आपको असुरक्षित यौन संबंध का भौतिक पक्ष तो यत्र-तत्र देखने को मिलेगा और उससे सुरक्षा के उपाय भी बताये जायेंगे। किन्तु जो वास्तविक असुरक्षित यौन संबंध हैं और नारकीय यातना के भाजन बनाते हैं उसके बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता है अपितु इसके विपरीत प्रेरित ही किया जाता है। हमें आध्यात्मिक धरातल पर भी असुरक्षित यौन संबंध (unprotected sex) को जानने और समझने की आवश्यकता है और यहां इस विषय से संबंधित संक्षिप्त चर्चा की गयी है।
असुरक्षित यौन संबंध : दोष और दुष्परिणाम – unprotected sex
यौन संबंध प्रकरण में हम असुरक्षित यौन संबंध का तात्पर्य मात्र भौतिक धरातल पर ग्रहण करते हैं किन्तु आध्यात्मिक धरातल पर इसका कोई विचार ही नहीं करते अपितु स्थिति तो यह है कि वर्त्तमान में आध्यात्मिक दृष्टिकोण से असुरक्षित यौन संबंध को संरक्षण और बढ़ावा ही दिया जा रहा है। ये सेकुलरिज्म का एक अभिशाप है और उससे भी भयावह तो ये है कि इसके बारे में हमें अब कोई जानकारी भी प्राप्त नहीं होती है। वर्तमान में तो ऐसा देखा जा रहा है कि योजनाबद्ध रूप से ऐसे कुकर्म करने के लिये विभिन्न संगठन भी उत्प्रेरक का कार्य करने लगे हैं।
भारतीय संस्कृति के लिये सेकुलरिज्म एक कोढ़ की तरह है, एक आसुरी छाया है जिससे संस्कृति को अपूरणीय क्षति हो रही है। हमारी संस्कृति में यौन संबंध को लेकर भी अनेकानेक मर्यादायें हैं, मर्यादा भंग होने पर उसके लिये प्रायश्चित्त विधान है और प्रायश्चित्त न होने पर नारकीय यातना की चर्चा है। चूँकि धर्म हमारे आचरण को भी नियंत्रित करता है और शतकों तक पराधीनता रही एवं दशकों तक सत्ता पर ऐसे लोगों का आधिपत्य रहा जो स्वेच्छाचारी थे और संस्कृति विरोधी थे एवं इसमें उनके द्वारा असुरक्षित यौन संबंध को ही प्रचारित-प्रसारित व संरक्षित किया गया एवं वर्त्तमान में भी किया जा रहा है।
वर्त्तमान भारत में सेकुलरिज्म का षड्यंत्र करते हुये अधर्मियों को तो छोड़िये वो तो “लव जिहाद” तक करते हैं और सनातनी कन्यायों के लिये डाक व्यवस्था भी प्रचलन में है अर्थात “लव जिहादियों” को आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक प्रोत्साहन भी दिया जाता है एवं उसमें ब्राह्मणी कन्या को “लव जिहाद” का शिकार बनाने वाले को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया जाता है। यह तो एक प्रकरण है। इसी का दूसरा प्रकरण है राजकीय रूप से अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित करना और यह भी एक षड्यंत्र के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है वर्ण-व्यवस्था एवं वर्ण-व्यवस्था में स्ववर्ण से विवाह पूर्वक ऋतुकाल में यौन संबंध स्थापित करना ही कल्याणकारी है। इसके विपरीत भिन्न वर्ण से समागम (यौन संबंध) करना नरक की यातना प्रदायक है। किन्तु सत्ताधिप सेकुलरिज्म के षड्यंत्र में इस प्रकार से फंस गये हैं कि अंतर्जातीय विवाह के नाम पर इसे प्रचारित-प्रसारित व प्रोत्साहित भी कर रहे हैं। इस स्थिति में हमें मुख्य रूप से वर्णेत्तरों और ब्राह्मणी से समागम करने के जो दुष्परिणाम हैं उसे जानना व समझना आवश्यक है।
सनातन का जागरण हो रहा है तो जागरण व उन्माद में अंतर भी समझना होगा। जो शास्त्र ज्ञान के बिना शास्त्र विरुद्ध आचरण करते हुये मात्र तीर्थों व मंदिरों में पर्यटन करने को सनातन का जागरण सिद्ध करते हैं वो पुनः भ्रमित कर रहे हैं। सनातन के जागरण का तात्पर्य है शास्त्र ज्ञान प्राप्त करते हुये आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास पुनः आरंभ हो। इसके अतिरिक्त मात्र मंदिरों-तीर्थों में पर्यटन करना सनातन का जागरण नहीं सिद्ध हो सकता है। अब हम यहां वर्णेत्तरों और ब्राह्मणी के समागम के दुष्परिणाम को संक्षेप में शास्त्रानुसार समझने का प्रयास करेंगे।
बहुधा ऐसा देखा जाता है कि सङ्कलनकर्ता व्यक्ति का नाम छुपाकर, कृतघ्नतापूर्वक लोग सामग्रियां प्रस्तुत करते हैं और उसमें मेरे अनेकों आलेख भी हैं जो “संपूर्ण कर्मकांड विधि” पर प्रकाशित हैं एवं संकलन करना कितना जटिल कार्य होता है यह मुझे ज्ञात है। अस्तु यह संकलन जिनका है श्रेय उनको ही दिया जायेगा।
इस संकलन (कलिवर्ज्य प्रकरण) का श्रेय संकलनकर्त्ता आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी को ही जाता है और इसके लिये हम उनके आभारी हैं कि वो इतना परिश्रम करते हुये ऐसे संकलन सतत अपने व्हाटसप समूह “ब्रह्मसूत्र” में प्रस्तुत करते रहते हैं। यहां उनकी छवि भी प्रस्तुत की गयी है। आगे का भाग यथावत प्रस्तुत किया गया है जैसा की प्राप्त हुआ है।

॥ ब्राह्मणी से समागम नरक का द्वार ॥
यमराज सत्यवती से कहते हैं हे पतिव्रते ! जो क्षत्रिय अथवा वैश्य किसी ब्राह्मणी के साथ समागम करता है - वह मातृगामी होता है अर्थात वह अपनी माता के साथ ही व्याभिचार करता है । वह चौदह इन्द्रों के आयु पर्यन्त नरक यातना भोगता है -- उसके बाद जन्मों तक सुअर उसके बाद सात जन्मों तक बकरे का जन्म लेता है - तब उसकी शुद्धि होती है ।
क्षत्रियो ब्राह्मणीं गच्छैद्वैश्यो वापि पतिव्रते । मातृगामि भवेत्सोऽपि शूर्पे च नरके वसेत् ॥
तत्रैव यातनां भुङ्क्ते यावदिन्द्राश्चतुर्दश । सप्तजन्म वराहश्च छागलश्च ततः शुचिः ॥ “
जो ब्राह्मणी शूद्र या म्लेच्छ के साथ संभोग करती है - वह अंधकूप नामक नरक कुण्ड में जाती है -- अंधकारमय तथा तप्त शौचजलयुक्त उस कुण्ड में वह दिन-रात पडी रहती है और उसी तप्त शौचजल का भोजन करती है ।
या ब्राह्मणी शूद्रभोग्या चान्धकूपे प्रयाति सा । तप्तशौचोदके ध्वान्ते तदाहारी दिवानिशम् ॥
वह स्त्री चौदह इन्द्रों की स्थितिपर्यन्त यानि एक हजार चतुर्युगी तक उस शौचजल में डुबी रहती है -- तत्पश्चात वह एक हजार जन्म तक कौवी -- एक सौ जन्म तक सूकरी -- एक सौ जन्म तक सियारिन -- एक सौ जन्म तक कुक्कटी -- सात जन्म तक कबूतरी और सात जन्म तक वानरी होती है ।
शौचोदके निमग्ना सा यावदिन्द्राश्चतुर्दश । काकी जन्मसहस्त्राणि शतजन्मानि सूकरी ॥
शृगाली शतजन्मानि शतजन्मानि कुक्कटी । पारावती सप्तजन्म वानरी सप्त जन्मसु ॥ “
इसके बाद वह भारतवर्ष में सर्वभोग्या चाण्डाली होती है – उसके बाद अगले जन्म में धोबिन बनकर जन्म लेती है और सदा यक्ष्मारोग से ग्रस्त रहती है — तत्पश्चात् वह अगले जन्म में कोढ से युक्त तेलिन होती है तब जाकर वह शुद्ध होती है —
ततो भवेत्सा चाण्डाली सर्वभोग्या च भारते । ततो भवेच्च रजकी यक्ष्मग्रस्ता च पुंश्चली ॥
ततः कुष्ठयुक्ता तैलकारी शुद्धा भवेत्ततः ॥
तो कुछ क्षण के व्याभिचार के बदले अंत ना होने वाला कष्ट भोगना पडेगा – और अवश्य भोगना पडेगा — और कोई कहे कि ये कपोलकल्पित बातें हैं तो वह अपने उस भ्रम को निकाल दे – कि ऐसा नहीं होगा — इसलिए अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाते हुए सत्पुरुषों के बताये मार्ग पर चलो और अपना लोक – परलोक संवारो व अपने कुल का सम्मान बनाये रखो ॥ वशिष्ठ॥
हम अन्य विद्वद्जनों से भी इसी प्रकार की शास्त्रसम्मत व ज्ञानवर्द्धक संकलन, आलेख की आकांक्षा करते हैं।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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