पति-पत्नी का जीवन और अविच्छेद्य संबंध – Husband Wife Relationship

पति-पत्नी का जीवन और अविच्छेद्य संबंध - Husband Wife Relationship

वर्त्तमान काल में लोग भारतीय संस्कृति, धर्म आदि की कितनी भी चर्चा करें, विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका तक भारतीय संस्कृति के विरुद्ध आचरण व व्यवहार कर रही है, अन्यों की तो गणना ही क्या करें। परिस्थिति विकट हो चुकी है और अब पति-पत्नी का परस्पर परित्याग ही नहीं एक दूसरे की हत्या तक पहुंच गयी है; अनेकों ऐसी घटनायें घटित हो रही हैं जिसमें प्रेमी से मिलकर पत्नी ही पति की हत्या कर देती है। ये तो भारतीय संस्कृति नहीं है। पति-पत्नी का संबंध भारतीय संस्कृति में कैसा होता है यह हमें शास्त्रों से ज्ञात होता है और सर्वप्रथम इसे समझने का प्रयास करते हैं।

  • अविच्छेद्य सम्बन्ध: सनातन धर्म के अनुसार, विवाह एक पवित्र और अटूट बंधन है। पति और पत्नी का सम्बन्ध जीवन भर के लिए होता है और किसी भी परिस्थिति में एक-दूसरे का त्याग वर्जित और निंदनीय माना गया है।
  • पारस्परिक कर्तव्य: जिस प्रकार पत्नी के लिए पतिव्रत धर्म महत्वपूर्ण है, उसी प्रकार पति का भी कर्तव्य है कि वह अपनी पत्नी का पालन-पोषण और सम्मान करे, चाहे पत्नी का स्वभाव कैसा भी हो (जैसे क्रूर, कुरूप या कठोर बोलने वाली)। दोनों को एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहना चाहिए।
  • धार्मिक जीवन में पत्नी का महत्व: पत्नी को ‘सहधर्मिणी’ कहा गया है, जिसका अर्थ है धर्म के कार्यों में समान भागीदार। पत्नी के बिना पति धार्मिक अनुष्ठान, विशेषकर यज्ञ आदि करने का अधिकारी नहीं रहता। लेख में ब्राह्मण की कथा का उदाहरण है, जिसकी पत्नी के बिना उसके नित्य कर्म और धर्म का लोप हो रहा था।
  • पत्नी-त्याग का पाप: मार्कण्डेय पुराण में राजा उत्तानपाद के पुत्र उत्तम की कथा के माध्यम से बताया गया है कि पत्नी का त्याग करना धर्म का लोप करना है और यह पाप का भागी बनाता है। मुनि ने राजा उत्तम को पत्नी त्याग के कारण अर्घ्य के अयोग्य बताया।
  • पत्नी एक तीर्थ: पद्म पुराण का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि माता-पिता और गुरु के समान ही पत्नी भी पूजनीय और तीर्थस्वरूपा है। कृकल नामक वैश्य की कथा यह दर्शाती है कि पत्नी के बिना किया गया तीर्थाटन भी निष्फल हो सकता है।
  • समस्याओं का समाधान: यदि पति-पत्नी के स्वभाव में प्रतिकूलता हो, तो हिन्दू धर्म विवाह-विच्छेद के स्थान पर यज्ञादि जैसे धार्मिक और ज्योतिषीय उपाय सुझाता है (जैसे मित्रविन्दा यज्ञ), जिससे स्वभाव में अनुकूलता लाई जा सके। ग्रहों की अनुकूलता का भी विवाह में महत्व बताया गया है।
  • आदर्श दाम्पत्य: आदर्श दाम्पत्य जीवन वह है जिसमें पति-पत्नी ‘दो देह, एक प्राण’ होकर परस्पर सहयोग से धर्म, अर्थ, काम का संपादन करते हुए जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष की ओर अग्रसर हों।

भारतीय संस्कृति में पति-पत्नी को मिलाकर 2 नहीं एक होता है, पत्नी को अर्द्धांगिनी कहा जाता है। पति-पत्नी का संबंध धर्म का होता है और अविच्छेद्य होता है तो ये दाम्पत्य विच्छेद (तलाक) कहां से टपक गयी। इसका टपकना यह सिद्ध करता है कि जो लोग देश को चलाने वाले थे और हैं वो विदेशी संस्कृति से प्रभावित व भारतीय संस्कृति से अनभिज्ञ थे व हैं।

न्यायपालिका तो समलैंगिक विवाह तक थोपने का प्रयास कर रही थी किन्तु संयोग से सरकार में वो दल थी जो आंशिक रूप से ही सही भारतीय संस्कृति की बात करती है। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि पति-पत्नी के संबंध पर न्यायपालिका प्रहार कर रही है। दाम्पत्य-विच्छेद (तलाक) को कौन मान्यता देती है न्यायपालिका ही तो देती है।

किन्तु समस्या न्यायपालिका नहीं है न्यायपालिका में विदेशी संस्कृति से प्रभावित बैठे हुये लोग हैं जो भारतीय संस्कृति के प्रति दुराग्रह की भावना से ग्रसित हैं। इनके पीछे शैक्षणिक व्यवस्था है जो इस प्रकार की शिक्षा देती है। शैक्षणिक व्यवस्था के साथ ही फिल्म-धारावाहिक, मीडिया आदि भी आधुनिकता के नाम पर भारतीय संस्कृति के मूल छेदन का कुकर्म कर रहे हैं। आवश्यकता भारतीय संस्कृति को जानने-समझने की है जिसके लिये यह आलेख बहुत ही महत्वपूर्ण है।

भारतीय संस्कृति में पति-पत्नी का अविच्छेद्य संबंध

यह लेख सनातन धर्म और धर्मशास्त्र की दृष्टि से पति-पत्नी के सम्बन्ध की अविच्छेद्यता और गहराई पर प्रकाश डालता है। यहां विद्यावारिधि दीनदयालमणि त्रिपाठी द्वारा संकलित लेख यथावत प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है जो पति-पत्नी के परस्पर अविच्छेद्य; अन्योन्याश्रित संबंध पर पौराणिक आख्यानों का आधार लेते हुये प्रकाश डालता है।

सनातन धर्म में, धर्मशास्त्र की दृष्टि से पति-पत्नी का सम्बन्ध सर्वथा अविच्छेद्य है। जिस प्रकार पत्नी के लिये पति का त्याग किसी भी परिस्थिति में विहित नहीं और निन्दित है , उसी प्रकार पति के द्वारा भी पत्नी का त्याग अथवा तिरस्कार सर्वथा अनुचित है।

इस सम्बन्ध में मार्कण्डेयपुराण में एक बड़ा सुन्दर आख्यान मिलता है। सृष्टि के आरम्भ की बात है। मानवी सृष्टि के आदि प्रवर्तक महाराज स्वायम्भुव मनु के पुत्र राजा उत्तानपाद के दो संतान हुईं। उनमें ज्येष्ठ थे महाभागवत ध्रुव, जिनकी कीर्ति जगद्विख्यात है। उनके सौतेले भाई का नाम था उत्तम।

इनका जैसा नाम था, वैसे ही इनमें गुण थे। शत्रु-मित्र में तथा अपने-पराये में इनका समान भाव था। ये धर्मज्ञ थे और दुष्टोंके लिये यमराज के समान भयंकर तथा साधु पुरुषों के लिये चन्द्रमा के समान आह्लादजनक थे। इनकी पत्नी का नाम था बहुला। बहुला में इनकी बड़ी आसक्ति थी।

स्वप्न में भी इनका चित्त बहुला में ही लगा रहता था। ये सदा रानी के इच्छानुसार ही चलते थे, फिर भी वह कभी इनके अनुकूल नहीं होती थी। एक बार अन्यान्य राजाओं के समक्ष ही रानी ने राजा की आज्ञा मानना अस्वीकार कर दिया। इससे राजा को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने रानी को जंगल में छुड़वा दिया। रानी को भी राजा से अलग होने में प्रसन्नता ही हुई। राजा औरस पुत्रों की भाँति प्रजाका पालन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगे।

भारतीय संस्कृति में पति-पत्नी का अविच्छेद्य संबंध
भारतीय संस्कृति में पति-पत्नी का अविच्छेद्य संबंध

एक दिन की बात है, कोई ब्राह्मण उनके दरबार में उपस्थित हुआ। उसने राजा से प्रार्थना की, कि उसकी पत्नी को रात में कोई चुरा ले गया। राजा के पूछनेपर ब्राह्मणने बताया कि “उसकी पत्नी स्वभाव की बड़ी क्रूर है, कुरूपा भी है तथा वाणी भी उसकी कठोर है। उसकी पहली अवस्था भी कुछ-कुछ बीत चुकी थी।” फिर भी राजा से उसने अपनी पत्नीका पता लगाकर उसे वापस मँगवा देने की प्रार्थना की। 

राजा ने कहा – “ब्राह्मण देवता ! तुम ऐसी स्त्री के लिये क्यों दुःखी होते हो; मैं तुम्हें दूसरी स्त्री दिला दूँगा। रूप और शील दोनों से हीन होने के कारण वह स्त्री तो त्याग देने योग्य ही है।” 

ब्राह्मण शास्त्र का मर्मज्ञ था। उसे राजा की यह बात पसंद नहीं आयी। उसने कहा – “राजन् ! भार्याकी रक्षा करनी चाहिये, यह श्रुति का परम आदेश है। उसकी रक्षा न करनेपर वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है। वर्णसंकर अपने पितरों को स्वर्ग से नीचे गिरा देता है। पत्नी न होनेसे मेरे नित्य कर्म की हानि हो रही है। धर्म का लोप हो रहा है, इससे मेरा पतन अवश्यम्भावी है। उससे मुझे जो संतति प्राप्त होगी, वह धर्म का पालन करने वाली होगी। इसलिये जैसे भी हो, आप मेरी पत्नीको वापस ला दें। आप राजा हैं, प्रजा की रक्षा करना आपका कर्तव्य है।”

ब्राह्मण के शब्द राजा पर असर कर गये। उन्होंने सोच-विचारकर अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। वे ब्राह्मणपत्नी की खोज में घर से निकल पड़े और पृथ्वी पर इधर-उधर घूमने लगे। एक दिन वन में घूमते-घूमते उन्हें किसी मुनि का आश्रम दिखायी पड़ा। आश्रम में उन्होंने मुनि का दर्शन किया। मुनि ने भी उनका स्वागत किया और अपने शिष्य से अर्घ्य लाने को कहा। इसपर शिष्य ने उनके कान में धीरे से कुछ कहा तथा मुनि ने ध्यान द्वारा सारी बात जान ली और राजा को आसन देकर केवल बातचीत के द्वारा ही उनका सत्कार किया। राजा के मन में मुनिके इस व्यवहारसे संदेह हो गया और उन्होंने मुनि से विनयपूर्वक अर्घ्य न देने का कारण जानना चाहा।

मुनिने बताया कि : “राजाने अपनी पत्नीका त्याग करके धर्मका लोप कर दिया है, इसीसे वे अर्घ्यके पात्र नहीं हैं।”

उन्होंने कहा – “राजन् ! पति का स्वभाव कैसा भी हो, पत्नी को उचित है कि वह सदा पति के अनुकूल रहे। इसी प्रकार पति का भी कर्तव्य है कि वह दुष्ट स्वभाववाली पत्नी का भी पालन-पोषण करे।”

राजा ने अपनी भूल स्वीकार की और मुनिसे उस ब्राह्मणपत्नीका हाल जानना चाहा। ऋषि ने बताया कि ब्राह्मणपत्नी को (अमुक) राक्षस ले गया है और (अमुक) वन में जाने पर वह मिल जायगी। साथ ही उन्होंने शीघ्र ही उस ब्राह्मणपत्नी को ले आनेके लिये कहा, जिससे उस ब्राह्मण को भी उन्हीं की भाँति दिनों-दिन पाप का भागी न होना पड़े।

राजा ने मुनि को कृतज्ञतापूर्वक प्रणाम किया और उनके बताये हए वन में जाकर ब्राह्मणपत्नी का पता लगाया। वह अबतक चरित्र से गिरी नहीं थी। राक्षस उसे केवल इसीलिये ले आया था कि ब्राह्मण विद्वान् होने के कारण सभी यज्ञों में ऋत्विज बनता था और जहाँ कहीं वह राक्षस जाता, उसे रक्षोघ्न मन्त्रों द्वारा भगा दिया करता था, जिससे उसे परिवार सहित भूखों मरना पड़ता था।

राक्षस इस बात को जानता था कि कोई भी पुरुष पत्नी के बिना यज्ञ-कर्म नहीं कर सकता; इसलिये ब्राह्मण के कर्म में विघ्न डालने के लिये ही वह उसकी पत्नी को हर लाया था। राजा को प्रसन्न करने के लिये वह ब्राह्मणपत्नी को पुनः अपने पति के घर छोड़ आया और साथ ही उसके शरीर में प्रवेश करके उसके दुष्ट स्वभाव को भी खा गया, जिससे वह सर्वथा पति के अनुकूल बन गयी। 

अब राजा को अपनी पत्नी के विषय में चिन्ता हुई और वे उसका पता लगाने के लिये पुनः ऋषि के पास पहुँचे। ऋषि ने राजा को उसका सारा वृत्तान्त बता दिया और पत्नी-त्याग का दोष वर्णन करते हुए पुनः उनसे कहा –

“राजन् ! मनुष्यों के लिये पत्नी धर्म एवं काम की सिद्धिका कारण है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र-कोई भी क्यों न हो, पत्नी के न होनेपर वह कर्मानुष्ठानके योग्य नहीं रहता। जैसे पत्नी के लिये पति का त्याग अनुचित है, उसी प्रकार पुरुषों के लिये पत्नी का त्याग भी उचित नहीं।”

राजाके पूछने पर ऋषि ने उन्हें यह भी बताया कि पाणिग्रहण के समय सूर्य, मंगल और शनि की उनपर तथा शुक्र और गुरु की उनकी पत्नी पर दृष्टि थी। उस मुहूर्त में चन्द्रमा और बुध भी, जो परस्पर शत्रुभाव रखनेवाले हैं, उनकी पत्नी के अनुकूल थे और उनके प्रतिकूल। इसीलिये उन्हें अपनी रानीकी प्रतिकूलताका कष्ट भोगना पड़ा। रानी को वापस लाने का प्रयत्न करने के पूर्व राजा उस ऋत्विज ब्राह्मण के पास गये, जिसकी पत्नी उन्होंने राक्षससे वापस दिलवायी थी और उससे अपनी पत्नी को अनुकूल बनाने का उपाय पूछा।

ब्राह्मण ने राजा से मित्रविन्दा नामक यज्ञ करवाया। तब राजा ने उसी राक्षस के द्वारा, जो उस ब्राह्मण की पत्नी को हर ले गया था, अपनी पत्नी को भी बुलवा लिया। वह नागलोक में नागराज कपोत के यहाँ सुरक्षित थी। नागराज उसे अपनी पत्नी बनाना चाहता था; किंतु उसकी पुत्री ने यह सोचकर कि वह उसकी माँकी सौत बनने जा रही है, उसे छिपाकर अपने पास रख लिया, जिससे उसका सतीत्व अक्षुण्ण बना रहा। मित्रविन्दा नामक यज्ञके प्रभावसे उसका स्वभाव भी बदल गया और वह अब अपने पति के सर्वथा अनुकूल बन गयी।

तदनन्तर उसके गर्भ से एक महान् तेजस्वी पुत्रका जन्म हुआ, जो औत्तम नाम से विख्यात हुआ और जो तीसरे मन्वन्तर में मनु के पदपर प्रतिष्ठित हुआ। ये औत्तम मनु इतने प्रभावशाली हुए कि मार्कण्डेयपुराण में इनके सम्बन्ध में लिखा है – जो मनुष्य राजा उत्तम के उपाख्यान और औत्तम के जन्म की कथा प्रतिदिन सुनता है, उसका कभी किसीसे द्वेष नहीं होता। यही नहीं, इस चरित्र को सुनने और पढ़नेवाले का कभी अपनी पत्नी, पुत्र अथवा बन्धुओं से वियोग नहीं होता।

उपर्युक्त उपाख्यान से कई महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं। पहली बात तो इससे यही सिद्ध होती है कि विवाह-विच्छेद हिंदूधर्म को मान्य नहीं है। विवाह-संस्कार पति-पत्नी को जीवनभरके लिये अत्यन्त पवित्र धार्मिक बन्धन से बाँध देता है। पतिके बिना पत्नी अधूरी है और पत्नी के बिना पति धर्म-कर्म से च्युत हो जाता है, किसी भी कर्मानुष्ठान के योग्य नहीं रह जाता। यज्ञ-कर्म में तो विशेषरूप से पत्नी का सहयोग अनिवार्य है।

पद्मपुराण में तो यहाँतक कहा गया है कि “माता-पिता और गुरुके समान पत्नी भी एक तीर्थ है। जिस प्रकार पत्नी के लिये पति से बढ़कर कोई तीर्थ नहीं है, उसी प्रकार साध्वी पत्नी भी पति के लिये तीर्थतुल्य है-आदर की वस्तु है। जिस प्रकार पत्नी यदि पति को साथ लिये बिना कोई यज्ञ आदि धर्मानुष्ठान करती है तो वह निष्फल होता है, उसी प्रकार पति भी यदि सहधर्मिणी पत्नी के बिना धर्मानुष्ठान करता है तो उसका वह अनुष्ठान व्यर्थ हो जाता है।” 

पद्मपुराणमें पत्नीतीर्थ के प्रसंगमें कृकल नामक वैश्य की कथा आती है जिसमें अपनी साध्वी पत्नी सुकला को साथ में लिये बिना ही तीर्थाटन किया था; किंतु उसकी इस तीर्थयात्रासे शुभ फल होना तो दूर रहा, उलटे उसके पितर बाँधे गये। इसके बाद कृकलने घरपर ही रहकर पत्नीके साथ श्रद्धापूर्वक श्राद्ध और देवपूजन आदि पुण्यकर्मों का अनुष्ठान किया।

इससे प्रसन्न होकर देवता, पितर और मुनिगण विमानोंके द्वारा वहाँ आये और महात्मा कृकल और उसकी महानुभावा पत्नी, दोनों की सराहना करने लगे। ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर भी अपनी देवियोंके साथ वहाँ गये। सम्पूर्ण देवता सती सुकलाके सत्यसे संतुष्ट थे। सबने उस पुनीत दम्पतिको मुँहमाँगा वरदान देकर उनपर पुष्पोंकी वर्षा की और उस पतिव्रताकी स्तुति करते हुए अपने-अपने लोक को चले गये।

उपर्युक्त वर्णनसे स्पष्ट हो जाता है कि हिंदू-धर्ममें पत्नीको कितना ऊँचा स्तर  एवं सम्मान दिया गया है और उसके अधिकार कितने सुरक्षित हैं। जिस प्रकार पत्नीके लिये यह आदेश है कि-

दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोऽपि वा। पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यः ……

(पति चाहे क्रूर स्वभावका हो, अभागा हो, वृद्ध हो, मूर्ख हो, रोगी अथवा निर्धन हो, पत्नी को चाहिये कि वह कभी उसका त्याग न करे), उसी प्रकार पतिका भी यह कर्तव्य है कि वह पत्नीका त्याग न करे-चाहे वह कर्कशा हो, कुरूपा हो अथवा परुषवादिनी हो। बल्कि उसके क्रूर स्वभावको मृदु करनेके लिये हमारे यहाँ यज्ञादि दैवी साधनोंकी व्यवस्था की गयी है, न कि विवाह-विच्छेदके द्वारा उसे अलग करनेकी।

उपर्युक्त आख्यानसे विवाहके पूर्व वर-कन्याके ग्रह आदि मिलानेकी भी आवश्यकता सिद्ध होती है। ग्रहोंके प्रतिकूल होनेपर भी पति-पत्नी में कलह आदि होनेकी सम्भावना रहती है। तात्पर्य यह है कि हमारे यहाँ सब प्रकारसे ऐसी व्यवस्था की गयी है कि जिसमें दाम्पत्य- जीवन अन्ततक सुखमय बना रहे, पति-पत्नी दो देह, एक प्राण होकर रहें और परस्पर सहयोगसे धर्म-अर्थ-कामका सम्पादन कर अन्तमें मनुष्य- जीवनके परम ध्येय-मोक्ष अथवा निःश्रेयसको प्राप्त करें। इसी आदर्शको सामने रखकर धर्मशास्त्रके सारे विधान बनाये गये हैं। 

समाजशास्त्रका जैसा सुन्दर अध्ययन हमारे ऋषियोंने किया है और गार्हस्थ्य-जीवनकी जैसी आदर्श व्यवस्था हमारे शास्त्रोंने बनायी है, वैसी अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। फिर भी आश्चर्य है कि हमारा शिक्षित समाज इस आदर्श व्यवस्थाको न अपनाकर पश्चिमके आदर्शोंको ही अनुकरणीय मानकर उन्हींको ग्रहण करनेके लिये लालायित है! भगवान् सबको सुबुद्धि दें।

हम अन्य विद्वद्जनों से भी इसी प्रकार की शास्त्रसम्मत व ज्ञानवर्द्धक संकलन, आलेख की आकांक्षा करते हैं।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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