क्या सनातन सिद्धांतों को विज्ञान द्वारा प्रमाणित होना अनिवार्य है – Dharm aur Vaigyanita

क्या सनातन सिद्धांतों को विज्ञान द्वारा प्रमाणित होना अनिवार्य है - Dharm aur Vaigyanita

कुछ दशकों से एक नयी परम्परा पनप रही है और वो है विज्ञान द्वारा सनातन के सिद्धांतों को प्रमाणपत्र देना अथवा सनातन के सिद्धांतों की वैज्ञानिकता सिद्धि करने का प्रयास किया जा रहा है अर्थात धर्म को विज्ञान के समक्ष नतमस्तक किया जा रहा है और ये उल्टी गंगा बहाई जा रही है। अध्यात्म विज्ञान की सीमा से परे है अथवा जहां विज्ञान की सीमा समाप्त हो जाती है अध्यात्म का वहां से आरंभ ही होता है फिर विज्ञान किस प्रकार से धर्म-अध्यात्मक विषयों की सिद्धि कर सकती है।

यदि एक पल के लिये विज्ञान को ही प्रमाणक मान भी लिया जाय तो भी एक प्रश्न है और वो यह है कि एक मात्र सनातन के लिये ही क्यों कुचक्र किया जा रहा है ? यहां यही समझने का प्रयास किया गया है कि क्या सनातन सिद्धांतों को विज्ञान द्वारा प्रमाणित होना अनिवार्य है ?

विज्ञान की सीमा है और वो सीमा है भौतिक प्रभाव अर्थात किसी भी प्रकार से देखा-सुना-छुआ-सूंघा-अनुभव आदि जा सके। यथा हम खुले नेत्रों से न देख सकें न सही किन्तु यंत्रों के द्वारा देखा जा सके, यदि देख नहीं सकते तो भी श्रवण-स्पर्श-घ्राण-अनुभूति आदि की जा सके। जैसे वायु को देख नहीं सकते किन्तु भौतिक अनुभूति कर सकते हैं, धूम्र को तो देख भी सकते हैं। यदि कोई अंधा हो तो भी श्रवण-स्पर्शादि द्वारा भौतिक अनुभूति तो कर ही लेता है। यही विज्ञान की सीमा है; विज्ञान इससे आगे नहीं जा सकता है।

शक्ति हो, गति हो, तापमान, शीतलता अथवा आर्द्रता हो, घर्षण हो, गुरुत्वाकर्षण हो आदि-इत्यादि विज्ञान का विषय हो सकता है। विज्ञान जिस मन-मस्तिष्क तक पहुंचने का नियन्त्रित करने का प्रयास कर रहा है, आत्मा उससे भी सूक्ष्म है और मन-मस्तिष्क की भी आत्मा तक पहुंच नहीं है। विज्ञान की सीमा जहां जाकर समाप्त हो जाती है वहां से अध्यात्म का प्रारंभ ही होता है। फिर प्रश्न यह है कि आध्यात्मिक सिद्धांतों का आकलन विज्ञान करेगा कैसे ?

प्रश्नपत्र की जांच तो शिक्षक करते हैं न, प्रमाणपत्र देने वाली संस्थायें अधिकृत हो तभी तो प्रमाणपत्र का महत्व होता है। विज्ञान न ही अध्यात्म को जानता है, न ही प्रमाणपत्र देने के लिये अधिकृत है और न ही धर्म-अध्यात्म को विज्ञान से प्रमाणपत्र की आवश्यकता होती है।

फिर यह वैज्ञानिकता-वैज्ञानिकता चिल्लाने वाले कौन है और क्यों चिल्लाने लगे हैं ? कहीं न कहीं षड्यंत्र है।

अनेकानेक उदाहरण होते है जहां रोगी कहता है हमें समस्या है, दर्द है आदि-इत्यादि किन्तु किसी भी जांच में कोई समस्या ज्ञात नहीं होती तो क्या इसका तात्पर्य यह होगा कि रोगी स्वस्थ है, कोई रोग नहीं है। यह विज्ञान की विफलता क्यों नहीं कही जाती है? इसी प्रकार कई बार चिकित्सक रोगियों की जाँच करने के बाद कहते हैं आप चल कैसे रहे हैं, आप खड़े कैसे हैं ?

अर्थात उनका तात्पर्य होता है कि विज्ञान के अनुसार आपकी स्थिति गंभीर है और आपको शय्या पर होना चाहिये था। जिस व्यक्ति को विज्ञान के अनुसार शय्या पर होना चाहिये था, खड़ा नहीं हो सकता था वह यदि चल-फिर रहा है तो इसका क्या यह तात्पर्य विज्ञान की विफलता क्यों नहीं है ?

विज्ञान तो जो उसका विषय है, उसकी सीमा में है उसमें भी विफल होता है फिर जो उसकी सीमा में है ही उसका विचार किस आधार व अधिकार से कर सकता है?

  • पुष्प स्नान से पूर्व तोड़ना चाहिये और तुलसी स्नानोपरांत। अब इसमें कौन सा वैज्ञानिक आधार लिया जायेगा ?
  • हवनाग्नि में क्रव्याद नामक अग्नि का त्याग किया जाता है, इसमें कौन सा वैज्ञानिक आधार होगा ?
  • घृत के आज्य में परिवर्तन की एक विशेष प्रक्रिया है, यदि घृत को द्रवित करना मात्र हो तो किसी भी आग पर अथवा धूप में रखकर भी किया जा सकता है किन्तु उसकी विशेष विधि है, वैज्ञानिकता कहां से ढूंढा जायेगा ?
  • कन्यादान देवता, अग्नि और ब्राह्मण के सान्निध्य में होना चाहिये, इसमें वैज्ञानिकता कहां से ढूंढा जायेगा। अग्नि सान्निध्य का तात्पर्य तो सामान्य अग्नि भी हो सकता है ?
  • विष्णु को अक्षत, शिव को शंख का जल, दुर्गा को दूर्वा, गणेश को तुलसी, सूर्य को बिल्वपत्र अर्पित करने का निषेध है, इसका वैज्ञानिक कारण कैसे ज्ञात किया जायेगा ?
  • ऐसे अनगिनत तथ्य हैं जहां वैज्ञानिकता नहीं सिद्ध किया जा सकता है, तो फिर कुछ विषयों में वैज्ञानिकता-वैज्ञानिकता क्यों चिल्लाते हैं ?

जब विज्ञान की सीमा ही अध्यात्म की सीमा से पूर्व समाप्त हो जाती है तो फिर अध्यात्म में विज्ञान अपनी नाक घुसेड़ क्यों रहा है। क्या वास्तव में विज्ञान ही अध्यात्म में अपनी नाक घुसेड़ रहा अथवा कोई और है जो विज्ञान के कंधे से निशाना लगा रहा है। और इतना ही नहीं जो विज्ञान के कंधे से निशाना लगा रहा है वो ही वास्तविक शिकारी है अथवा असली खिलाड़ी कोई और ही है जो उस शिकारी से शिकार करना चाहता है ?

वास्तविकता यही है कि विज्ञान अपनी सीमा को समझता है और स्वयं विज्ञान अपनी नाक नहीं घुसेड़ रहा है। कुछ सनातन द्रोही हैं यथा वामपंथी, विधर्मी आदि जो खिलाड़ी बनकर प्रश्नचिह्न लगाते हैं और जो सनातनी हैं वो स्वयं ही वैज्ञानिकता-वैज्ञानिकता चिल्लाने लगते हैं अर्थात इन्हें विवश किया जा रहा है। सनातन को विज्ञान की कसौटी पर सिद्ध करने का प्रयास सनातनी ही करते हैं किन्तु ऐसा करने के लिये उन्हें विवश किया जाता है। किन्तु ऐसा कुचक्र करने वाला बड़ा समूह है जो सनातनियों के आस्था को समाप्त करना चाहता है।

कुचक्र की काट

कुचक्र की वास्तविक समस्या धर्म और अध्यात्म के विषय में राजनीतिक बहस करना है। धर्म और अध्यात्म से जुड़े विषयों की चर्चा जिसने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया है वो करने लगा है यह बड़ी समस्या है। चिकित्सा से सम्बंधित चर्चा चिकित्सक कर सकता है, कानून और संविधान की चर्चा अधिवक्ता आदि कर सकते हैं, कर सम्बन्धी चर्चा लेखपाल आदि कर सकता है, इतिहास की चर्चा इतिहासविद कर सकते हैं, अर्थ संबंधी चर्चा अर्थशास्त्री कर सकते हैं तो ऐसा कैसे हो सकता है कि धर्म और अध्यात्म की चर्चा कोई भी कर सकता है ?

विभिन्न संचार माध्यमों से अर्थात दृश्यों-लेखों द्वारा जो बताया जाता है वह अनधिकृत लोगों द्वारा प्रचारित किया जा रहा भ्रम है। यथा फिल्मों, धारावाहिकों, समाचारों आदि के द्वारा धर्म और अध्यात्म का ज्ञान बांटा जा रहा है और नई पीढ़ियां उसी को गुरु मान रही है। एक फिल्म में यह बताया गया कि अब यदि भगवान अवतार लेंगे तो वो अभी के जैसे ही दिखेंगे न, पैंट-सर्ट पहनेंगे, धर्म-कर्म रहित होंगे आदि-इत्यादि और लोग वही समझने लगे।

कुचक्र की काट यही है कि ये विभिन्न माध्यम धर्म और अध्यात्म का ज्ञान बांटना बंद करे और यदि ये बांट रहे हैं तो इसके लिये विद्वानों से मार्गदर्शन प्राप्त करें। इन सभी के लिये विद्वानों की एक बड़ी परिषद् होनी चाहिये जो उचित-अनुचित का शास्त्रानुसार निर्णय दे और तब वो दिखाया जाय। परिषद् भी एक नहीं हो एकाधिक हो जिससे पूर्ण रूप से शास्त्रसम्मत है यह सुनिश्चित हो सके। यह आवश्यक है क्योंकि लोगों की सोच को ये सभी प्रभावित कर रहे हैं। किन्तु यह कुचक्र को रोकने का एक उपाय मात्र है।

वास्तव में विभिन्न दृश्य-लेख आदि माध्यमों से सामान्य जनमानस को धर्म-अध्यात्म का ज्ञान देने का प्रयास होना ही नहीं चाहिये। जनमानस को जब जो संदेह हो निवारण हेतु विद्वानों के पास जाना चाहिये, ज्ञान चाहिये तो ज्ञान हेतु भी गुरु-विद्वानों के पास जाना चाहिये, स्वयं भी शास्त्रों का अध्ययन-मनन करना चाहिये। किन्तु विभिन्न दृश्य-लेख आदि माध्यमों से जो बताया जाता है उस पर रत्तीभर भी विश्वास नहीं करना चाहिये।

किन्तु यहां एक और प्रश्न आएगा कि यह जो कि आप पढ़ रहे हैं; भी तो एक लेख ही है। किन्तु समझने में थोड़ी कमी है, यहां राजनीति-विज्ञान-कानून-चिकित्सा आदि की चर्चा नहीं होती है यहां चर्चा ही धर्म-अध्यात्म-कर्मकांड से ही किया जाता है। यहां चर्चा को सिद्ध करने के लिये प्रमाण भी प्रस्तुत किया जाता है न कि कुतर्क किया जाता है।

क्योंकि ये कुतर्क करने वाले तो यहां तक कुतर्क करते हैं कि मैं और मेरा भगवान है, बीच में गुरु, ब्राह्मण, संत आदि का क्या काम है ? किन्तु इनसे कोई ये नहीं पूछता कि तुम हो तुम्हारा रोग है बीच में डॉक्टर का क्या काम है, तुम हो तुम्हारा टैक्स है बीच में CA का क्या काम है, तुम हो तुम्हारा केस है बीच में वकील का क्या काम है, तुम हो तुम्हारी शिक्षा है बीच में शिक्षक का क्या काम है ?

निष्कर्ष : कुल मिलाकर यदि निष्कर्ष पर पहुंचना चाहें तो यही निचोड़ है कि धर्म और अध्यात्म की सीमा का आरम्भ ही वहां से होता है जहां विज्ञान की सीमा समाप्त हो जाती है और विज्ञान की कसौटी पर धार्मिक सिद्धांतों को कसने का प्रयास करना एक कुकृत्य ही है। ऐसा नहीं करना चाहिये और न ही अन्य किसी को भी जो विद्वान नहीं है धर्म और अध्यात्म विषयक ज्ञान बांटना चाहिये।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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