आपने मदारी और बंदर की अनेकों कहानियां पढ़ी होगी, नाटक भी देखें होंगे और फिल्म भी जो मनोरंजक होगी। किन्तु यहां जिस मदारी और बंदर की चर्चा होने वाली है यह आपको आश्चर्यचकित करने वाली है क्योंकि इसमें या तो आप ही मदारी होंगे अथवा बंदर। दोनों में से कोई एक आप हो सकते हैं किन्तु ये तय आपको ही करना होगा कि आप मदारी हैं अथवा मदारी का बंदर। आइये मदारी और बंदर का खेल (madari aur bandar ka khel) समझते हैं जो चौंकाने वाला है।
एक ऐसा मदारी और बंदर का खेल जो चौंका देगा – madari aur bandar ka khel
राम चरित मानस में एक चौपाई है : “नाचइ नर मरकट की नाईं” इसमें मनुष्य मात्र को मरकट बंदर के समान कहा गया है किन्तु यहां नचाने वाले मदारी कोई और नहीं स्वयं परमात्मा होते हैं “सबहिं नचावत राम गोसाईं” किन्तु इसको समझ लेना ही इससे मुक्ति का उपाय है। और कभी-कभी से भक्त के वशीभूत होकर परमात्मा भी सगुण-साकार होकर नाचने लगता है।
यह खेल तो अनादि काल से चलता आ रहा है और इस खेल में हम सभी बंदर हैं। किन्तु इस खेल को समझना, इससे मुक्त होने के लिये जीव स्वतंत्र है, प्रयास कर सकता है और इसमें मदारी जो है जीव रूपी बंदर से उसका कोई स्वार्थ नहीं है। इस खेल से मुक्ति होने के लिये ही अध्यात्म का आश्रय ग्रहण किया जाता है।
मदारी का बंदर
किन्तु हम जिस मदारी और बंदर के खेल की चर्चा करने वाले हैं इसमें कुछ लोगों का समूह मदारी है और सामान्य जनता बंदर है। जनता को ज्ञात भी नहीं है कि वो मदारी का बंदर बना हुआ है और उसे नचाया जा रहा है। लोगों को लगता है कि वो जो कुछ भी कर रहा है स्वयं की इच्छा से कर रहा है किन्तु मदारी है कि उसकी इच्छा को ही नियंत्रित करता है और ये बात बंदर को ज्ञात नहीं है।
सामान्य लोग क्या भोजन करेंगे, क्या पहनेंगे, क्या-क्या उपभोग करेंगे, क्या-क्या दृश्य देखेंगे, कहां-कहां घूमेंगे सब-कुछ कुछ लोगों का समूह ही निर्धारित करता है।
नहीं समझ रहे हैं न ! अथवा विश्वास नहीं हो रहा है न कि हम बंदर कैसे हो सकते हैं ? हमें कोई किस प्रकार से नचा सकता है ? कुछ बिंदुओं पर गंभीरता से विचार कीजिये :
- सांई नामक कोई भी देवता नहीं है, लेकिन मंदिर है अथवा नहीं, लोग देवता समझकर पूजा करने लगें हैं अथवा नहीं ?
- शव का प्रयोग तांत्रिक विधियों में ही होता है, सामान्य गृहस्थों के लिये शव की पूजा का कोई शास्त्रीय विधान नहीं है, कब्र और मजारों पर जाते हैं अथवा नहीं ?
- जन्मदिन पर शास्त्रोक्त पूजा-हवन की किसी विधि को नहीं जानते हैं किन्तु जो भारतीय व्यवहार नहीं है उसका अंधानुकरण करते हुये कैंडल जलाना-बुझाना, केक काटना हो रहा है अथवा नहीं।
- आप अपने बच्चों को लेकर चिंतित हैं अथवा नहीं कि वो विवाह में आपकी इच्छा का सम्मान करेगा अथवा किसी के साथ
- तलाक नामक कोई विधान सनातन और भारतीय संस्कृति में नहीं है, किन्तु कर रहे हैं अथवा नहीं ?
- आप अपने माता-पिता आदि की आज्ञा का पालन करते थे, आज आपके बच्चे स्वछंद क्यों हो रहे हैं ?
- आप मर्यादित जीवन जीते थे, आज के बच्चे मर्यादा को तिलांजलि दे रहे हैं अथवा नहीं ?
- 1 जनवरी को भारतीय नववर्ष का आरम्भ नहीं होता है, नववर्ष मनाते हैं अथवा नहीं ?
इस तरह से अनगिनत बिंदु हैं जो बताते रहें तो समाप्त ही न हों इसलिये इतने पर ही रुक जाते हैं और समझने का प्रयास करते हैं। उपरोक्त बिंदुओं पर आपको गम्भीरतापूर्वक यह विचार करना आवश्यक है कि वास्तविकता के विपरीत व्यवहार हो रहा है अथवा नहीं, जानते हुये भी किया जा रहा है अथवा नहीं। क्या आप इससे सहमत नहीं हैं कि 1 जनवरी को भारतीय नववर्ष का आरम्भ नहीं होता है, सहमत होते हुये भी नववर्ष मनाते हैं अथवा नहीं ?
ऐसा नहीं है कि मैं आपसे पृथक और भिन्न हूँ, अर्थात उसी भीड़ का हिस्सा हूँ किन्तु समझने-समझाने का प्रयास कर रहे हैं। इसे समझने-समझाने का प्रयास मात्र करना भी उस मदारी के लिये दुःसह है और उसकी प्रतिक्रिया बड़ी ही भयंकर होती है किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसे समझने-समझाने का कोई प्रयास ही न करे। क्योंकि सबसे बड़ी समस्या यही होती है कि “बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे” किन्तु विशेषता भी यही है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधना संभव नहीं किन्तु मनुष्य में यह प्रतीकात्मक होता है और ऐसा प्रयास होता ही रहा है भले ही चूहे की जान क्यों न चली जाती हो।
हमें क्या भोजन करना है ? क्या पहनना है ? क्या देखना है ? क्या पढ़ना है ? कहां घूमना है ? ये सब कुछ वो मदारी ही निर्धारित करता है, हमें भ्रम मात्र होता है कि हम अपनी इच्छा से भोजन कर रहे हैं या कुछ भी उपभोग कर रहे हैं, कहीं घूमने जा रहे हैं, कुछ देख रहे हैं अथवा पढ़ रहे हैं आदि-इत्यादि। नहीं समझ रहे हैं न ?
इस प्रकार से समझिये कि आप घूमने के लिये कहां जायेंगे ये आपको वही मदारी आपको उन जगहों के बारे में ही बताता है जहां वह चाहता है कि आप घूमने जायें। भारत में अनगिनत दर्शनीय स्थल हैं किन्तु दशकों तक ताजमहल ही क्यों देखा-दिखाया जा रहा था तनिक सोचिये तो।
यह जानते हुये भी कि साईं कोई देवता नहीं है, न ही अवतार है, फिर भी मंदिर किस शास्त्र के आधार से बनाया गया है ? यदि शास्त्र के आधार से नहीं किया गया है तो वह मंदिर कैसे सिद्ध होता है ? किस प्रमाण से लोग घरों में मूर्ति रखकर पूजा-अर्चना कर रहे हैं ? क्योंकि मदारी यह करा रहा है और हम बंदर की तरह नाच रहे हैं।
यहां पर कोई यह न सोचे कि मैं किसी की आस्था पर प्रहार कर रहा हूँ, जिसका शास्त्रों में प्रमाण नहीं है वह आस्था नहीं अन्धविश्वास है और मैं अन्धविश्वास से सम्बंधित प्रश्न कर रहा हूँ। किसी भी धार्मिक विषय के ऊपर प्रमाण की मांग का मुझे अधिकार है और सांईं के देवता संबंधी, मंदिर प्रमाण की मैं मांग कर रहा हूँ। मैं धर्म से संबंधित शास्त्रविरुद्ध विषयों-व्यवहारों को शास्त्रविरुद्ध कहने का शास्त्रोक्त अधिकार रखता हूँ, और प्रमाण मांगने का भी अधिकार रखता हूँ और वो इसलिये क्योंकि मैं ब्राह्मण हूँ और यह अधिकार मेरा शास्त्र मुझे देता है।
इस विषय के स्पष्टीकरण की आवश्यकता इस कारण से है कि कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जिन्हें लगे कि उनकी धार्मिक आस्था पर प्रहार किया जा रहा है और पुलिस/न्यायालय तक भी चले जायें। यदि ऐसा होता है तो पुलिस/न्यायालय को भी चाहिये कि उक्त विषय का प्रमाण लेकर ही प्रक्रिया को आगे बढ़ायें। यदि साईं के देवता होने अथवा अवतार होने का शास्त्रोक्त प्रमाण प्रस्तुत किया जाय तो यह आस्था का प्रश्न सिद्ध हो सकता है और यदि शास्त्रोक्त प्रमाण प्रस्तुत न हो तो यह अंधविश्वास है एवं शास्त्रों के अनुसार ही अंधविश्वास है एवं अंधविश्वास पर प्रहार करने को आस्था पर प्रहार करना सिद्ध नहीं किया जा सकता।
सोचिये देश और संस्कृति के विरुद्ध बोलने वाले निर्भय होकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग करते हैं, रात-दिन झूठ और बस झूठ का आडम्बर रचते हैं, देश और संस्कृति का अपमान करते फिरते हैं, रामायण-मनुस्मृति आदि पर विवाद करते हैं। किन्तु शास्त्रोक्त चर्चा करने में हमें भयभीत कर रखे हैं। हम अपने देश में अपने शास्त्रों की बात भी निर्भय होकर क्यों नहीं कर सकते ?
इसी प्रकार से कब्र और मजारों पर भी जो (हिन्दू) माथा टेकने जाते हैं, चादर चढाने जाते हैं यह किस प्रमाण से किया जा रहा है? यदि प्रमाण नहीं है तो क्यों कर रहे हैं ? बिना शास्त्रोक्त प्रमाण के अथवा शास्त्रनिषिद्ध होने पर भी ऐसा करते हैं तो इसके पीछे कोई तो है जो करा रहा है। जो ऐसा करा रहा है वही तो मदारी है और हम सामान्य जनता बंदर की तरह उसके इशारे पर नाच रहे हैं।
कब्र और मजारों पर हिंदुओं का माथा टेकना, चादर चढ़ाना, चढ़ावा देना आदि भी अंधविश्वास ही है। अंधविश्वास क्या है इसकी चर्चा पूर्व ही की जा चुकी है और संबंधित आलेख व विडियो का लिंक ऊपर दिया जा चुका है। ऐसा दुबारा इसलिये बताया जा रहा है कि जो मदारी है वह इसे आस्था का विषय सिद्ध करने का प्रयास करेगा किन्तु आस्था का आधार तो शास्त्र ही है न ? जो विधि-व्यवहार शास्त्र से सिद्ध नहीं होता वह आस्था कैसे हो सकती है, वह तो अंधविश्वास होता है।
इस मदारी के विषय में हम तो मात्र थोड़ा सा अनुमान लगा रहे हैं, समझने का प्रयास कर रहे हैं अरे ये मदारी कितना बड़ा है इसके दो-चार कारनामे जान लें तो समझ में यह भी आएगा की सरकारें भी इससे डरती हैं, डरती मात्र ही नहीं हैं पलट भी जाती है और कुछ देशों में ऐसा हुआ है जिसका दो उदाहरण तो भारत का पड़ोसी पाकिस्तान व बांग्लादेश है।
एक सरल उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं :
- पहले तो ऐसा कुछ खिलाओ, शैम्पू-साबुन लगवाओ जिससे बाल असमय श्वेत हो जाये अर्थात पक जाये।
- फिर श्वेत बालों को रंगने का रंग दो जो कुछ वर्षों में कोई दुष्परिणाम भी लेकर आ जाये।
- फिर जांच व दवाओं की अंतहीन शृंखला में जोड़ लो।
- अब तो बालों का पकना भी आवश्यक नहीं है बिना पके भी रंगने को प्रेरित किया जा रहा है।
ये सबसे छोटा और सरल उदाहरण है जो सामान्य-से-सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता है। ५ दशक पहले तो असमय बाल नहीं पकते थे कुछ अपवादों के अतिरिक्त और आज सबके पक जाते हैं कुछ अपवादों के अतिरिक्त। क्यों ?
तनिक सोचिये तो सही और सामान्य लोगों की अपेक्षा तो यह सरकारों के लिये सोचने-विचारने का गंभीर विषय है। किन्तु सरकारें नहीं सोचेंगी क्योंकि सरकारों की GDP आड़े आ जायेगी। सोचना सामान्य जनों को ही होगा, जागरूक सामान्य जनों को ही होना होगा, इस विषय में सरकारों से कोई भी अपेक्षा करना मूर्खता के अतिरिक्त कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता है। अरे सरकारें तो इसलिये ही मदिरालय चलवाती हैं ताकि राजस्व की प्राप्ति हो; GDP बढे।
वर्त्तमान में कालचक्र से देश की सरकार उस मदारी की इच्छा के विरुद्ध बन गयी है किन्तु GDP की इतनी अधिक चिंतन करने वाली है कि इस विषय को गंभीरता से वह भी नहीं ले सकती है और ऐसी आशा-अपेक्षा तो कदापि नहीं है, कदाचित करने लगे तो चकित करने वाला होगा। एक और उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं कि हम जो व्यवहार कर रहे हैं वो हमारी न होकर उस मदारी की इच्छानुकूल होती है :
कुम्भ अथवा महाकुम्भ 2025
कुछ कुम्भ जाने वाले १५ – २० किलोमीटर चलने का रोना रोते दिखे, ये १५ – २० न हो १५० – २०० किलोमीटर हो अथवा और भी अधिक हो तब विचार करते हैं :
- शास्त्रों के अनुसार तीर्थयात्रा पैदल ही करनी चाहिये।
- पैदल ही नहीं नंगे पांव करनी चाहिये।
क्या आपने एक बार भी ऐसा सोचा है ? क्या ऐसा किसी ने कहा है ? १५ किलोमीटर पैदल चलना होगा ये रोना ही तो मीडिया वाले रोते दिखे हैं और भ्रमित होकर कुछ श्रद्धालुओं को भी समस्या हो गयी। श्रद्धालु के लिये यह कोई विषय नहीं था, कोई समस्या नहीं थी, अपितु लाभकारी ही था पुण्यप्रद था, क्योंकि १५ किलोमीटर ही सही शास्त्रानुसार तीर्थयात्रा का पुण्य तो प्राप्त हो रहा है।
कुम्भ स्नान करने वालों को इससे समस्या हुयी हो अथवा नहीं हुयी हो किन्तु प्रश्न यह है वो कौन है जो श्रद्धालुओं के मन में १५ किलोमीटर चलने को लेकर विरोध उत्पन्न करना चाहता है, किन्तु यह नहीं बताता कि चलो ही नहीं, शास्त्रों के अनुसार बिना जूते-चप्पल के चलो।
क्या आप भी जूते-चप्पल पहनकर चले थे ? यदि हाँ तो आप नहीं चले थे, आपको जूते-चप्पल पहनाकर चलाने वाला कोई और था। चलाने वाला कोई और था ये कथन जब आध्यात्मिक विचार करेंगे तब अन्य प्रकार से होगा क्योंकि यहीं पर एक प्रश्न यह भी आएगा कि चलो जूता-चप्पल पहनकर चले थे, शास्त्रविरुद्ध क्रिया होने से दोष था किन्तु चलाने वाला कोई और था तो हम दोषी भी नहीं होंगे। किन्तु यह विचार भिन्न प्रकार से किया जायेगा, दोषी वह नहीं है जिसने चलवाया है, हम इस कारण चले हैं क्योंकि हमने शास्त्रोक्त विधि को जानने का प्रयास नहीं किया।
और चर्चा के माध्यम से हम यही समझने-समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि हमें करना क्या है यह हम स्वयं क्यों नहीं सोच रहे हैं, किसी मदारी के अनुसार क्यों करते जा रहे हैं ? नहीं समझ रहे हैं न, सरलता से इस प्रकार समझिये :
- हम धर्माचरण भी करने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु शास्त्रविरुद्ध भी कर रहे हैं अर्थात अधर्म भी कर रहे हैं, क्यों ?
- जब हम तीर्थ जा ही रहे हैं तो किसने हमें भ्रमित कर दिया है कि शास्त्रविरुद्ध होते हुये भी जूते-चप्पल पहनकर जा रहे हैं?
- तीर्थयात्रा पैदल ही करनी चाहिये और हम चाहते हैं कि हमारी गाड़ी घाट तक पहुंचे, न्यूनतम पैदल चलना पड़े ! किन्तु ऐसा चाहते क्यों हैं और यदि ऐसा ही चाहते हैं तो तीर्थ जाते क्यों हैं ? क्या इसलिये कि देश का GDP बढ़ेगा ?
- मंदिरों में जब चप्पल-जूते पहनकर जाना ही नहीं चाहिये तो चप्पल-जूता स्टैंड किसलिये बनाया जा रहा है ?
- यह जानते हुये भी कि पूजा आदि धार्मिक कृत्यों में वस्तुओं की शुद्धता व पवित्रता का विशेष ध्यान रखना चाहिये म्लेच्छादिकों द्वारा निर्मित वस्तुओं का प्रयोग क्यों कर रहे हैं ?
- कोई तो है जिसने हमें आधुनिकता, वैज्ञानिकता और न जाने क्या-क्या पाठ पढ़ाकर ऐसा बना दिया है कि धर्मकृत्य करते हुये भी शास्त्रविरुद्ध करने लगे हैं।
हमारे धार्मिक कृत्यों को भी देश के GDP से किसने और क्यों जोड़ रखा है ? विचार कीजिये, हम पूजा-पाठ-हवन आदि कोई भी धर्मकृत्य आत्मकल्याण के लिये करते हैं न कि देश का GDP बढ़ाने के उद्देश्य से करते हैं। सरकार हमारे धर्मकृत्यों द्वारा प्राप्त धन से धर्म तो नहीं करती है क्योंकि वह सेकुलर है, हमारे धर्माचरण से यदि सरकार धनार्जन करती है तो सरकार को वह धन पृथक रखते हुये उससे यज्ञादि ही करना चाहिये न।
वह कौन है जो सामान्य जनता को तो छोड़िये सरकारों को भी बंदर की भांति नचा रहा है। और जो सरकारों को भी बंदर की भांति नचा रहा है वह मदारी कोई सामान्य मदारी तो नहीं हो सकता, बहुत ही शक्तिशाली और सामर्थ्यवान है।
- सोचिये ऐसा कौन है जो कैंडल जलाने को सांप्रदायिक नहीं मानता किन्तु दीपक जलाने को, ॐ-स्वास्तिक आदि को सांप्रदायिक कहता है।
- वह कौन है जिसने हमें विदेशी भाषा अंग्रेजी से बांध रखा है, हमें अंग्रेजी से कोई विरोध नहीं है किन्तु देशी भाषा के नाम पर लड़ाता है।
- १ जनवरी को नववर्ष मनाना सांप्रदायिक नहीं होता किन्तु यदि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नववर्ष मनायें तो सांप्रदायिक हो जायेगा।
- क्रिसमस मनाना सांप्रदायिक नहीं है किन्तु शोभायात्रा सांप्रदायिक हो जाता है, यह कौन करवा रहा है ?
- नेताओं का इफ्तार पार्टी देना सांप्रदायिक नहीं था, किन्तु गंगा में डुबकी लगाना सांप्रदायिक हो जाता है, ऐसा कौन बता रहा है ?
- वेलेंटाइन डे मनाना, अमर्यादित हो जाने में न तो साम्प्रदायिकता है और न ही पाप, किन्तु यज्ञोपवीत, शिखा, तिलक आदि सांप्रदायिक हो जाता है, यह कौन करा रहा है ?
- वह कौन है जो छात्रों को ब्रह्मचारी न बनाकर स्वेच्छाचारी बना रहा है ?
कुछ अपवादों को छोड़कर सभी आतंकवादी विशेष संप्रदाय के ही होते हैं और इसे प्रमाणित करता है आतंकवादी की अंतिम क्रिया। अपवादों के अतिरिक्त किसी विशेष संप्रदाय के शत-प्रतिशत आतंकवादी होते हुये भी भगवा आतंकवाद हो सकता है, उस संप्रदाय का नहीं हो सकता। सोचिये सरकारों को भी ऐसा कहने के लिये कौन विवश कर रहा है ?

यदि इस मदारी के मन में जो भाव होता है उसे शब्दों में गुनगुनाना चाहें तो इस प्रकार प्रकट होंगे :
लोगों ! सरकारों ! ये कान खोलके सुनो
कहता हूँ जो जो वही तुम करोगे
चलती हमारी है बस तुम पिसोगे
यद्यपि यह चर्चा शेष है किन्तु इस आलेख को यहीं विराम दिया जाता है। इसे बड़ा मदारी कहने से थोड़ी त्रुटि हो रही है यह एक बड़ा वैश्विक दानव है और इसके विरुद्ध लड़ना होगा।
निष्कर्ष : सामान्य जनों को तो छोड़िये सरकारें भी किसी बड़े मदारी के इशारे से नाचती हुई लगती है। सरकारें भी देश और संस्कृति से जुड़े सकारात्मक प्रयास निर्विरोध नहीं कर पाती हैं उन्हें भी योगदान करने के लिये GDP का आश्रय लेना पड़ता है। फिर सामान्य लोगों की तो चर्चा ही क्या करें। सामान्य जनों को क्या खाना है, क्या पहनना है, कहां घूमना है और यहां तक कि क्या देखना-सुनना है यह भी कोई और निर्धारित करता है। हमें अंतर्जाल, सोशल मीडिया, मेन स्ट्रीम मीडिया पर भी वही देखने-सुनने को मिलता है जो वह मदारी दिखाना चाहता है।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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