कर्मकांड में पत्नी की आवश्यकता – karmkand me patni

कर्मकांड में पत्नी की आवश्यकता

प्रायः ऐसा समझा जाता है कि पूजा-हवन आदि कर्मकांडों में ही पत्नी की आवश्यकता होती है यह अर्धसत्य है और कुछ लोग ऐसा भी बताते हैं कि सभी पूजा-यज्ञादि कर्म में पत्नी की आवश्यकता नहीं होती है, यथा सत्यनारायण पूजा आदि में; यह मान्यता अर्धसत्य नहीं असत्य है। यहां हम सभी कर्मों में पत्नी के आवश्यकता शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ समझेंगे। यह आलेख मात्र यह नहीं बताता है कि पत्नी कब किस दिशा में हो अपितु यह भी बताता है कि सभी कर्मों में पत्नी आवश्यक होती है, और जिस कर्म में सपत्नीक न हो उस कर्म में विकल्प प्रयोग किया जाता है।

एकचक्रोरथो यद्वदेकपक्षो यथा खगः। अभर्योनरस्तद्वदयोग्यः सर्वकर्मसु ॥ – भविष्यपुराण

सर्वप्रथम हमें सृष्टि आरंभ के प्रकरण को समझना होगा, जब मानसी सृष्टि का विस्तार नहीं हो पा रहा था तो ब्रह्मा ने मैथुनी सृष्टि का विचार किया और उनका शरीर दो भागों में विभाजित हो गया के शरीर से ही एक पुरुष और एक स्त्री उत्पन्न हुयी जिन्हें मनु-शतरूपा के नाम से जाना जाता है और ब्रह्मा ने उन्हें मैथुनी सृष्टि की आज्ञा प्रदान किया। इस संबंध में ऐसी कथा भी है कि ब्रह्मा ने उस शरीर का ही त्याग कर दिया जो दो भागों में बंट गया।

यहां हमारे लिये चर्चा का विषय यह है कि हम जिस मैथुनी सृष्टि में आते हैं उसका प्रारंभ जिस स्त्री और पुरुष के जोड़े से हुयी वह मनु-शतरूपा थे और उनकी उत्पत्ति एक ही शरीर से हुयी थी। पहले पुरुष का जन्म हुआ या स्त्री का इस प्रश्न का उत्तर भी इसी प्रसंग में प्राप्त हो जाता है कि मैथुनी सृष्टि में दोनों एक साथ ही आये, न तो कोई पहले और न ही पश्चात्।

इसी प्रकार पति-पत्नी को दो नहीं कहा गया है, अपितु पति-पत्नी मिलकर एक होते हैं। पति स्वयं में आधा है और पत्नी भी आधी है। इसी कारण पत्नी को अर्धांगिनी भी कहा जाता है। (0.5 + 0.5 = 1) अर्थात एक-दूसरे के बिना दोनों अधूरे होते हैं और इसी कारण विधुर (मृतपत्नी) व विधवा (मृतपति) के लिये बहुत कर्मों का निषेध भी है, अशीर्वादादि ग्रहण में भी अविधुर, सौभाग्यवती बताया गया है। पति-पत्नी दोनों मिलकर दो नहीं एक होते हैं पूर्ण होते हैं और एक के द्वारा किया गया कर्म आधे के द्वारा की किया गया मान्य होता है एवं अधूरा होता है।

क्योंकि पति-पत्नी का तात्पर्य ही एक है, किसी के भी नहीं होने पर 1 नहीं 0.5 अर्थात आधा होता है। क्या आप आधी थाली में भोजन करते हैं, क्या आप आधी पुस्तक पढ़ते हैं, क्या आप आधी शय्या (दो पौवे वाला) का उपयोग करते हैं, क्या घर से निकलते समय आधी किबाड़ लगाकर या आधा ग्रिल लगा का निकलते हैं आदि-इत्यादि अनेकों प्रश्न हैं जिनके उत्तर आपको स्वयं ही ढूंढने होंगे।

पत्नी की स्थिति शास्त्रोक्त प्रमाणों के अनुसार

अब सर्वप्रथम हम शास्त्रोक्त प्रमाणों का अवलोकन करते हुये यह समझेंगे कि किन कार्यों में पत्नी को किस दिशा (दक्षिण-वाम) में रहना चाहिये ? क्योंकि पत्नी को वामांगी कहा गया है यदि दक्षिण में स्थिति का प्रमाण न हो तो वाम भाग ही सिद्ध होता है। जिन कार्यों में दक्षिण होने का प्रमाण हो उन्हीं कार्यों में दक्षिण रखा जाना चाहिये। जिस कार्य में दक्षिण का प्रमाण न हो उसमें वामांगी वचन से वाम भाग की स्वतः सिद्धि हो जाती है।

दक्षिण (दायें भाग में)

व्रतबन्धे विवाहे च चतुर्थी सह भोजने। व्रतदाने मखे दाने श्राद्धे पत्नी तिष्ठति दक्षिणे॥
यज्ञे होमे व्रते दाने स्नानापूजादि कर्मणि। देवयात्राविवाहेषु पत्नी दक्षिणतः शुभाः
सीमन्ते च विवाहे च चतुर्थीसहभोजने । दाने व्रते मखे श्राद्धे पत्नी तिष्ठति दक्षिणे ॥

इन प्रमाणों से हमें यह ज्ञात होता है कि लगभग सभी कर्मकांड में पत्नी दक्षिण भाग में ही रहे, चाहे वह कर्म व्रत, दान, यज्ञ, स्नान (तीर्थादि स्नान), पूजा, देवयात्रा, विवाह आदि कुछ भी हो – “सर्वेषु शुभ कार्येषु पत्नी दक्षिणतः शुभाः”। किन्तु ऐसा भी नहीं है कि सर्वदा दायें ही रहे, कुछ विशेष कालों में वाम भाग का भी वचन प्राप्त होता है।

यहां श्राद्ध में भी दक्षिण भाग ही कहा गया है, जबकि अन्यत्र वाम भाग भी प्राप्त होता है, इसका तात्पर्य वृद्धिश्राद्ध में दक्षिण और वृद्धिश्राद्ध के अतिरिक्त अन्य श्राद्धों में वाम भाग ग्रहण करना चाहिये। श्राद्धे पत्नी च वामांगे पादप्रक्षालने तथा। नान्दी श्राद्धे च होमे च मधुपर्के च दक्षिणे॥ – व्याघ्रपादस्मृति के इस वचन से स्पष्ट होता है कि वृद्धिश्राद्ध में ही पत्नी को दक्षिण होना चाहिये इसके अतिरिक्त अन्य श्राद्धों में वाम भाग में स्थित होना चाहिये।

कन्यादाने विवाहे च प्रतिष्ठा-यज्ञकर्मणि। सर्वेषु शुभ कार्येषु पत्नी दक्षिणतः स्मृता ॥ – व्याघ्रपादस्मृति
श्राद्धे यज्ञे विवाहे च पत्नी दक्षिणतः सदा ॥ – लघ्वाश्वालयन
युद्धेषु पृष्ठतः कुर्यात् मार्गे अग्रयो निःसरेत्। ऋतुकाले तु वामांगी पुण्यकाले तु दक्षिणे ॥ – ज्योतिषसर्वसंग्रह
दक्षिणे वसति पत्नी हवने देवतार्चने । शुश्रूषारतिकाले च वामभागे प्रशस्यते ॥ – व्याघ्रपादस्मृति

उत्तर (वाम भाग में)

वामे सिन्दूरदाने च वामे चैव द्विरागमे । वामेऽशनैकशय्यायां भवेज्जाया प्रियार्थिनी॥
आशीर्वादेभिषके च पादप्रक्षालने तथा। शयने भाेजने चैव पत्नी तूत्तरतो भवेत्॥
सर्वेषु शुभ कार्येषु पत्नी दक्षिणतः शुभाः। अभिषेके विप्रपादक्षालने चैव वामतः॥

सिंदूरदान, द्विरागमन, भोजन, शय्या, आशीर्वाद, अभिषेक, विप्र-पादप्रक्षालन आदि कार्यों में पत्नी को वाम भाग में रखने का वचन है। उत्तर कहने से भी वाम भाग ही समझना चाहिये। भोजन में वाम भाग का वचन है किन्तु चतुर्थी भोजन में पूर्व ही दक्षिणभाग बताया गया है अतः भोजन का तात्पर्य चतुर्थी भोजन के अतिरिक्त समझना चाहिये।

त्रिषु स्थानेषु सा पत्नी वामभागे प्रशस्यते । पादशौचे पितृणां च रथारोहे ऋतौ तथा ॥ – व्याघ्रपादस्मृति

शंका

उपरोक्त वचनों में कुछ विशेष कर्मों का उल्लेख किया गया है किन्तु बहुत सारे कर्म (पूजा आदि) ऐसे भी हैं जिसका उल्लेख प्राप्त नहीं होता। जिस कारण शंकालु स्वभावापन्न व्यक्तियों द्वारा बहुत कर्मों में पत्नी की स्थिति को लेकर शंका भी उत्पन्न किया जाता है; यथा : सत्यनारायण पूजा, गृहारम्भ, गृहप्रवेश, नवरात्रा, रुद्राभिषेक, उद्यापन आदि अनेकानेक कर्म हैं। गृहप्रवेश संबंधी प्रश्न भी आया है कि कुछ पंडितों ने गृहप्रवेश में पत्नी का निषेध करना आरंभ कर दिया है।

“सर्वेषु शुभ कार्येषु पत्नी दक्षिणतः शुभाः” कथन से ही सिद्ध होता है कि सभी शुभकार्यों में पत्नी को दक्षिण रखे, चाहे उसका पृथक उल्लेख हो वा न हो। यदि पूजा-हवन की बात करें चाहे वह सत्यनारायण पूजा हो अथवा रुद्राभिषेक हो अथवा नवरात्रा हो, व्रत-पूजा-हवन-दान का पृथक उल्लेख भी किया गया है और कोई भी व्रत-पूजा-पाठ हो उसमें यही सब तो किया जाता है। इस प्रकार अन्य पूजा-पाठ के पृथक उल्लेख करने का तो कोई औचित्य ही नहीं सिद्ध होता है।

गृहप्रवेश विशेष

“सर्वेषु शुभ कार्येषु पत्नी दक्षिणतः शुभाः” कथन से ही सिद्ध होता है कि सभी शुभकार्यों में पत्नी को दक्षिण रखे, चाहे उसका पृथक उल्लेख हो वा न हो। यदि पूजा-हवन की बात करें चाहे वह सत्यनारायण पूजा हो अथवा रुद्राभिषेक हो अथवा नवरात्रा हो, व्रत-पूजा-हवन-दान का पृथक उल्लेख भी किया गया है और कोई भी व्रत-पूजा-पाठ हो उसमें यही सब तो किया जाता है। इस प्रकार अन्य पूजा-पाठ के पृथक उल्लेख करने का तो कोई औचित्य ही नहीं सिद्ध होता है।

गृहप्रवेश में पत्नी की आवश्यकता को लेकर विशेष चर्चा की अपेक्षा है क्योंकि प्रश्न गृहप्रवेश को लेकर ही प्राप्त हुआ है। उससे भी बड़ी समस्या यह है कि जिसने निषेध किया उसने निषेध का कोई प्रमाण नहीं दिया अपितु पत्नी को साथ रखने का ही प्रमाण मांगा। यह तो सिद्ध ही है कि सभी कार्यों में पत्नी को साथ रखना ही चाहिये और शुभ कार्यों में दायें रखना चाहिये – सर्वेषु शुभ कार्येषु पत्नी दक्षिणतः स्मृता इससे पृथक प्रमाण की आवश्यकता प्रकट कैसे होती है, यह तो मूर्खता मात्र ही है।

प्रमाण तो निषेध करने वालों को देना चाहिये कि वो किस प्रमाण से निषेध कर रहे हैं। यदि गृहप्रवेश में पत्नी के निषेध का कोई प्रमाण हो तो यह स्वीकार्य हो सकता है। यदि आपके पास भी गृहप्रवेश में पत्नी के निषेध का प्रमाण हो तो टिप्पणी करके देने की कृपा करें। यदि हमें यह प्रमाण प्राप्त हो जाता है तो हम आलेख में पुनर्संशोधन भी करेंगे और उसमें प्रमाण उपलब्धकर्ता को भी सचित्र स्थान देकर सम्मानित करेंगे।

गृहस्थाश्रम का आरम्भ पत्नी से ही होता है और पत्नी को गृहणी कहा जाता है अर्थात गृह में पत्नी का ही विशेष अधिकार व कर्तव्य दोनों होता है। गृहणीरहित होने से गृह पूर्ण ही नहीं होता और गृहस्थाश्रम प्रारम्भ ही नहीं होता है।

न गृहं गृहमित्याहुः गृहणी गृहमुच्यते। गृहं हि गृहिणीहीनं अरण्यं सदृशं मतम्॥ इसे सुभाषित कहकर बताया जाता है तथापि इसे प्रमाण समझना चाहिये क्योंकि यह महाभारत का वचन है। गृह मात्र (दीवार-छत-द्वारादि) को गृह नहीं कहा जाता है गृह संज्ञा गृहणी से सिद्ध होती है, यदि गृहणी न हो अर्थात गृहणीरहित घर को जंगल समझना चाहिये। यदि गृहप्रवेश में गृहणी ही साथ न हो तो वह वनगमन होगा अथवा गृहप्रवेश।

ऐसा भी प्रतीत होता है कि संभवतः इसी प्रमाण के आधार पर ऐसा कुतर्क भी किया गया हो की गृह संज्ञा तो गृहिणी से युक्त होने पर ही संभव है, यदि गृहिणी उस गृह में न हो तो वह अरण्य के समान है, पति को गृहप्रवेश करना चाहिये अतः गृहिणी पुरुष से पूर्व ही गृहप्रवेश करे जिससे गृह संज्ञा सिद्ध हो। तथापि इसके लिये इतना कुतर्क करने की क्या अनिवार्यता है मात्र पत्नी को आगे करने से भी तो यह संभव है।

पौराणिक कथाओं के माध्यम से विशेष विचार

उपरोक्त प्रमाणों को भी संभवतः अस्वीकार किया जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि इसमें पत्नी के दांये-बांये भाग का निर्धारण होता है, अनिवार्यता सिद्धि नहीं होती है, क्योंकि कुतर्कियों का यही स्वभाव होता है। तथापि हमें उन्हें कुतर्की नहीं कहना चाहिये जो अन्वेषण व उचित ग्रहण की प्रवृत्ति से युक्त हों। कुतर्की उन्हें समझना चाहिये जो अर्थ-का-अनर्थ करके वितंडा करते हैं, स्वयं कोई प्रमाण नहीं देते किन्तु अगला प्रमाण प्रस्तुत करे भी तो भी स्वीकार नहीं करते।

अनिर्वायता भी उपरोक्त प्रमाणों से ही सिद्ध होती है, मात्र दक्षिण-वाम भाग का ही निर्धारण नहीं होता तथापि यदि और अधिक विश्लेषण की अपेक्षा हो तो आपको कर्मकांड सीखें और भी अधिक विश्लेषण देगा। जब आप कहें कि प्रत्येक कर्म (कम-से-कम कर्मकांड में तो अवश्य) पत्नी का साथ होना अनिवार्य होता है, जिस कर्म में साथ न हो उसमें भी कुछ न कुछ विकल्प का प्रयोग अवश्य ही किया जाता है। आइये अब पौराणिक कथाओं के माध्यम से इस विषय को और गंभीरता से समझते हैं।

प्रथम पद्मपुराण की कथा के आधार से पत्नी की अनिवार्यता सिद्धि को समझते हैं। कार्तिक माहात्म्य भी पद्मपुराण से ही लिया गया है जिसके चौबीसवें अध्याय की कथा से सभी कर्मों में पत्नी की अनिवार्यता सिद्ध होती है। कथा का संक्षेप यह है कि

“चाक्षसु मन्वन्तर में ब्रह्माजी ने सह्य पर्वत पर यज्ञ करने का निश्चय किया, जहाँ सभी देवता और ऋषि-महर्षि उपस्थित हुए। भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी की भार्या त्वरा को बुलवाया, परंतु विलंब से भृगु जी चिंतित हो गए। भगवान विष्णु ने कहा कि यदि त्वरा समय पर नहीं आती, तो छोटी पत्नी गायत्री के साथ दीक्षा दीजिए। भगवान विष्णु की बात का समर्थन भगवान शंकर ने भी किया। भृगु जी ने गायत्री को दीक्षा देकर यज्ञ में यज्ञदीक्षा दे दिया। जब त्वरा आई तो ईर्ष्या से सभी देवताओं को शाप दिया कि सभी देवता जड़ रूप नदियाँ बनें।”

विष्णो स्वरा त्वयाहूता आयाति न हि सत्वरा। मुहूर्त्तातिक्रमश्चायं कार्यो दीक्षाविधिः कथम् ॥
नायाति चेत्स्वरां शीघ्रं गायत्र्यत्र विधीयताम्। एषापि न भवेत्यस्य भार्या किं पुण्यकर्मणि ॥

यदि पत्नी की अनिवार्यता नहीं होती है तो क्या आवश्यकता थी त्वरा के स्थान पर गायत्री को बैठाने की ?

पुनः एक कथा रामायण की भी सुनी जाती है तथापि हमारे पास तत्काल इसका प्रमाण नहीं है आपमें से जिसके पास भी प्रमाण हो उपलब्ध कराने की कृपा करें। कथा के अनुसार जब श्रीराम रामेश्वरम स्थापना कर रहे थे तो आचार्य के रूप में रावण को ही नियुक्त किया था और रावण ने पत्नी की अनिवार्यता के कारण सीता को लाया भी, शिवपूजन भी कराया और पुनः सीता को ले गया।

पुनः रामायण की ही कथा के अनुसार जब श्रीराम अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे तो सीता के नहीं होने के कारण सीता की स्वर्ण प्रतिमा बनाकर यज्ञ किया।

इसके पश्चात् भी सभी कर्मों में पत्नी की अनिवार्यता को कोई न स्वीकारे तो उसके ज्ञानचक्षु में दोष है ऐसा ही समझा जाना चाहिये।

विनम्र आग्रह : त्रुटियों को कदापि नहीं नकारा जा सकता है अतः किसी भी प्रकार की त्रुटि यदि दृष्टिगत हो तो कृपया सूचित करने की कृपा करें : info@karmkandvidhi.in

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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