हमने “संपूर्ण कर्मकांड विधि” वेबसाइट पर “अशौच निर्णय pdf सहित” प्रकाशित कर रखा है जिसमें गंभीरता से अशौच विचार किया गया है जैसे अशौच क्या होता है, अशौच के प्रकार, अशौच के निमित्त, सूतक, अशौच निवृत्ति, अशौच शङ्कर विचार आदि। इसके अतिरिक्त अशौच प्रकरण में एक महत्वपूर्ण विषय है संसर्गाशौच विचार जिसकी चर्चा शेष है और यहां वही चर्चा प्रस्तुत है अर्थात यदि अशौची व्यक्ति से संसर्ग हो तो संसर्ग करने वाले की शुद्धि का विधान।
संसर्गाशौच व निवारण अर्थात संसर्गी शुद्धि विधान
इस आलेख का विषय तो स्पष्ट हो चुका है कि संसर्गाशौच का विचार है किन्तु एक अन्य तथ्य भी स्पष्ट करना आवश्यक है और वो है संकलनकर्त्ता आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी के प्रति साधुवाद प्रकट करना। ये सत्य है कि सभी विषय शास्त्रों में अंकित हैं और विद्वान शास्त्रों से ही ग्रहण करते हैं किन्तु इसका संकलन करना भी जटिल कार्य होता है। आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी को साधुवाद कि उन्होंने “अशौची से संसर्ग करनेवालों की शुद्धि” विषय पर संकलन करके प्रस्तुत किया।
बहुधा ऐसा देखा जाता है कि सङ्कलनकर्ता व्यक्ति का नाम छुपाकर, कृतघ्नतापूर्वक लोग सामग्रियां प्रस्तुत करते हैं और उसमें मेरे अनेकों आलेख भी हैं जो “संपूर्ण कर्मकांड विधि” पर प्रकाशित हैं एवं संकलन करना कितना जटिल कार्य होता है यह मुझे ज्ञात है। अस्तु यह संकलन जिनका है श्रेय उनको ही दिया जायेगा।
सभी विषय शास्त्रोक्त प्रमाणयुक्त हैं अर्थात यह तर्क-वितर्क नहीं है और इसमें मैंने कोई संशोधन नहीं किया है, आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी का जो सन्देश व्हाट्सअप समूह “ब्रह्मसूत्र” में प्राप्त हुआ वही अनुमति पूर्वक सशीर्षक यथावत प्रस्तुत है । प्रणम्य आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी की छवि भी यहां दी जा रही है।

॥ अशौची से संसर्ग करनेवालों की शुद्धि ॥
अनुगम्येच्छया प्रेतं ज्ञातिमज्ञातिमेव च ।
स्नात्वा सचैलः स्पृष्ट्र घृतं प्राश्य विशुध्यति ॥
मनु- अध्याय ५. १०३ ॥
जो मनुष्य (सपिण्डसे भिन्न) अपनी जाति अथवा अन्य जातिके मुर्देके साथ श्मशान में जाता है वह वस्त्रोंके सहित स्नान करके अग्निका स्पर्श करने और घी खनेपर शुद्ध होताहै ॥
ब्राह्मणेनानुगन्तव्यो न शूद्रो न द्विजः क्वचित् ।
अनुगम्याम्भसि स्नात्वा स्पृष्टाग्निं घृतभुक्शुचिः॥
याज्ञवल्क्यस्मृति – ३ अध्याय . २६ ॥
ब्राह्मण को उचित है कि (असपिण्ड ) द्विज अथवा शूद्रके मुर्देके साथ श्मशान में नही जावे; किन्तु यदि जावे तो जलमें स्नान करके अग्निका स्पर्श और घी भोजन करके शुद्ध होवे ॥
यस्तैः सहान्नं कुर्याच्च यानादीनि तु चैवं हि । ब्राह्मणे वा परे वापि दशाहेन विशुध्यति ॥
यस्तेषामन्नमश्नाति स तु देवोऽपि कामतः । तदा शौचनिवृत्तेषु स्नानं कृत्वा विशुध्यति ॥
यावत्तदन्नमश्नाति दुर्भिक्षाभिहतो नरः । तावन्त्यन्यन्यशुद्धिः स्यात्प्रायश्चित्तं ततश्चरेत् ॥
उशनास्मृति – ६.४८-५०
ब्राह्मण अथवा अन्य वर्णका मनुष्य जो कोई अशौचीके सहित अन्न भोजन या एकत्र यानादि व्यवहार करेगा वह १० दिनपर अर्थात् अशौची के शुद्ध होनेपर शुद्ध होगा ॥ जो जान करके अशौचवालेके घर अन्न खाता है वह देवता हनेपर भी अशौचवालके शुद्ध होनेपर स्नान करके शुद्ध होता है; किन्तु जो दुर्भिक्षसे पीड़ित होकर प्राणरक्षाके लिये अशौच्वालेके घर जितने दिन भोजन करता है वह उतने दिनतक अशुद्ध रहता है, उसके बाद स्नान आदि प्रायश्चित्त करके शुद्ध होजाता है।।
असपिण्डैर्न कर्त्तव्यं चूडाकार्य विशेषतः ॥ जन्मप्रभृतिसंस्कारे श्मशानान्ते च भोजनम् ॥ आपस्तम्ब स्मृति – ९.२१-२२
जातकर्म आदि संस्कार के समय, प्रेतकर्ममें और विशेष करके चूड़ाकरणके समय असपिण्डके घर भोजन नहीं करना चाहिये।
संपर्कादुष्यते विप्रो जनने मरणे तथा । संपर्काच्च निवृत्तस्य न प्रेतं नैव सूतकम् ॥ पाराशरस्मृति – ३.२१
ब्राह्मण असपिण्डके मृत्यु तथा जन्मके अशौचमें केवल सम्पर्कसेही दूषित होता है; यदि वह भगोषनालेसे सम्पर्क नहीं रखे तो उसको मरणका अथवा जन्मका अशौच नहीं लगताहै ॥
अनाथब्राह्मणं प्रेतं ये वहन्ति द्विजातयः । पदेपदे यज्ञफलमानुपूर्व्यालभन्ति ते ॥४१॥
न तेषामशुभं किञ्चित्पापं वा शुभकर्मणाम् । जला गाहनात्तेषां सद्यः शौचं विधीयते ॥४२॥
असगोत्रमबन्धुश्च प्रेतीभूतद्विजोत्तमम् । वहित्वा च दहित्वा च प्राणायामेन शुध्यति ॥४३॥
जो द्विजाति अनाथ ब्राह्मणके मृत शरीरको ढोकर श्मशान में लेजाते हैं वे पद पद पर यज्ञ करनेका फल पाते हैं; उन शुभ कर्म करनेवालोंको न तो कुछ दोष लगता है न अशुभ होता है; वे लोग जलमें स्नान करनेसे उसी समय शुद्ध होजातेहैं। जो ब्राह्मण अन्य गोत्र और अबान्धन मृतकको ढोता है और जलाताहै वह प्राणायाम करनेपर शुद्ध होजाता है।
पराशौचे नरो भुक्त्वा कृमियोनौ प्रजायते । भुक्त्वान्नं म्रियते यस्य तस्य योनौ प्रजायते ॥ शङ्खस्मृति – १५ .२४ ॥
जो मनुष्य अन्यके अशौचमे अर्थात् उसके शुद्ध होनेसे पहिले उसके घर भोजन करता है वह कीड़की योनि में जन्म लेता है और जो जिसका अन्न खाकर अर्थात् पेटमें उसका अन्न रहनेपर मरजाता है वह उसीकी नाति जन्मता ॥
अनिर्दशाहे पकान्नं नियोगाद्यस्त भुक्तवान् । कृमिर्भूत्वा स देहान्ते तद्विष्टामुपजीवति ॥
द्वादशमासान्द्वादशार्द्धमासान्वाऽनश्नन्संहितामधीयानः पूतो भवतीति विज्ञायते ॥ वसिष्ठस्मृति – ४.२७-२८
जो ब्राह्मण अशौचवाले ब्राह्मणके वर १० दिनके भीतर निमन्त्रित होकर पका हुआ अन्न खाता है वह मरनेपर कीड़ा होकर अशौचवालेकी विष्ठा से जीता है। वह मनुष्य १२ मास अथवा ६ मास अन्नको छोड़के ( केवल दूध पीकर ) वेदकी संहिताका पाठ करनेपर शुद्ध होजाता है; ऐसा शास्त्र से जाना गयाहै ॥
हम अन्य विद्वद्जनों से भी इसी प्रकार की शास्त्रसम्मत व ज्ञानवर्द्धक संकलन, आलेख की आकांक्षा करते हैं।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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