साधना कैसे करें? जानें सफलता और आत्मज्ञान का रहस्य – Sadhana

साधना कैसे करें? जानें सफलता और आत्मज्ञान का रहस्य - Sadhana

साधना (Sadhana) जीवन का अनिवार्य भाग है जिससे साध्य की सिद्धि होती है। जीवन का उद्देश्य भौतिकता में उलझे रहना नहीं अपितु आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करना है। भारत भूमि को अत्यंत पवित्र कहा गया है और यहां जन्म मिलना स्वयं में सौभाग्य है क्योंकि देवता भी भारत भूमि में मनुष्य जन्म की आकांक्षा रखते हैं। इस प्रकार भारत भूमि में जन्म लेने वाला मनुष्य यदि आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर न हो तो उससे अधम अन्य कोई नहीं हो सकता। आध्यात्मिक उन्नति के लिये साधना को समझना अनिवार्य है और इस आलेख में साधना की व्यापक चर्चा की गयी है जो साधकों के लिये लाभप्रद है।

देवभूमि भारत में भोगवादियों की संख्या दिनानुदिन बढ़ती ही जा रही है किन्तु ऐसा नहीं है कि आध्यात्मिक उन्नति चाहने वाले नहीं हैं। और जो मूल रूप से भारतीय हैं एवं भारतीय संस्कृति में आस्था रखते हैं वो भोगवादी होने पर भी आध्यात्मिक लाभ अवश्य ही प्राप्त करना चाहते हैं और भोगवादियों के लिये भी प्रथम भौतिकलाभ के माध्यम से आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर करने की व्यवस्था बनी हुयी है।

किन्तु जो अभारतीय हैं अथवा विदेशी संस्कृति में आस्था रखते हैं वो भारत की पवित्रा-दिव्यता को नष्ट करने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं।

जो आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होना चाहते हैं उनके लिये साधना का ज्ञान अनिवार्य है। ऐसे लोगों को साधना संबंधी ज्ञान के लिये यह आलेख मार्गदर्शन करने वाला सिद्ध होगा।

जो आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होने की इच्छा रखता है उसके लिये यह आलेख बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह आलेख विद्यावारिधि दीनदयालमणि त्रिपाठी जी से प्राप्त है और इसके लिये हम उनके आभारी हैं एवं श्रेय उन्हीं को जाता है।

आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी
आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी

साधना

आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इष्ट-सिद्धि और सफलता का भी एक विज्ञान है। सम्पूर्ण इष्ट-सिद्धि और सफलता इसी क्रियात्मक साधना-विज्ञानपर निर्भर है। यही कारण है कि साधना की छोटी-से-छोटी प्रक्रिया के दोष से असफलता ही नहीं मिलती, अपितु कभी-कभी साधक दुर्धर्ष विघ्नों का शिकार हो जाता है। यह साधना-विज्ञान मुख्यतः निम्नलिखित भागों में विभक्त है –

  1. साधना का स्वरूप
  2. साधनाका महत्व
  3. साधना-सौन्दर्य
  4. साधना के अंगावयव
  5. साधना का मुख्य उद्देश्य
  6. साधना के मूल तत्त्व
  7. साधना का सरल उपाय
  8. साधना का स्वभाव
  9. सब कुछ साधनात्मक

१. साधना का स्वरूप

किसी भी लक्ष्य या उद्देश्य की सिद्धि के लिये जो स्वाभाविक उपाय किये जाते हैं उन्हें साधना कहते हैं, परन्तु धार्मिक दृष्टि से विशेषतः सनातन धर्म की दृष्टिकोण से उस परम पुरुषार्थ को ही साधना कहते हैं जो कि आध्यात्मिक ध्येय की प्राप्ति के लिये किया जाता है । इस साधना का अर्थ किसी भी प्रकार की क्रिया या कर्म होता है और वस्तुतः यही वास्तविक साधना भी है।

२. साधना का महत्त्व

पूर्वकथनानुसार साधना ही असल में प्रत्येक वस्तु की प्राप्तिका उपाय है। यह सफलता की कुंजी है, कवि का कवित्व है, ऋषि का ऋषित्व है। क्योंकि ये सब साधना के ही द्वारा प्राप्त किये जाते हैं। ऐसे ही भुक्ति-मुक्ति भी साधना का ही फल है । असल में संसार में प्रत्येक वस्तु या तत्त्व साधना से ही सिद्ध होता है । साधक को साध्य वस्तु साधना के द्वारा ही प्राप्त होती है । सारांश यह कि सब कुछ साधना का ही विषय है।

दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह ।
स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ॥

३. साधना सौन्दर्य

साधना का सौन्दर्य इसी में है कि वह दिव्य-सौन्दर्यात्मक हो, उसकी प्रत्येक बात अपने दिव्य साध्य की उत्पादक हो, वह स्वयं सत्य, शिव और सौन्दर्यमय हो, हृदयके प्रसुप्त स्वीय सौन्दर्यात्मक भावों और विचारों को क्रियात्मक बनाने वाली हो, उसमें दिव्य आध्यात्मिक गन्ध और सरसता हो, साथ ही यह अलौकिक माधुर्य और ऐश्वर्य की व्यञ्जना से व्यञ्जित हो । उसकी सजीव कर्ममय स्वरलहरी से अनन्तका निनाद निकलता हो कि जिससे मानव-मन और हृदय सौन्दर्य के स्वर्ग में परिणत हो जाये, तभी वह वास्तविक साधना कहलाने के योग्य हो सकती है। शास्त्रों की तो यह उच्च घोषणा है कि – ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्थाः

ऐसी दशा में सहज में यह बात सामने आती है कि साधना अपने कार्य-कारणात्मक भाव और फलों से पहचानी जाती है। साथ ही यह सञ्ची तभी हो सकती है जब कि उससे दिव्य भाव की प्रामि हो । यही कारण है कि सनातन धर्म में योग के अष्टाङ्ग अथवा अष्टाङ्ग-प्रधान सम्पूर्ण भाव-भावना और क्रिया को साधन माना है।

४. साधना के अङ्गावयव

साधनाके अवयव इस प्रकार हैं-

  • क. अधिकार
  • ख. विश्वास
  • ग. गुरु-दीक्षा
  • घ. सम्प्रदाय
  • ङ. मन्त्र-देवता
(क) अधिकार

साधना में अधिकार-भेद की अपार महिमा है। अधिकार की परवा न कर असल में कोई भी साधक साधना द्वारा साध्य को नहीं प्राप्त कर सकता । इसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य जब, जहाँ, जिस अवस्था में भी हो, बस अपने लक्ष्य पर पहुँच सकता है। उसे अधिकार और अवस्था विरुद्ध अन्य मार्ग या सोपान से जाने की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिये सती ‘सतीत्व’ से और शूर ‘शूरत्व’ से ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है।

सारांश यह कि प्रत्येक अवस्था, धर्म और काल में ही प्रत्येक व्यक्ति साधना से लाभ उठा सकता है, साधारणसाधारणते और विशेष विशेष से । परन्तु लाभमैं दोनों ही समान रहते हैं। यही कारण है कि ब्रज की अहीरनियाँ और वनवासी ऋषि-महर्षि एक ही दिव्य स्थान को प्राप्त हुए हैं।

() विश्वास

साधना में विश्वास भी अन्यतम साधन है। इसके अनेक कारण हैं, उनमें मुख्यतम ये तीन है-

  1. विश्वास स्वयं एक दिव्य भाव है । वह त्रिपुटी का कारण और कार्य भी है। साथ ही जिस विश्वास में शान और प्रेम की पुट है वह तो दिव्य वस्तु ही होता है। परन्तु यहाँ विश्वास का तात्पर्य अन्ध-विश्वास नहीं, अपितु वास्तविक तत्परता है।
  2. आधुनिक दृष्टि से भी आत्मविश्वास एक महतो महीयान् तत्त्व है और यही असल में सिद्धि का साधक है, इसी की प्रेरणा से कर्मठ को इष्ट फल प्राप्त होता है। यह वस्तुतः एक मनोवैज्ञानिक रहस्य है।
  3. परन्तु इसकी योगात्मक व्याख्या विचित्र है। और यही वास्तव में विश्वास तत्व की, आत्मा की साधना है। इसका सुगुप्त रहस्य इस प्रकार है – विश्वास शब्द ‘वि’ उपसर्ग और श्वास’ के योगसे बना है। इसका साधारण अर्थ यहाँ साधक का प्रयासरहित होना है, परन्तु इसका योगात्मक अर्थ श्वास अर्थात् ईडा-पिङ्गला-नाड़ी के साम्य द्वारा सङ्कल्प तथा ज्ञान की विशुद्धि और आत्मैश्वर्य की प्राप्ति है।
(ग) गुरु-दीक्षा

साधना का गुरु-दीक्षा से भी समधिक सम्बन्ध है। यद्यपि अनेक बार विना गुरु दीक्षा के भी किसी बात अथवा आन्तरिक प्रेरक कारण से अथवा संस्कारों के प्राबल्य से मनुष्य स्वतः सन्मार्ग के द्वारा लक्ष्य बिन्दु तक पहुँच जाता है, फिर भी इसका प्रशस्त राजमार्ग तो गुरु-दीक्षा ही है। दीक्षामें भी मुख्य वस्तु शक्तियों की मन्त्र द्वारा जागृति और भाव-भावना का उद्बोधन है । सञ्चा गुरु मन्त्र-शक्ति द्वारा यथाधिकार शिष्य में साधना-विषयक शक्ति का संधान कर देता है । इससे शिष्य फिर स्वतः साधना-पथ पर अग्रसर हो जाता है।

(घ) सम्प्रदाय

साधना साधक का साम्प्रदायिक होना भी आवश्यक है। यहाँ सम्प्रदाय का अर्थ है साधना सम्बन्धी वातावरण उत्पन्न करना और सत्सङ्ग का लाभ उठाना । परन्तु इसका यथार्थ लाभ तो इस प्रकार है – जमान्तरीय संस्कारों के सिद्धान्तानुसार जन्म से वर्ण या जाति मानने पर वर्ण और जाति के परम्परागत गुण सदैव विकासोन्मुख रहते हैं, इसी प्रकार एक ही परम्परागत सम्प्रदाय में सुदीक्षित होते रहने के भी अनन्त लाभ है। इससे भी सम्प्रदायात्मक गुणों के संस्कार स्वतः विकासोन्मुख हो जाते हैं।

(ङ) मन्त्र-देवता

साधना में मन्त्र और देवता का भी विशेष स्थान है। साम्प्रदायिक दृष्टि से मन्त्र-देवतात्मक दीक्षा अनिवार्य है, परन्तु मन्त्र और देवता दो वस्तुएँ होती हुई भी एक ही वस्तु है। इन दोनों का पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध है, ये दोनों वास्तव में एक-दूसरे से मिन्न नहीं है। क्योंकि मन्त्र की आत्मा ही देवता है और देवत्व का स्थान मन्त्र है।

देवता असल में मन्त्रात्मक ही है और इसलिये भी कि मन्त्र के द्वारा ही देवता का आकर्षण होता है। किन्तु देवता का चुनाव शिष्य के संस्कारानुसार ही किया जाना चाहिये और देवता के अनुरूप ही मन्त्र का चुनाव भी। साधक, देवता और मन्त्र-ये एक ही वस्तु-विकास के विभिन्न स्तर हैं और इनका समन्वय ही अन्त में साधक को मुख्य ध्येय तक पहुँचा देता है। इस तरह साधक, मन्त्र, इष्टदेव, महाशक्ति, परमतत्व और मुक्ति आदि सब एक ही विकास के विविध स्तर है और ये ही अन्तम प्राधी स्थिति में परिणत हो जाते हैं।

५. साधनाका मुख्य उद्देश्य

साधना के द्वारा आत्मलाभ होता है और आत्मलाभ के द्वारा दिव्यत्व, सर्वशता, सर्वशक्तिमत्ता प्राश हो जाती है । आत्मलाभ का ही फल अनन्त विभूतियों की प्राप्ति भी है। भारतवर्ष कर्म-प्रधान और साधना प्रधान देश है, परन्तु इसकी साधना मुक्ति परक, आत्म परक अथवा ब्रह्म-परक है। आप किसी भी सम्प्रदायपर दृष्टिपात करें, उसमें सपना का अभिप्राय यही मिलेगा । मन्त्र-तन्त्र-सम्प्रदायके अनुयायियोंका भी विश्वास है कि-

मन्त्राभ्यासन योगेन ज्ञानं शानाय कल्पते । न योगेन विना मन्त्रो न मन्त्रेण विना हि सः॥

द्वयोरभ्याससंयोगो प्रासंसिद्धिकारणम् ।

इसका अभिप्राय यह है कि हमारा प्रत्येक सम्प्रदायका साधनात्मक ध्येय उच्च और स्वर्गीय ही है।

६. साधनाके मूल तत्त्व

साधनाके मूल तत्त्व तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान हैं । इनसे साधक की शक्ति और ज्ञानकी वृद्धि होती है । स्वाध्याय से शान और तप से शक्ति बढ़ती है । साथ ही शान और शक्ति द्वारा ही साधक परम साध्य तक पहुँच जाता है। प्राचीन मुनि और सिद्धजन ब्रह्मचर्य और तपको ही मुख्यता देते हैं।

पातञ्जलयोग चित्त-वृत्ति के निरोध को ही परम पुरुषार्थ और साधना बताता है । स्वामी विशुद्धानन्द जी परमहंस ने भक्ति को ही समस्त साधनाओं का केन्द्र बताया है। वस्तुतः किसी भी सात्त्विक उपाय द्वारा गन्तव्य मार्ग की ओर चल देना ही वास्तविक साधना है । बस, फिर पूर्व-जन्म के संस्कार स्वयं अपना काम करने लगेंगे।

पति और पत्नी का परम अन्योन्याश्रय संबंध - Husband Wife Relationship
हरि के भरोसे हांको गाड़ी – hari ke bharose hanko gadi

७. साधना का सरल उपाय

साधना में आवरण को हटाने के लिये विघ्नों का सामना करने और अभावों को हटाने की अपेक्षा सद्भाओं को उत्पन्न कर उन्हें सुपुष्ट करना ही सिद्धि का सर्वोत्तम उपाय है। इससे विन स्वतः नष्ट हो जाते हैं और अतिशीघ्र सफलता हस्तगत हो जाती है। क्योंकि किसी सीधी रेखा को हाथके द्वारा छोटी करने की अपेक्षा उसके बराबर एक बड़ी रेखा खैच देना ही ठीक है, उससे वह अपने-आप छोटी हो जायगी। यही दशा मल, विक्षेप और आवरणकी भी है । वे भी सात्त्विक तत्त्वोंके सेवनसे अपने-आप नामशेष हो जाते हैं। पातञ्जलयोग में इसी सरल सत्य को इस तरह समझाया है– ‘अक्लिष्ट वृत्ति के संस्कारों के द्वारा क्लिष्ट वृत्ति के संस्कार अपने-आप नष्ट हो जाते हैं।”

८. साधना का स्वभाव

स्वभाव से समस्त जीव-रशि उस अनन्त सत्य वस्तु की ओर ही जा रही है। आत्मा की गति असल में परमात्मा की ओर ही हो सकती है, विजातीय वस्तु की ओर नहीं नदियाँ समुद्र में ही जाकर रहती हैं । सम्पूर्ण ब्रह्माण्डात्मक जड-चेतन का अन्तिम ध्येय असल में आत्मलाभ ही है ।

९. सब कुछ साधनात्मक

हमारे सम्पूर्ण क्रिया-कलाप साधनामय ही हैं । ऐसी दशा में हम कुछ भी करें, कहें और सोचें, सब कुछ साधना ही है, परन्तु इन क्रियाओं का समन्वय साधनात्मक तत्त्वोंके साथ होना चाहिये। साथ ही इनमें आवश्यक सामञ्जस्य भी पर्याप्त मात्रा हो । ऐसी दशा में प्रत्येक साधनासम्पन्न मार्ग और सम्प्रदाय यथाधिकार पृथक् होता हुआ भी एक ही सम्पूर्ण लक्ष्य का प्रदर्शक हो जाता है । यही कारण है कि लता-गुल्म, कीट-पतंग, पशु-पक्षी और देव-मानव सब ही अपनी-अपनी योनि और स्थान से ही कभी-न-कभी अन्तिम लक्ष्य की ओर ही पहुँचकर रहते हैं।

निष्कर्ष : “साधना” शीर्षक वाला यह विस्तृत और ज्ञानवर्धक लेख जो विद्यावारिधि दीनदयालमणि त्रिपाठी जी से प्राप्त हुआ है, यह लेख साधना के विज्ञान, उसके विभिन्न पहलुओं, महत्व और अंतिम लक्ष्य पर सनातन धर्म के दृष्टिकोण से प्रकाश डालता है।

हम अन्य विद्वद्जनों से भी इसी प्रकार की शास्त्रसम्मत व ज्ञानवर्द्धक संकलन, आलेख की आकांक्षा करते हैं।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


Discover more from कर्मकांड सीखें

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *