हरि के भरोसे हांको गाड़ी – hari ke bharose hanko gadi

पति और पत्नी का परम अन्योन्याश्रय संबंध - Husband Wife Relationship

एक प्यारा भजन है “सुनो रे प्यारे भाई हरि के भरोसे हांको गाड़ी (hari ke bharose hanko gadi)” किन्तु क्या आप जानते हैं कि इसके लिये भगवान व धर्म में अटल विश्वास होना अनिवार्य है ! नास्तिकों की तो बात ही क्या करें जिसका विश्वास अटल नहीं है उसके लिये भी भगवान पर विश्वास कर पाना असंभव है, भले ही इस भजन को आजीवन गुनगुनाता क्यों न रहे। दूसरा पहलू यह भी है यदि आपका विश्वास अटल है तो संसार आपके विश्वास को तोड़ने का अथक प्रयास करेगा और संसार के इस अथक प्रयास के पश्चात् भी आपका विश्वास न टले तो ही अटल संज्ञक सिद्ध होगा। इसे एक कथानक के माध्यम से यहां समझने का प्रयास करते हैं।

जब आप धर्ममार्ग का आश्रय लेते हैं तो इसका तात्पर्य यह नहीं होता कि आपके प्रारब्ध नष्ट हो जाते हैं अर्थात सुख-दुःख से मुक्त हो जाते हैं। जब तक जीवन रहता है अर्थात आजीवन सुख-दुःख का आना-जाना लगा ही रहता है, किन्तु यहीं पर संसार यह प्रयास करती है कि आप धर्ममार्ग का त्याग कर दें क्योंकि जब आपके दुःखों का निवारण ही नहीं होता अर्थात धर्म आपकी रक्षा ही नहीं करता तो आप धर्म करते क्यों हैं ? यह प्रश्न संसार द्वारा किया जाता है और इसका उत्तर देना कठिन होता है।

यह भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि “धर्मो रक्षति रक्षितः” का तात्पर्य तो यही है कि जो धर्म की रक्षा करता है धर्म उसकी रक्षा करता है। फिर जब धर्ममार्ग पर चल रहे होते हैं तो दुःख से धर्म रक्षा क्यों नहीं करता ? धर्ममार्ग का आश्रय ग्रहण करने वाले भी दुःखी क्यों होते हैं ? और यह प्रश्न नास्तिकों/अधर्मियों द्वारा किया ही जाता है। इतना ही नहीं इससे भी आगे बढ़ते हुये यहां तक कहता है कि धर्म कर रहे हो इसी कारण दुःखी हो पापियों को देखो वो तो सुखी है। और भौतिकता के दृष्टिकोण से ऐसा प्रतीत भी होता है क्योंकि अधर्म मार्ग पर चलने वाले के पास धन-संपत्ति, साधन प्रचुर दिखता है और वो सुखी प्रतीत होते हैं।

वास्तव में धर्ममार्ग पर अडिग रहना कठिन है और जो भी धर्ममार्ग का आश्रय लेंगे परीक्षा तो उनकी ही ली जायेगी, भला उसकी परीक्षा ही क्यों ली जाय जो धर्ममार्ग पर चलते ही नहीं हैं। सोचिये असफलता, शैक्षणिक परिश्रमरूपी कष्ट तो उसी को उठाना पड़ता है न जो परीक्षा में भाग लेकर उत्तीर्ण होना चाहता है, जो परीक्षा में भाग ही नहीं लेता उसे तो नहीं। वर्त्तमान काल में जिसे धर्मान्तर कहा जाता है जो वास्तव में धर्मत्याग है इसके पीछे भी यही कुतर्क रचा जाता है और ढेरों धर्मत्याग करते रहते हैं। प्रलोभनादि भी इसी कड़ी में गण्य है।

कदर्थितस्याऽपि हि धैर्यवृत्तेर्न शक्यते धैर्यगुणः प्रमार्ष्टुम् । अधोमुखस्यापि कृतस्य वन्हेरधः शिखा याति कदाचिदेव ।।– नीतिशतक, ९७

कष्ट में पड़े हुए भी धैर्यवान् व्यक्ति का धैर्यगुण मिटाया नहीं जा सकता, यथा यदि आग का मुंह नीचे की ओर भी कर दिया जाय तो भी उसकी लपट कभी नीचे नहीं जाती।

धर्ममार्ग पर चलने वालों को अटल विश्वास करना ही होता है, धैर्य धारण करना ही होता है। जो सांसारिक सुखों की कामना से प्रदर्शनात्मक आडम्बर करने वाले होते हैं वही “पाप में ही वृद्धि है” बारम्बार बोलते पाये जाते हैं क्योंकि यह असत्य है। जो नास्तिक हैं वो धर्माचरण करने वालों को धर्मभ्रष्ट करने के लिये भी ऐसा ही सिद्ध करते हैं। किन्तु धर्मच्युत वही होते हैं जिसका विश्वास अडिग नहीं होता, जो धर्म नहीं आडम्बर करता है। इस प्रसंग को गंभीरता से समझने के लिये एक कथा है जो स्कंदपुराण की है बहुत ही प्रासंगिक है :

दुःख और धर्म से संबंधित स्कंदपुराणोक्त कथा

बहूदक नामक का एक तीर्थ था, यहां नन्दभद्र वैश्य रहते थे, धर्माचारी, सदाचारी पुरूष, उनकी साध्वी पत्नी का नाम कनका था। नंदभद्र चंद्रमौलि भगवान् शंकर के बड़े भक्त थे । बहुदक में कपिलेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध शिवलिंग था, नंदभद्र तीनों समय कपिलेश्वर की पूजा किया करते थे ।

नंदभद्र अल्प लाभ लेकर वस्तु विक्रय थे और ग्राहकों के साथ सम और सच्चा व्यवहार रखते थे, अर्थात् व्यापार करते थे। वे अपद्रव्य नहीं बेचते थे और जो कुछ लाभ मिल जाता, उसी में संतुष्ट रहते थे। नंदभद्र का जीवन तपस्वियों जैसा था, सब नंदभद्र के सदाचारी, धनी और सुखी जीवन की प्रशंसा करते थे।

नंदभद्र के पड़ोस में रहने वाला सत्यव्रत जो बड़ा ही नास्तिक एवं दुराचारी था, उनसे ईर्ष्या करता था, सत्यव्रत चाहता था कि किसी प्रकार नंदभद्र का कोई दोष दिख जाए तो उसे धर्म के मार्ग से गिरा दूं। नंदभद्र पर झूठे आरोप लगाना और सदा उनके दोष ही ढ़ूंढते रहना उसका स्वभाव बन गया था। दुर्भाग्यवश अचानक नंदभद्र का इकलौता पुत्र गम्भीर रूप से अस्वस्थ हो गया, नंदभद्र ने दुर्भाग्य मानकर शोक नहीं किया।

पुत्र के बाद उनकी पत्नी कनका भी गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गयी। नंदभद्र पर विपतियां आयी देखकर उनके पड़ोसी सत्यव्रत को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने सोचा कि संभवतः नंदभद्र को धर्म से भटकाने का यही अवसर है। उसने नन्दभद्र को सांत्वना देने का ढोंग करते हुए कहा – तुम्हारे जैसे धर्मात्मा को यह दु:ख उठाना पड़ रहा है, लगता है कि धर्म कर्म सब ढकोसला है; कई बार सोचा कि मैं तुमसे कहूं पर संकोचवश कहा नहीं।

दिन में तीन बार पूजा, स्तुति सब व्यर्थ है; भैया नंदभद्र ! धर्म के नाम पर क्यों इतना कष्ट उठाते हो ? जब से तुम इस पत्थर – पूजन में लगे हो, तब से कोई अच्छा फल तो मिला नहीं इकलौता पुत्र और पत्नी दोनों अस्वस्थ हैं। भगवान् होते तो क्या ऐसा फल देते ? पुण्य और पाप सब कुछ कल्पना है। नंदभद्र ! तुम्हें तो मेरी यही सलाह होगी की झूठे धर्म को छोड़ आनंदपूर्वक खाओ, पीओ और भोगो, यही सत्य है।

सत्यव्रत की बातों का नंदभद्र पर कोई प्रभाव न पड़ा। वह बोले – सत्यव्रतजी ! आप अपने आप को ही धोखा दे रहे हैं।

  • क्या पापियों पर दु:ख नहीं आते ?
  • क्या उनके पुत्र, स्त्री बीमार नहीं होते ?

जब सज्जन दु:खी होता है, तो लोग सहानुभूति जताते हैं, पर दुराचारी के दुःख पर कोई सहानुभूति नहीं दिखाता। अत: धर्म पालन करने वाला ही ठीक है। अंधा सूर्य को नहीं जानता, पर सूर्य तो है। ईश्वर के बिना संसार का संचालन नहीं हो सकता।

सत्यव्रत ने उसे टोक कर पूछा – देवता हैं तो दिखायी क्यों नहीं देते ? नंदभद्र ने कहा- देवता आपके पास आकर याचना नहीं करेंगे कि हमें आप मानिए. बातचीत बहस में बदलने लगी । नंदभद्र अधिक विवाद नहीं चाहते थे, उठकर चले गये. पर उनके मन में यह विचार आया कि भगवान् सदाशिव का साक्षात् दर्शन करके पूछूं – आप आपके बनाये संसार सुख-दु:ख, जन्म-मरण आदि क्लेश क्यों है ? यह दोषरहित क्यों नहीं है।

नंदभद्र शिवमंदिर आये, कपिलेश्वर लिंग की पूजा भगवान के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। सोच लिया कि जब तक भोलेनाथ दर्शन नहीं देंगे, तब तक मैं ऐसे ही खड़ा रहूँगा। लगातार तीन दिन और तीन रात नंदभद्र वैसे ही खड़े रहे।

चौथे दिन एक बालक उस मंदिर में आया. वह गलितकुष्ठ का रोगी भयानक पीड़ा से कराह रहा था. उसने नंदभद्र से पूछा- आप इतने सुंदर एवं स्वस्थ हैं, फिर भी आप दुःखी क्यों लग रहे है ? नंदभद्र ने अपना संकल्प उसे बताया।

बालक ने कहा – अनचाहे का मिलना और मनचाहे का बिछुड़ना, इससे मानसिक कष्ट होता है. रोग और परिश्रम से शरीर को कष्ट होता है। मानसिक कष्ट से शारीरिक एवं शारीरिक कष्ट से मानसिक कष्ट होता है। औषधि से शारीरिक कष्ट दूर होते है एवं ज्ञान से मानसिक।

बालक से ज्ञान भरी बात सुनकर नंदभद्र ने फिर पूछा – बालक ! पापी मनुष्य भी इतने धनी और सुखी क्यों होते हैं ? भगवान की दुनिया में यह दोष क्यों ?

बालक ने कहा – संसार में चार प्रकार के लोग हैं :

  1. पहले वह हैं जिनके लिए इस लोक में तो सुख सुलभ है परंतु परलोक में नहीं। उनके पूर्वजन्मों के पुण्य शेष हैं, उसे वह इस लोक में भोग रहे हैं लेकिन नए पुण्य नहीं कमाते. ऐसे लोगों का सुखभोग केवल इसी लोक तक है।
  2. दूसरे, जिसके लिए परलोक में सुख का भोग सुलभ है, परंतु इस लोक में नहीं क्योंकि पिछले जन्म के पुण्य खत्म हैं। वह तपस्या करके नए पुण्य कमाता है। उसे परलोक में सुख का भोग प्राप्त होगा।
  3. तीसरा वह जिसके लिए इस लोक और परलोक में भी सुख भोग मिलता है क्योंकि उसका पहले का किया हुआ पुण्य भी विद्यमान है और तपस्या से नये पुण्य बना रहा है, ऐसे विरले ही होते है।
  4. चौथा वह जिसके लिये न तो इहलोक में सुख है और न परलोक में ही क्योंकि पहले का पुण्य तो है नहीं और इस लोक में भी पुण्य कमा नहीं रहा, ऐसे नीच को धिक्कार है।

सो आपको इस जन्म में भगवान सदाशिव के भजन में लग जाना चाहिए जिससे आप जन्म के बंधन से ही मुक्त हो सकते हैं।

एक छोटे बालक के मुख से ऐसी ज्ञानमयी और रहस्यपूर्ण बातें सुनकर नंदभद्र चकित हो पूछने लगे- आप कौन हैं और यहां कैसे पधारे है ? आपने मेरे सब संदेहों को दूर कर दिया ।

बालक ने कहा – पूर्वजन्म में मैं अहंकारी, पाखण्ड़ी, व्याभिचारी था. जिसके चलते मैं वर्षो से नीच योनियों में भटका। भगवान व्यासदेव की ऐसी कृपा कि वे हर योनि में मुझे मुक्तिमार्ग बता देते हैं. उन्होंने ही मुझे आपके पास भेजा है। अब मैं सात दिन के बाद इसी तीर्थ में मरुंगा। आप मेरा अन्तिम संस्कार कर दीजिएगा।

सूर्य मंत्र का जप करते हुए सातवें दिन उस बालक ने अपने प्राण त्याग दिए। नंदभद्र ने विधिपूर्वक उसका अन्तिम संस्कार किया।

नंदभद्र को जीवन की सचाई और सार्थकता का बोध हो गया था। शेष जीवन उन्होने भगवान् शिव और सूर्य की उपासना में लगा दिया तथा अन्त में जीवन मरण से मुक्ति पाकर भगवान शिव का साक्षात प्राप्त किया।

निष्कर्ष : धर्म का पालन यह सोचकर नहीं करना चाहिये कि इससे दुःख दूर रहेंगे, सुख ही सुख होगा। धर्मपालन करना स्वयं भी कष्टकर ही होता है। जो पापी, दुराचारी, अपराधी व्यक्ति साधन संपन्न होता है क्योंकि उसके पास अनैतिक रूप से अर्जित -संपत्ति होती है। और यही उदाहरण प्रस्तुत करते हुये धर्मावलम्बियों को धर्मच्युत करने का कुकर्म अधर्मी/नास्तिक आदि करते हैं एवं इसे धर्मांतरण कहते हैं पथभ्रष्ट होने वालों को ऐसा न लगे कि उसने नरक मार्ग का चयन किया है। यहां स्कंदपुराण की एक कथा प्रस्तुत किया गया है जिससे यह सीख मिलती है कि “दुःख मिलने पर भी धर्म त्याग (धर्मांतरण) नहीं करना चाहिये।

हम अन्य विद्वद्जनों से भी इसी प्रकार की शास्त्रसम्मत व ज्ञानवर्द्धक संकलन, आलेख की आकांक्षा करते हैं।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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