दान: हेतु, अधिष्ठान, अंग, परिणाम, प्रकार, भेद, नाश – Donation Guide

पति और पत्नी का परम अन्योन्याश्रय संबंध - Husband Wife Relationship

दान के दो मुख्य हेतु हैं: श्रद्धा और शक्तिनौ प्रकार की वस्तुएँ हैं जिनका दान आपत्तिकाल में भी वर्जित है । दान के छः अधिष्ठान हैं: धर्म, अर्थ, काम, लज्जा, हर्ष और भय; जो दान की प्रेरणा और परिस्थिति को दर्शाते हैं। दान चार प्रकार का होता है: ध्रुव (स्थायी कार्य), त्रिक (नित्य दान), काम्य (इच्छापूर्ति हेतु), और नैमित्तिक (विशेष अवसरों पर)। दान के तीन विनाशक बताए गए हैं: दान देकर पश्चाताप करना, अपात्र को दान देना, और अश्रद्धा से दान करना। इस प्रकार दान के विषय में अनेकों तथ्य हैं जिनको जानना व समझना आवश्यक है, जिससे दान का उचित फल प्राप्त हो सके।

यहां दान के हेतु, अधिष्ठान, अंग, प्रकार, भेद और नाश तक, सभी पहलुओं को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है।

द्विहेतु षडधिष्ठानं षडङ्गं च द्विपाकयुक् । चतुष्प्रकारं त्रिविधं त्रिनाशं दानमुच्यते ॥

दान के दो हेतु, छः अधिष्ठान, छः अंग, दो परिणाम (फल), चार प्रकार, तीन भेद और तीन विनाश साधन है ।

दान के हेतु

कायक्लेशैश्च बहुभिर्न चैवार्थस्य राशिभिः । धर्मः सम्प्राप्यते सूक्ष्मः श्रद्धा धर्मोऽद्भुतं तपः॥
श्रद्धा स्वर्गश्च मोक्षश्च श्रद्धा सर्वमिदं जगत । सर्वस्वं जीवितं चापि दद्यादश्रद्धयाष यदि ॥
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा । सात्विकी राजसी चैव तामसी चैव तां शृणु ॥
यजन्ते सात्त्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः । प्रेतान भूतान् पिशाचाश्चं यजन्ते तामसा जनाः॥

अर्थात् :-

दान के दो हेतु हैं – श्रद्धा और शक्ति । दान का थोड़ा होना या बहुत होना अभ्युदय का कारण नहीं होता, अपितु श्रद्धा और शक्ति ही दोनों की वृद्धि और क्षय में कारण होती है ।

श्रद्धा:-

शरीर को बहुत क्लेश देने से तथा धन की राशियों से सूक्ष्म धर्म की प्राप्ति नहीं होती, श्रद्धा ही धर्म और अद्भुत तप है, श्रद्धा ही स्वर्ग और मोक्ष है, श्रद्धा ही यह सम्पूर्ण जगत है, यदि कोई बिना श्रद्धा के सर्वस्व दान कर दे अथवा अपना जीवन ही न्योछावर कर दे तो भी वह उसका कोई फल नहीं पाता ।

देहधारियों में उनके स्वभाव के अनुसार होने वाली श्रद्धा तीन प्रकार की है – सात्त्विकी, राजसी और तामसी ।

सात्विकी श्रद्धा वाले पुरुष देवताओं की पूजा करते हैं, राजसी श्रद्धा वाले यक्षों और राक्षसों को पूजते हैं, तामसी श्रद्धा वाले मनुष्य प्रेतों-भूतों-पिशाचों की पूजा किया करते हैं ।

शक्ति :

कुटुम्बभुक्तभरणाद्देहं यदतिरिच्यते । मध्वास्वादो विषं पश्चाद्दातुर्धर्मोऽन्यथा भवेत ॥

कुटुंब के भरण-पोषण से जो अधिक हो; वही धन दान करने के योग्य है, वही मधु के समान मीठा है, उसी से वास्तविक धर्म का लाभ होता है ।

सामान्यं याचितं न्यासमाधिर्दानं च तद्वनम् । अन्वाहितं च निक्षिप्तं सर्वस्वं चान्वये सति ॥
आपतस्वपि न देयानि नववस्तूनि पण्डितैः । यो ददाति स मूढात्मा प्रायश्चिती भवेन्नर: ॥

अर्थात् :-

  • जो अत्यंत तुच्छ हो अथवा जिसपर सर्वसाधारण का अधिकार हो वह वस्तु ‘सामान्य’ कहलाती है ।
  • कहीं से मांग कर लायी हुई वस्तु को ‘याचित’ कहते हैं
  • धरोहर का दूसरा नाम ‘न्यास’ है ।
  • बन्धक रखी हुई वस्तु को ‘आधि’ कहते हैं ।
  • दी हुई वस्तु ‘दान’ के नाम से पुकारी जाती है ।
  • दान में मिली हुई वस्तु को ‘दानधन’ कहते हैं ।
  • जो धन एक के यहाँ धरोहर रखा गया हो और रखने वाले ने उसे पुनः दुसरे के यहाँ रख दिया हो उसे ‘अन्वाहित’ कहते हैं।
  • जिसे किसी के विश्वास पर उसके यहाँ छोड़ दिया जाये, वह धन ‘निक्षिप्त’ कहलाता है ।
  • वंशजों के होते हुए भी सब कुछ दूसरों को दे देना ‘सान्वय सर्वस्व दान’ कहलाता है ।

आपत्तिकाल में भी उपर्युक्त नौ प्रकार की वस्तुओं का दान ना करें । जो पूर्वोक्त नौ वस्तुओं का दान करता है, वह मूढचित्त मानव प्रायश्चित का भागी होता है ।

दान के छः अधिष्ठान : धर्म, अर्थ, काम, लज्जा, हर्ष और भय

  1. धर्म दान : सदा ही किसी प्रयोजन की इच्छा न रखकर केवल धर्म बुद्धि से सुपात्र व्यक्तियों को जो दिया जाता है
  2. अर्थ दान : मन कोई प्रयोजन रख कर ही प्रसंगवश जो कुछ दिया जाता है ।
  3. काम दान : स्त्रीसमागम, सुरापान, शिकार और जुए के प्रसंग अनधिकारी मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक जो कुछ दिया जाता है।
  4. लज्जा दान : भरी सभा में याचकों के मांगने पर लज्जावश देने की प्रतिज्ञा करके उन्हें जो दिया जाता है ।
  5. हर्ष दान : कोई प्रिय कार्य देखकर अथवा प्रिय समाचार सुनकर हर्षोल्लास से जो कुछ दिया जाता है ।
  6. भय दान : निन्दा- अनर्थ- और हिंसा का निवारण करने के लिए अनुपकारी व्यक्तियों को विवश होकर जो दिया जाता है ।

दान के छः अंग : दाता, प्रतिग्रहिता, शुद्धि, धर्मयुक्त देय वस्तु, देश और काल

  1. दाता : दाता निरोग, धर्मात्मा, देने की इच्छा रखने वाला, व्यसन रहित, पवित्र तथा सदा अनिन्दनिय कर्म से आजिविका चलाने वाला होना चाहिए । “सरलता से रहित, श्रद्धाहीन, दुष्टात्मा, दुर्व्यसनी, झूठी प्रतिज्ञा करने वाला तथा बहुत सोने वाला दाता तमोगुणी और अधम माना जाता है ।”
  2. प्रतिग्रही : जिसके कुल-विद्या और आचार तीनों उज्ज्वल हों, जीवन निर्वाह की वृत्ति भी शुद्ध और सात्विक हो, जो दयालु हो, जितेन्द्रिय तथा योनिदोष से मुक्त हो वह ब्राह्मण दान का उत्तम पात्र है ।
  3. शुद्धि : याचकों को देखकर सदा प्रसन्न मुख हो, उनके प्रति हार्दिक प्रेम होना, उनका सत्कार करना, तथा उनमें दोषदृष्टि न रखना; ये सब सदगुण दान में शुद्धि कारक माने गये हैं ।
  4. धर्मयुक्त देय वस्तु : जो धन किसी को सताकर न लाया गया हो, अति क्लेश उठाये बिना अपने प्रयत्न से उपार्जित किया गया हो, वह थोड़ा हो या अधिक, और किसी धार्मिक उदेश्य को लेकर दिया गया हो-
  5. देश व काल : यदि देय वस्तु उक्त विशेषताओं से शून्य हो तो उसके दान से कोई फल नहीं होता । जिस देश अथवा काल में जो-जो वस्तु दुर्लभ हो; उस-उस वस्तु का दान करने योग्य वही देश और काल श्रेष्ठ है ।

दान के दो परिणाम (फल)

दान का एक फल इहलोक और दूसरा परलोक के लिए होता है। श्रेष्ठ पुरूषों को जो कुछ दिया जाता है उसका परलोक में उपभोग होता है, असत् पुरूषों को जो कुछ दिया जाता है वह इहलोक तक ही सीमित है ।

दान के प्रकार

  1. ध्रुव : कुआँ बनवाना, बगीचे लगवाना तथा तालाब खुदवाना आदि कार्यों में धन लगाना “ध्रुव” कहाता है ।
  2. त्रिक : प्रतिदिन जो कुछ दिया जाता है उस नित्यदान को “त्रिक” कहते हैं ।
  3. काम्य : सन्तान- विजय- ऐश्वर्य- स्त्री और बल आदि के निमित्त तथा इच्छा पूर्ति के लिये जो दिया जाता है काम्य दान कहलाता है ।
  4. नैमित्तिक : नैमित्तिक दान तीन प्रकार का कहलाता है :
    • कालाक्षेप : वह होम से रहित होता है, जो ग्रहण और संक्रांति आदि काल की अपेक्षा से दान किया जाता है वह ‘कालाक्षेप’ नैमित्तिक दान है।
    • क्रियाक्षेप : श्राद्ध आदि के निमित्त जो दान किया जाता है ‘क्रियाक्षेप’ नैमित्तिक दान है ।
    • गुणाक्षेप : संस्कार तथा विद्या-अध्ययन के निमित्त जो दिया जाता है वह ‘गुणाक्षेप’ नैमित्तिक दान है ।

दान के भेद

  1. उत्तम : गृह, मंदिर, विद्या, भूमि, गौ, कूप, प्राण और सुवर्ण अन्य दानों की अपेक्षा उत्तम है ।
  2. मध्यम : अन्न, बगीचा, वस्त्र, अश्व, वाहन आदि ये मध्यम श्रेणी के दान है ।
  3. कनिष्ठ : जूता, छाता, बर्तन, दही, मधु, आसन, दीपक, काष्ठ और पत्थर इन वस्तुओं का दान कनिष्ठ माना गया है ।

दान का नाश

जिसे देकर पश्चाताप किया जाये, जो अपात्र को दिया जाये, जो बिना श्रद्धा के अर्पण किया जाये; ये तीनों दान के नाशक है ।

  • यदि दान देकर पश्चाताप किया हो तो वह आसुर दान है, जो निष्फल होता है ।
  • अश्रद्धा से जो कुछ दिया जाता है वह राक्षस दान है, वह भी व्यर्थ होता है ।
  • ब्राह्मण को डांट-फटकार कर या उसे कटु वचन सुना कर (श्रद्धारहित होकर) जो दान दिया जाता है वह पैशाच दान माना गया है उसे भी व्यर्थ समझना चाहिए ।

ध्यातव्य : दान में ली हुई भूमि विद्याहीन ब्राह्मण के अंतःकरण को नष्ट करती है, गाय उसके भोगों का, अश्व उसके नेत्र का, वस्त्र उसकी स्त्री का, घृत उसके तेज का और तिल उसकी सन्तान का नाश करते हैं ।

“अतः अविद्वानों को प्रतिग्रह से डरना चाहिए, प्रतिग्रह से भी अधिक दोष उसे बेचने में है ।”

निष्कर्ष : यह विस्तृत विवेचन दान के महत्व और उसकी समग्र प्रक्रिया को स्पष्ट करता है। दान केवल भौतिक वस्तुओं का हस्तांतरण नहीं है, बल्कि यह श्रद्धा और शक्ति जैसे आंतरिक गुणों से प्रेरित एक कर्म है। दान की सफलता और उसके शुभ फल दाता, प्राप्तकर्ता और दान की विधि पर निर्भर करते हैं। अपात्रों को दान देने और अनुचित वस्तुओं का दान करने से बचने की चेतावनी देता है, साथ ही दान करते समय सही मनोभाव (शुद्धि) और उचित समय व स्थान के महत्व को भी रेखांकित करता है। दान के विभिन्न प्रकार और भेद उसकी परिस्थितियों और अपेक्षित परिणामों को दर्शाते हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पश्चाताप, अपात्रता और अश्रद्धा जैसे नकारात्मक तत्व दान के प्रभाव को नष्ट कर देते हैं। इसलिए, सच्ची भावना, पात्रता का विचार और विवेकपूर्ण चुनाव दान को सार्थक और फलदायी बनाते हैं, जिससे इहलोक और परलोक दोनों में कल्याण संभव है। संक्षेप में, यह पाठ दान को एक गहरी और विचारणीय क्रिया के रूप में स्थापित करता है, जिसके नियमों का पालन करना आवश्यक है।

हम अन्य विद्वद्जनों से भी इसी प्रकार की शास्त्रसम्मत व ज्ञानवर्द्धक संकलन, आलेख की आकांक्षा करते हैं।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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