्ति होती रहती है यथा – मलमूत्र विसर्जन, भोजन, शयन इत्यादि। किन्तु ये सभी जीवों में विद्यमान होते हैं यद्यपि इसके कुछ अपवाद भी हो सकते हैं। किन्तु यदि इतने कर्मों को ही नित्यकर्म माना जाय तो अन्य प्राणियों से मनुष्य की श्रेष्ठता कैसे सिद्ध होगी यह प्रश्न हमें और आगे विचार करने के लिये प्रेरित करता है।
मनुष्य का तात्पर्य है अन्य सभी जीवों से श्रेष्ठ होना और यहां हमें उन भ्रमों में उलझने की आवश्यकता नहीं है जो अधर्मियों द्वारा प्रचारित-प्रसारित किये जाते हैं। मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है और इसके लिये हमें रामचरित मानस से चौपाई प्राप्त होती है “सब मम प्रिय सब मम उपजाये। सबते अधिक मनुज मोहि भाये॥”
इस चौपाई की स्वीकार्यता में संदेह नहीं है, किन्तु आगे की चौपाइयों पर अधर्मियों द्वारा विवाद उत्पन्न किया जाता है, और अनेकों कुतर्क गढ़े जाते हैं। आगे की चौपाई है :
तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी॥
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी॥
इस चौपाई में मनुष्यों में भी क्रमशः श्रेष्ठता का वर्णन किया गया है जो अधर्मियों के शरीर में आग लगाने वाला है और वो “गंजे होकर भी बाल कटाने” लगते हैं। इन चौपाइयों में श्रेष्ठता का आधार संस्कार, गुण, ज्ञान, कर्म ग्रहण किया गया है किन्तु ये अधर्मी भौतिक आधारों से कुतर्क करते हुये इस श्रेष्ठता का खंडन करते हैं। इनके कुतर्क होते हैं सबका खून एक रंग का होता है; अरे मूर्खों खून तो कुत्ते का भी लाल ही होता है तो क्या वो मनुष्य के समान है ? क्या अन्य प्राणियों से मनुष्य की श्रेष्ठता का आधार खून का रंग है ?
रक्त के वर्ण की भांति ही और भी जो कुतर्क किये जाते हैं उनके आधार पर श्रेष्ठता का विचार ही नहीं किया गया है और उस दृष्टिकोण से विचार करना ही द्वेषात्मक है और यह द्वेष सनातन के प्रति है, सनातन शास्त्रों के प्रति है, जो सदियों से किया जाता रहा है, जिसका भेद खुल चुका है। यदि आपको सनातन से प्रेम है, धर्म में आस्था है, आत्मकल्याण चाहते हैं तो ही आपको यह आलेख पढ़ना चाहिये।
सनातन धर्म में नित्यकर्म: एक विस्तृत अध्ययन
मनुष्य की श्रेष्ठता का तात्पर्य है कि मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है अर्थात जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति पा सकता है किन्तु इसके लिये उसे सजग रहने और निरंतर प्रयास करने की आवश्यकता होती है, और इन प्रयासों में प्रथम प्रयास है नित्यकर्म। नित्यकर्म का मूल तात्पर्य भले ही आत्मकल्याण हो, अर्थात अपने आप को सुधारना और उच्चतम उद्देश्य (मोक्ष) की प्राप्ति हेतु मार्ग प्रशस्त करना, किन्तु इसका भौतिक लाभ भी होता है।
इस संदर्भ में यह कहना उचित होगा कि जो सनातन के मूर्ख समर्थक होते हैं, वे भौतिक लाभों के आधार पर ही आवश्यकता और महत्व सिद्ध करते हैं, लेकिन आपको उन मूर्खों की पंक्ति में सम्मिलित होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि भौतिक लाभ तो केवल अतिरिक्त लाभ (Additional benefits) है। किन्तु इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि वर्त्तमान में विश्व ऐसे लोभ के दलदल का निर्माण हो गया है जिसमें सभी अतिरिक्त लाभ (ऑफर) के पीछे ही भाग रहे हैं।
यदि आप इस अतिरिक्त लाभ में फंसे रह जाते हैं, तो आप मुख्य लाभ, जो कि आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाने वाला है, से वंचित हो सकते हैं। इसलिये आवश्यक है कि नित्यकर्म के सम्पूर्ण लाभ को समझें और इसे अपने जीवन में प्राथमिकता दें, ताकि आप अपने आध्यात्मिक और भौतिक विकास के बीच एक संतुलन स्थापित कर सकें अर्थात भौतिक विकास के लिये तो प्रयास करते ही रहते हैं किन्तु आत्मकल्याण का प्रयास भी करें, आत्मकल्याण को महत्वपूर्ण समझें।
सनातन सिद्धांत के अनुसार मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य है मोक्ष प्राप्ति अर्थात आवागमन के चक्र से मुक्ति है और इस दिशा में प्रयत्नशील नहीं है वह पशुवत ही नहीं उससे भी निकृष्ट श्रेणी का है क्योंकि पशु भी उन्नति करते हुये मनुष्य योनि को प्राप्त कर सकते हैं परन्तु मूर्ख मनुष्य जो आत्मकल्याण के विषय में नहीं सोचता; प्रयत्न नहीं करता वह तो नारकीय है और अन्ततोगत्वा पुनः 84 लाख योनियों में भटकने की ओर ही अग्रसर है।
भौतिक लाभ का विचार करना ही नरक का द्वार खोलता है, इसलिये मुख्य लाभ अर्थात आत्मकल्याण का विचार करते हुये ही जीवन निर्वाह करना चाहिये। उत्तम स्वास्थ्य, धन आदि का प्रयोजन भी धर्म ही है यदि उत्तम स्वास्थ्य, धन आदि भौतिक लाभ प्राप्त करके भी धर्म न किया जाय तो वह हानि ही है लाभ नहीं। इसलिये मुख्य विषय आत्मकल्याण से कभी भी विमुख नहीं होना चाहिये और भौतिक लाभों को भी उतना ही महत्व देना चाहिये जितने से वह मुख्य विषय आत्मकल्याण से भटकाने वाला न हो।
सनातन धर्म में नित्यकर्म का विशेष महत्व है। यदि स्वास्थ्य की ही बात करें तो भी मात्र शारीरिक स्वास्थ्य तात्पर्य नहीं लेना चाहिये।नित्यकर्म व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रखने में सहयोग करता है। इस प्रकार स्वास्थ्यपरक विचार ही करना हो तो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य तीन प्रकार से विचार करना होगा।
नित्यकर्म: जीवन का आधार
पुनः शरीर और आत्मा के आधार पर जब विचार करेंगे तो ज्ञात होता कि आत्मकल्याण की विशेष आवश्यकता के लिये नित्यकर्म की, धर्म की आवश्यकता है क्योंकि शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य तो अन्य विधियों से भी संभव है किन्तु आत्मकल्याण धर्म के बिना संभव नहीं है। इसी कारण शारीरिक स्वास्थ्य हो अथवा धन या अन्य भौतिक संसाधन सबका प्रयोजन आत्मकल्याण पथ पर अग्रसर होना ही है।
नित्यकर्म से चूंकि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का भी लाभ होता है इसलिये नित्यकर्म जीवन का आधार है। कर्मकांड में भी नित्यकर्म के बिना अन्य किसी कर्म का अधिकार सिद्ध नहीं होता है चाहे वह नैमित्तिक कर्म हो या शांति कर्म। इसके अतिरिक्त नित्यकर्म के आध्यात्मिक पहलू को समझना चाहें तो सरलता से इस प्रकार समझ सकते हैं कि दैनिक जीवन यापन में हमारे द्वारा न चाहते हुये भी अनेकों पाप होते ही रहते हैं और उन पापों को नित्यकर्म नष्ट कर देता है।
शास्त्रों में नित्यकर्म का उल्लेख
जितने भी कर्म हैं सबका शास्त्रों में वर्णन है। नित्यकर्म में प्रातः उठने से लेकर शयन तक सभी कर्मों का विधान मिलता है। संभव है प्रातः उठने के पश्चात् धरती पर पैर रखने से पूर्व पृथ्वी की प्रार्थना के विषय में जानते हों, किन्तु उन नित्यकर्मों का भी शास्त्रों में विधान है जिसके बारे में न जानते हों जैसे शौच-स्नान-भोजन आदि।
भोजन को यद्यपि नित्यकर्म नहीं कहा जा सकता क्योंकि व्रतों में भोजन का निषेध होता है और नित्यकर्म के बिना व्रत भी नहीं किया जा सकता अस्तु भोजन को नित्यकर्म नहीं समझना चाहिये।

किन्तु शौच-स्नान-संध्या-तर्पण आदि नित्यकर्म हैं और इन सबके बारे में शास्त्रों में विस्तृत चर्चा है। आगे के आलेखों में हम नित्यकर्म प्रयोग को विस्तार से समझेंगे, उसका विधान और मंत्र सब कुछ शास्त्रों में वर्णित है।
नित्यकर्म का महत्व
नित्यकर्म के विषय में एक भ्रम है जिसका संबंध मुख्य रूप से अंतर्जाल से है। इसे समझने के लिये आपको अंतर्जाल पर नित्यकर्म के महत्व को जिस प्रकार से समझाया जाता है उसे आगे के बिंदुओं से समझा जा सकता है। यहां जो महत्व बताया गया है वह AI से प्राप्त किया गया है :
- शारीरिक स्वच्छता: नित्यकर्म से शरीर स्वच्छ रहता है और रोगों से बचाव होता है।
- मानसिक शांति: नित्यकर्म करने से मन शांत होता है और तनाव कम होता है।
- आध्यात्मिक विकास: नित्यकर्म से आध्यात्मिक ऊर्जा का विकास होता है और ईश्वर के साथ हमारा संबंध मजबूत होता है।
- समाज में सम्मान: नित्यकर्म करने वाला व्यक्ति समाज में सम्मानित होता है।
- मोक्ष की प्राप्ति: नित्यकर्म करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
उपरोक्त बिंदुओं को पढ़ने के पश्चात् अब हम आगे नित्यकर्म के महत्व को समझते हैं और इससे स्पष्ट हो जाता है कि अंतर्जाल, AI जो भी हैं धर्म-कर्मकांड के विषय में सभी भ्रम मात्र का ही प्रचार-प्रसार करते हैं। नित्यकर्म के महत्व को समझने से पूर्व एक स्पष्टीकरण आवश्यक है कि नित्यकर्म के संबंध में एक भ्रम होता है कि मल-मूत्र विसर्जन मात्र ही नित्यकर्म है, अधिकतम इसमें स्नान को समाहित किया जाता है और वो भी भ्रम ही है। इसके विपरीत सत्य यह है कि शास्त्रों के अनुसार प्रतिदिन जो करना चाहिये वह नित्यकर्म है।
- नित्यकर्म से नित्यपापों का जो कि जीवननिर्वाह क्रम में होते ही रहते हैं का शमन होता है।
- नित्यकर्म करने के पश्चात् ही भोजन का अधिकार प्राप्त होता है। बिना नित्यकर्म किये भोजन का भी अधिकार प्राप्त नहीं होता है। भोजन नित्यकर्म नहीं है।
- नित्यकर्म के पश्चात् हमें आत्मकल्याण संबंधी अन्य कर्मों का अधिकार प्राप्त होता है।
- नित्यकर्म से स्वछता की प्राप्ति होती है जिस कारण शारीरिक लाभ और स्वास्थ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। किन्तु नित्यकर्म का यही महत्व नहीं है जो ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है यह अतिरिक्त लाभ है।
विभिन्न धर्मों में नित्यकर्म
विभिन्न धर्मों में नित्यकर्म की चर्चा आधुनिक विचार सिद्ध करने का अनूठा प्रयास होता है। इस प्रकार का विचार करने वाले वास्तव में धर्म को जानते ही नहीं हैं, अपितु पंथों को ही धर्म मानकर उसके आधार पर विश्लेषण करते हैं। एक सत्य यह भी है कि ऐसे विचार रखने वालों का एक बड़ा अंतरराष्ट्रीय गिरोह है और इन्हीं को पल्लवित-पुष्पित करने का प्रयास करता है। धर्म संबंधी वास्तविक चर्चा को रूढ़िवाद, सम्प्रदायवाद आदि घोषित करते हैं।
नित्यकर्म का संबंध मात्र धर्म से है जिसका नाम है सत्य सनातन धर्म। यदि पंथ को धर्म कहा जाता है तो यह सबसे बड़ी मूर्खता है। पंथों में धर्म का कोई लक्षण देखने को नहीं मिलता है। यदि पंथों में धर्म का आंशिक प्रभाव भी होता तो आज सनातन द्रोह (धर्मद्रोह) इतना नहीं होता। जय श्री राम के नारे तक को भारत में जो कि राम का ही देश है सांप्रदायिक सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। ये धर्मद्रोह अर्थात सनातन द्रोह ही है।
जब विभिन्न धर्म अर्थात अनेक धर्म ही नहीं हैं तो विभिन्न धर्मों में नित्यकर्म का विचार कहां से प्रकट हो सकता है। विभिन्न पंथों में नित्यकर्म कहा जा सकता है किन्तु किसी भी पंथ के नित्यकर्म की व्याख्या उस पंथ के व्याख्याकार ही कर सकते हैं। आधुनिकता के नाम पर दुराचार, अपराध, अनीति आदि को बढ़ावा देने वाले नहीं। विवाह पूर्व एक-दूसरे के साथ पति-पत्नी की तरह रहना दुराचार नहीं तो क्या है, अपराध और अनीति आदि का तो साम्राज्य फैला हुआ है वो सबको दिख भी रहा है।
नित्यकर्म की विधि
नित्यकर्म विधि के लिये विस्तृत चर्चा तो पृथक आलेख में ही संभव है और कर्मकांड सीखें वेबसाइट पर नित्यकर्म विधि का विश्लेषण किया जायेगा। किन्तु नित्यकर्म विधि का जो अन्य अर्थ है वो है नित्यकर्म करने की विधि उसकी चर्चा संपूर्ण कर्मकांड विधि पर की जा चुकी है जिसका लिंक भी यहां दिया जा रहा है।
किन्तु नित्यकर्म विधि को समझने से पूर्व यह विचार करना भी आवश्यक है कि वो कौन से कारण थे जिससे वर्त्तमान युग में मात्र कुछ कर्मकांडी ही नित्यकर्म कर रहे हैं शेष सबने नित्यकर्म का त्याग कर दिया है ? ये वास्तविकता है कि वर्त्तमान युग में कुछ कर्मकांडियों (सभी नहीं) तक ही नित्यकर्म सिमटकर रह गया है और उसमें भी पूर्ण रूपेण नहीं आंशिक (प्रातः संध्या मात्र)
नित्यकर्म की आवश्यकता या अनिवार्यता
नित्यकर्म में प्रातः संध्या मात्र ही नहीं, त्रिकाल संध्या है, इसके साथ ही तर्पण, पंचदेवता-विष्णु पूजन, हवन, बलिवैश्वदेव, आदि भी आते हैं। एक बार हवन को अग्निहोत्री तक रखा जा सकता है किन्तु शेष नित्यकर्म तो सबके लिये हैं न फिर क्यों नहीं करते हैं ? कोई न कोई कारण तो होगा ? विचार करना चाहिये अथवा नहीं। क्या ये प्रयास नहीं करना चाहिये कि वर्त्तमान पीढ़ी न कर रही हो, अगली पीढ़ी भी पुनर्वापसी न करे, किन्तु तीसरी पीढ़ी तो वापसी करे इसके लिये तो सबको अपना योगदान देना चाहिये।
शताब्दियों की परतंत्रता को एक कारण तो कहा जा सकता है और मुख्य कारण कहा जा सकता है किन्तु यदि यही मुख्य कारण था तो क्या हम अभी भी परतंत्र हैं यह प्रश्न उत्पन्न होता है क्योंकि अभी भी हम अपने धर्म की सच्ची बात बोलने में डरते हैं, हमारे धर्मग्रंथों को फाड़ा जाता है, जलाया जाता है, हमारे देवता-धर्म की सार्वजनिक रूप निंदा की जाती है। हम शास्त्रवचनों को रूढ़िवादिता कहकर अस्वीकार कर रहे हैं यह सिद्ध करता है कि वैचारिक रूप से तो निश्चित रूप से परतंत्र हैं अन्यथा हम अपने शास्त्रों में अविश्वास कैसे कर सकते हैं, उसकी निंदा कैसे कर सकते हैं।
और तो और यदि कोई शास्त्रोक्त चर्चा करे भी तो उसे दबाया जाता है, पुराने जमाने की सोच बताई जाती है, किस शास्त्र में लिखा है ऐसे प्रश्न किया जाता है और सुनने का साहस नहीं दिखाया जाता कि किस शास्त्र में लिखा है, यदि शास्त्र की बात बता दी जाये तो शास्त्र पर ही प्रश्नचिह्न लगाया जाता है, शास्त्रों को ही जलाने का प्रयास किया जाता है।
एक अन्य कारण जो है वो यह है कि अनिवार्यता को आवश्यकता समझ लेना। आवश्यकता का तात्पर्य होता है आवश्यक तो है किन्तु अनिवार्य नहीं है। अनिवार्यता का तात्पर्य होता है आवश्यकता का विचार किये बिना स्वीकार करना। नित्यकर्म को आवश्यकता समझने के कारण भी आज हम इसे छोड़ चुके हैं जब कि यह आवश्यक नहीं अनिवार्य है।
- नित्यकर्म किये बिना भोजन का भी अधिकार प्राप्त नहीं होता जो यह सिद्ध करता है कि नित्यकर्म आवश्यक नहीं अनिवार्य है।
- नित्यकर्म के बिना नित्य पापों का शमन नहीं होता जिससे यह सिद्ध होता है कि नित्यकर्म आवश्यक नहीं अनिवार्य है।
निष्कर्ष : आवश्यकता यह है कि क्या हम वर्त्तमान में भी परतंत्र हैं और यदि परतंत्र हैं तो स्वतंत्र होने का प्रयास करना चाहिये। यदि स्वतंत्र हो गए हैं तो अपने धर्म-कर्म का पालन करना आरम्भ करना चाहिये। नित्यकर्म को आवश्यक नहीं अनिवार्य समझना चाहिये और स्वयं भी सीखकर प्रारम्भ करना चाहिये, आत्मकल्याण का प्रयास करना चाहिये।
विनम्र आग्रह : त्रुटियों को कदापि नहीं नकारा जा सकता है अतः किसी भी प्रकार की त्रुटि यदि दृष्टिगत हो तो कृपया सूचित करने की कृपा करें : info@karmkandvidhi.in
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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