शुद्धि विधान : दाह, मार्जन, प्रक्षालन, प्रोक्षण …. Shuddhi Vidhan

शुद्धि विधान : दाह, मार्जन, प्रक्षालन, प्रोक्षण इत्यादि

जब पवित्रीकरण की चर्चा चल रही हो तो शुद्धिकरण भी चर्चा अनिवार्य हो जाती है। शुद्धिकरण अर्थात अनेकानेक वस्तुओं की शुद्धि किस प्रकार से होती है। यदि यह ज्ञान न हो तो अशुद्ध वस्तुओं (मार्जन/प्रक्षालन रहित) का भी प्रोक्षण मात्र करके ही प्रयोग करते रहेंगे। पूजा-पाठ आदि में ही नहीं जीवन निर्वहन में भी शुद्ध वस्तुओं का ही उपयोग करना चाहिये। यदि अशुद्ध वस्तुओं का प्रयोग करेंगे तो उस अशुद्ध वस्तुओं का प्रभाव दुष्प्रभावी होता है। इस आलेख में अनेकानेक वस्तुओं के शुद्धिकरण संबंधी शास्त्रोक्त चर्चा सप्रमाण की गयी है।

शुद्धिकरण संबंधी विमर्श में स्पृश्यापृश्य की भी चर्चा होती है किन्तु यह स्मरण रखना अनिवार्य होता है कि देश का संविधान सार्वजनिक स्थलों पर इसका निषेध करता है और अपराध भी घोषित करता है। किन्तु ये भी एक तथ्य है कि सबको अपने धर्मपालन की स्वतंत्रता भी प्रदान करता है अतः हमारे घर के भीतर, व्यक्तिगत जीवन में, हमें शास्त्राज्ञा का पालन करते हुये धर्म करने से बाधित नहीं करता।

इस प्रकार स्पृश्यापृश्य विषयक तथ्यों को घर में पालनीय समझते हुये सार्वजनिक स्थलों पर स्वविवेक का प्रयोग करते हुये किसी की भावना को आहत किये बिना स्वधर्म का पालन करना चाहिये। स्पृश्यापृश्य संबंधी विषयों में इस प्रकार विवेक का प्रयोग करना चाहिये कि किसी प्रकार से देश का शासन विधान भी भंग न हो और स्वधर्म भी भंग न हो।

वस्तु के गुण-दोष का ज्ञान

शुद्धिविधान कहता है कि किसी भी वस्तु का उपयोग करने से पूर्व चाहे वह कर्मकांड (पूजा-हवन आदि) के लिये हो अथवा अथवा स्वयं (सेवन) हेतु हो; उस वस्तु के गुण-दोष का ज्ञान रखना आवश्यक होता है एवं यदि निवारण योग्य दोष हो तो उसका निवारण करके प्रयोग किया जा सकता है और यदि यदि दोष निवारण संभव न हो तो उस वस्तु का त्याग ही कर देना चाहिये। दोषयुक्त वस्तु का कर्मकांड हेतु अथवा स्वयं हेतु भी प्रयोग नहीं करना चाहिये।

यहां सेवन संबंधी चर्चा से थोड़ी खिन्नता भी उत्पन्न हो सकती है क्योंकि इससे अनेकानेक निषेध का पालन करना होगा। किन्तु धर्मपथ को अंगीकार करने तात्पर्य ही होता है विहित का पालन और निषिद्ध का त्याग करना। यदि इसका ज्ञान ही न हो कैसे किया जायेगा ?

दोष/अशुद्धि के कारण

सर्वप्रथम हमें दोष/अशुद्धि के कारण का ज्ञान होना चाहिये तत्पश्चात हम शुद्धाशुद्धनिर्णय का ज्ञान प्राप्त कर पायेंगे और जब शुद्धाशुद्धविवेक होगा तभी शुद्धिकरण/मार्जन/प्रक्षालन आदि के ज्ञान की उपयोगिता सिद्ध होगी अन्यथा नहीं। वर्त्तमान में हम युगधर्म से प्रभावित होकर शुद्धाशुद्धविवेक से रहित होते जा रहे हैं जिस कारण दोष/अशुद्धि का ज्ञान प्राप्त किये बिना दोष के भागी बनते जा रहे हैं। ये अति महत्वपूर्ण विषय है और यदि इस विषय का ज्ञान न हो तो धर्म-कर्मकांड सभी आडंबर मात्र ही सिद्ध होंगे।

देखने मात्र से ही शुद्धि का विचार नहीं होता है, शुद्धि का विचार अन्य विशेष प्रमाण से भी किया जाता है। यथा अन्यायोपार्जित धन अशुद्ध होता है और उसे ग्रहण करने से अन्य व्यक्ति को भी सावधान रहना चाहिये।

  • मल, मूत्र, वीर्य, ​​रक्त, वसा (मेद), मज्जा, सुरा, मद्यादि अत्यंत दोष/अशुद्धि के कारक कहे गये हैं – तत्र विण्मूत्रशुक्र रक्तवसा मज्जा सुरामद्यान्यत्यन्तौपहतिकारणानि ।
  • कुत्ते का मल, सूअर-बिल्ली आदि का मल, कर्णमल, नाखून, कफ-थूक, अश्रु आदि अन्य दूषित पदार्थ, पसीना आदि अल्प दोष/अशुद्धि के कारक होते हैं – श्वविड्वराहबिडालादीनि पुरीषादीनि च कर्णविण्नखश्लेष्माश्रु दूषिका स्वेदादीन्यल्पोपहतिकारणानि ।
  • इसी प्रकार शूद्र, सूतकीद्विज (अशौचावस्था युक्त) आदि जो अस्पृश्य होते हैं, कौआ आदि पक्षी जो अस्पृश्य होते हैं, मल, सूअर आदि अन्य पशु का स्पर्श अल्प दोष/अशुद्धि के कारक होते हैं – तथोच्छिष्टशुद्रेण सूतकिद्विजैरस्पृश्य काकादिभिश्चास्पृश्यविड्वराहादिभिः पशुभिश्च स्पर्शनमल्योपहतिरुच्यते ।
  • इसी प्रकार किसी अल्प क्षेत्र, अल्प समय, मूत्र, उच्छिष्ट, हिरण आदि का स्पर्श अल्प दोष/अशुद्धि का कारण होता है एवं पंचमवर्ण और अन्त्यज चांडाल-म्लेच्छादि, सूतिका, रजस्वला, पतित, शिकारी कुत्ता, शव और शव का स्पर्शकरने वाला अत्यंत दोषद/अशुद्धिकारक होता है – तथाऽल्पप्रदेशाल्पकालमूत्रोच्छिष्टमृगादिस्पर्शनमल्पोपहतिरुच्यते । पञ्चमाद्यन्त्यजाति चाण्डालाद्यैः सूतिकाया रजास्वलायाः पतितैः शुना शवेन च शवस्पृशां च स्पर्शेऽत्यन्तोपहतिर्भवति ।
  • अल्प काल, अल्प क्षेत्र होने पर भी मद्य का स्पर्श, उच्छिष्ट, रक्तादि के कारण होने वाला अल्प दोष भी अधिक काल होने पर अत्यंत दोषद/अशुद्धिकारक हो जाता है – अल्पकालेऽल्पप्रदेशे मद्यसंस्पर्श उच्छिष्टरुधिराद्यैर्बहुकालं वस्तुदोषेऽत्यन्तोपहतिर्भवति ।

इस प्रकार स्मृत्यर्थसार में दोष/अशुद्धि के कारणों की चर्चा की गयी है और इससे दोष/अशुद्धि की प्राप्ति कैसे होती है यह ज्ञात होता है। इन कारणों से शरीर की ही नहीं वस्तुओं की भी अशुद्धि होती है और उन वस्तुओं के प्रयोग से पूर्व मार्जन-प्रक्षालन-प्रोक्षण आदि के द्वारा शुद्धिकरण की विधि भी शास्त्रों में बताई गयी है। देश का संविधान/शासन विधान हमें सार्वजानिक स्थलों पर अस्पृश्यापृश्य के व्यवहार को बाधित तो करता है, किन्तु हमें अपने धर्मपालन से भ्रष्ट होने के लिये बाध्य नहीं करता अर्थात किसी दूषित द्रव्य के ग्रहण करने हेतु बाध्य नहीं करता।

जलशुद्धि विधान

पवित्रीकरण/शुद्धिकरण का तात्पर्य - Shuddhi Vidhan
जलशुद्धि विधान

सर्वप्रथम जलशुद्धि विधान की आवश्यकता होती है और नित्यप्रति हमें बिना शुद्धि का विचार किये जल प्राप्त होते हैं। नगरवासियों की स्थिति भिन्न है तथापि अब गांवों में भी जलशुद्धि का लोप किया जा रहा है। आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले को जलशुद्धि का विशेष ध्यान रखना चाहिये। एक ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात यह भी है कि वर्जित और दोष में अंतर होता है।

वर्जित का शुद्धिकरण नहीं होता, दोषमात्र होने पर ही शुद्धिकरण होता है। जलशुद्धि का तात्पर्य है जो निषिद्ध/वर्जित न हो किन्तु किसी प्रकार का वर्णित दोषयुक्त हो । दोषयुक्त जल की शुद्धि की जायेगी किन्तु वर्जित का त्याग ही करना चाहिये। वर्जित जल के संबंध में एक स्कन्द पुराण का वचन इस प्रकार है :

वर्ज्यं पर्युषितं तोयं वर्ज्यं पर्युषितं दलम् । अवर्ज्यं जाह्रवीतोयमवर्ज्यं तुलसीदलम् ॥

पर्युषित अर्थात् बासी जल और पत्र वर्जित है किन्तु गंगाजल और तुलसीदल को छोड़कर। इस विषय में क्या कहा जाय, बोतल का जल पीने में जब गर्व का भाव उत्पन्न होता है।

जल की अशुद्धि में मुख्य रूप से वापीकूपतडाग व विभिन्न पात्रों में संग्रह किये गये जल का ही विचार होता है। उसमें भी घट आदि पात्र में तो एक पर्युषित दोष से वर्जित ही हो जाता है अतः उसकी शुद्धि का विशेष विचार नहीं किया जाता। नदी आदि के जल को श्रावण-भाद्रपद दो माह रजस्वला दोष बताया गया है, अन्य दोष का अभाव होता है किन्तु वर्त्तमान में यमुना आदि की स्थिति देखते हुये समझा जा सकता है कि नदियों को कितना दूषित किया जाता है। मुख्यरूप से वापीकूपतडाग आदि के जल की शुद्धि का विचार किया जाता है।

वापीकूपतडागेषु दूषितेषु विशोधनं। घटानां शतमुद्धृत्य पञ्चगव्यन्ततः क्षिपेत् ॥

अनेक प्रकार की दोष में सर्वाधिक दोष उपरोक्त जलाशयों में किसी जीव की मृत्यु होना कहा गया है। और उसमें भी यदि अनेक दिन व्यतीत हो गये हों, शव का में सड़न आ गयी हो तो दोष और अधिक होता है। ऐसी स्थिति में वापीकूप के जल को सम्पूर्ण रूप से निकाले और शेष का वस्त्र से शोधन करे और पंचगव्य डाले, तड़ाग से शतकुम्भ निकाले और पंचगव्य डाले।

वादकोपानह विण्मूत्रं कूपे यदि निमज्जति । अष्टिकुम्भान् समुद्धृत्य पञ्चगव्येन शुद्ध्यति ॥

अन्य विण्मूत्रादि के दोषों का निवारण करने के लिये वापीकूप से आठ कलश जल निकाले, पञ्चगव्य प्रक्षेप करे।

प्राचीन काल में जल प्राप्ति का साधन नदी-वापी-कूप-तड़ागादि ही थे, एवं इनके लिये शुद्धि का विशेष विधान थे। वर्त्तमान युग में इनके जल को ग्रहण ही नहीं किया जाता इस कारण और अधिक विस्तृत चर्चा अपेक्षित नहीं प्रतीत होता है।

भस्मना शुध्यते कांस्यं ताम्रमम्लेन शुध्यति । रजसा शुध्यते नारी विकलं या न गच्छति ॥ – पराशर स्मृति : कांस्य पात्र की शुद्धि भस्म से, ताम्र की शुद्धि अम्ल से, स्त्री रज से (रजस्वला होने के पश्चात्) शुद्धि होती है यदि आतुर न हो तो। कांस्यादि पात्रों के संबंध में पुनः एक और विषय आता है कि मद्य के कारण अशुद्धि हुयी हो तो अग्निप्रयोग करने से शुद्धि होती है।

दन्तमस्थि तथा शृङ्गं रूप्यं सौवर्णभाजनम् । मणिपाषाणपात्राणीत्येतान्प्रक्षालयेज्जलैः ॥ – पराशर स्मृति में पात्रों की सामान्य शुद्धि प्रक्षालन मात्र से बताया गया है। दन्त, अस्थि, शृंग, चांदी, सुवर्ण, मणि, पाषाण आदि के पात्र (वास्तुयें) यदि उपरोक्त अल्पदोष से दूषित हो तो प्रक्षालन मात्र से शुद्धि होती है।

तथापि वर्त्तमान में भी कर्मकांड हेतु जलाशयों से जल ग्रहण किया जाता है। जहां निकट में नदी न हो वहां तड़ागादि से ही जल ग्रहण किया जाता है। जैसे जलयात्रा में स्पष्ट देखा जा सकता है। उक्त स्थिति में जलशुद्धि का विचार अवश्य करना चाहिये। इसी प्रकार दैनिक पूजनादि हेतु वर्त्तमान काल में भी कूप के जल को ग्रहण किया जाता है इस कारण कूपशुद्धि का भी ध्यान रखना आवश्यक है।

भूशुद्धिर्मार्जनाद्दाहात् कालाद्गो भ्रमणाद्धि । सेकनोल्लेखनाल्लेपाद् गृहं मार्जन लेपनात् ॥ याज्ञवल्क्य का वचन है कि भूमि की शुद्धि धर्माजन, दाह, अपित्रकाल के पश्चात्, गोभ्रमण, प्रक्षालन, उल्लेखन आदि से होती है। गृह की शुद्धि मार्जन-लेपन से होती है।

गण्डूषं पादशौचं च यः कुर्यात्कांस्यभाजने । भूमौ निःक्षिप्य षण्मासान् पुनराकरमादिशेत् ॥ अंगिरा के इस वचन में कहा गया है कि कास्यपात्र से गण्डूष (कुल्ला) करने, पैर धोने पर छः माह पर्यन्त भूमि में गाड़े ।

वस्त्र शुद्धि के प्रसंग में यम का वचन है कि यदि मलमूत्ररक्तादि कारणों से वस्त्र अशुद्ध हो जाये तो प्रक्षालन करने से शुद्धि होती है। किन्तु अशुद्ध करने वाला द्रव्य दृढ़ हो अर्थात दाग पकड़ ले और प्रक्षालन से न हटे तो उतने भाग का छेदन अथवा दाह करे :

शुद्धि विधान

यदि मूत्रपुरीषाभ्यां रेतसा रुधिरेण वा । चैलं समुपहन्येत अद्भिः प्रक्षालयेत्तु तत् ॥
यद्यम्भसा न शुद्ध्येत्तु वस्त्रं चोपहतं दृढम् । छेदनं तस्य दाहो वा यावन्मात्रमुपहन्यते ॥

वृत्तं तु पायसं क्षीरं तथैवेक्षुरसो गुडः । शूद्रभाण्डस्थितं तक्रं तथा मधु न दुष्यति ॥ – शंख के इस वचन में वृत्तिवश शूद्रभाण्डस्थित पायस, क्षीर, इक्षुरस, शक्कर, तक्र और मधु दूषित नहीं होता है, ऐसा कहा गया है।

भासवानरमार्जार खरोष्ट्राणां शुनां तथा । सूकराणाममेध्यं वै स्पृष्ट्वा स्नायात्सचैलकम् ॥ – व्यास के इस वचन में कहा गया है कि कुक्कुट, वानर, बिल्ली, गधा, ऊंट, कुत्ता, सूकरादि जीवों के अमेध्य अर्थात मलमूत्र, अस्थि-चर्मादि का स्पर्श होने पर सचैल (वस्त्र सहित) स्नान करे। अब उन लोगों की स्थिति के बारे में क्या विचार किया जा सकता है जो इन जीवों को घरों में पालते हैं अर्थात उनका तो पूरा घर ही ………

अजीर्णेऽभ्युदिते वान्ते श्मश्रुकर्मणि मैथुने । दुःस्वप्ने दुर्जनस्पर्शे स्नानमित्यभिधीयते ॥ – यम के इस वचन में बताया गया है कि यदि अजीर्ण (अपच) हो जाने पर, अथवा नख, बाल आदि छेदन करने पर, मैथुन-दुःस्वप्न और दुर्जनों का स्पर्श होने पर स्नान करे। अब उनके बारे में क्या विचार किया जा सकता है धार्मिककृत्यों में भी दुर्जनों को आमंत्रित करते हैं, सद्भाव प्रदर्शन करते हैं आदि-आदि।

मनु का कथन है कि चरू निर्माण पात्र – चरू स्थाली, सृक्स्रुव (स्रुवा-स्रुची), स्फय, शूर्प, शकट, मूसल, उलूखल आदि यज्ञोपयोगी पात्रों की शुद्धि उष्णजल से होती है। धान्य-वस्त्र की मात्रा यदि अधिक हो तो प्रोक्षण मात्र से शुद्धि हो जाती है और यदि अल्पमात्रा हो तो जल से धोकर शुद्धि होती है। यह विधान अशौच में भी विचारणीय है :-

चरूणां सुक्स्रुवाणां च शुद्धिरुष्णेन वारिणा । स्फयशूर्पशकटानां च मुसलोलूखलस्य च ॥
अद्भिस्तु प्रोक्षणं शौचं बहूनां धान्यवाससाम् । प्रक्षालनेन त्वल्पानामद्भिः शौचं विधीयते ॥

काष्ठानां तत्क्षणाच्छुद्धिमृद्गोमयजलैरपि । मृण्मयानां तु पात्राणां दहनाच्छुद्धिरिष्यते ॥ – देवल के इस वचन में कहा गया है कि “काष्ठ की वस्तुयें तत्क्षण मृदा-गोमय-जल आदि द्वारा मार्जन करने से हो जाती है किन्तु मिट्टी के पात्रों की शुद्धि हेतु दाह (अग्नि प्रयोग) आवश्यक होता है।” एक महत्वपूर्ण विषय यह भी है कि शुद्धि उसकी होती है जो स्वयं में अशुद्ध न हो और जो स्वयं ही अशुद्ध हो उसके लिये शुद्धि का विधान ही नहीं होता।

चैत्यवृक्षश्चितिर्यूपश्चाण्डालः सोमविक्रयी । एताँश्च ब्राह्मणः स्पृष्ट्वा सचैलो जलमाविशेत्॥ – पराशर का कथन है कि “चैत्यवृक्ष (श्मशान का वृक्ष अथवा वह वृक्ष जिसमें भूत-प्रेतादि का वास हो), चिताभूमि और चिता की लकड़ी, चांडाल, मद्यविक्रेता इन सबका स्पर्श करने पर सचैल स्नान करे।” इन सबका स्पर्श करने की तो दूर घर में ही मद्यपायी हो, कर्मकांड करने-कराने वाला हो, सेवक ही चांडाल-म्लेच्छादि हो तो उसकी शुद्धि के बारे में क्या विचार किया जाये।

नित्यं शुद्धः कारुहस्तः पण्ये यच्च प्रसारितम् । ब्रह्मचारिगतं भैक्ष्यं नित्यं मेध्यमिति स्थितिः ॥ – मनु का कथन है “कारु (शिल्पी) का हाथ, हाट/दुकान में बिक्री हेतु प्रसारित वस्तुयें, ब्रह्मचारी द्वारा प्राप्त भिक्षा अथवा भिक्षाटन के लिये गया हुआ ब्रह्मचारी नित्य शुद्ध होता है।” नित्यमास्यं शुचि स्त्रीणां शकुनिः फलपातने । प्रस्रवे च शुचिर्वत्सः श्वा मृगग्रहणे शुचिः ॥ मनु का ही कथन है “स्त्री का मुख (पत्नी का मुख), फल में शकुनि (पक्षी) का मुख, दुग्ध प्रस्रवण में वत्स का मुख, मृग ग्रहणकाल में (व्याधा का) श्वान का मुख शुद्ध ही होता है।

तापनं घृततैलानां प्लावनं गोरसस्य च । तन्मात्रमुद्धृतं शुद्धयेत्कठिनं तु पयोदधि ॥ ताप द्वारा घृत और तैल कि, प्लवान (उबाल आने पर) गोरस (दुग्ध) कि तन्मात्र उद्धृत करने पर शुद्धि हो जाती है किन्तु दधि की शुद्धि कठिन है।

ऊर्ण, रुई आदि यथा स्वेटर, कम्बल, रजाई, गद्दा आदि की शुद्धि प्रोक्षण मात्र से ही होती है। यदि अधिक दोष हो तो धूप में तपाने से प्रोक्षण करके शुद्धि होती है। वेणूपस्कर (बांस के पात्र), शण की वस्तुयें, फल, चर्म की ग्राह्य वस्तुयें यथा आसन, तृण, काष्ठ रज्जु आदि अभ्युक्षण के द्वारा शुद्ध होते हैं। स्पर्श शुद्धि का विधान है।

इस आलेख में अन्य अनेकों प्रमाण भविष्य में संग्रहित किये जायेंगे अतः पुनर्निरीक्षण आवश्यक समझना उचित होगा। पवित्रीकरण के संबंध में दो विषय जानने की उत्सुकता हो सकती है : “पवित्रीकरण का विधान” , “पवित्रीकरण के मंत्र” और “पवित्रीकरण प्रयोग” दोनों के अनुसरण पथ यहां समाहित हैं जो सहयोगी वेबसाइटों पर प्रकाशित किये गये हैं।

विनम्र आग्रह : त्रुटियों को कदापि नहीं नकारा जा सकता है अतः किसी भी प्रकार की त्रुटि यदि दृष्टिगत हो तो कृपया सूचित करने की कृपा करें : info@karmkandvidhi.in

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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