आचमन के विषय में सभी आस्थावान इतना तो अवश्य जानते हैं कि पूजा-पाठ आदि धार्मिक कृत्यों के काल में एक विशेष प्रक्रिया और मंत्रोच्चार पूर्वक जल पीने का नाम ही आचमन है। किन्तु यदि आप कर्मकांड सीखना चाहते हैं तो आपके लिये आचमन को गंभीरता से जानना और समझना आवश्यक हो जाता है। सामान्यतः एकत्रित रूप से इस प्रकार के लेखों का अभाव होता है अतः यह लेख आचमन संबंधी ज्ञान हेतु विशेष महत्वपूर्ण है क्योंकि इस आलेख में अनेकानेक प्रमाणों के आधार पर आचमन के विषय में विस्तृत चर्चा की गयी है।
आचमन – achaman
शुद्धिकरण हेतु जल पीने का नाम आचमन है, आचमन के विषय में इतना मात्र जानना अपर्याप्त है। आचमन करने-कराने से पूर्व आचमन के विषय में ढेरों बातें हैं जो जानना भी आवश्यक है और यजमान को भी समझाना आवश्यक है जिससे भली-भांति आचमन किया जा सके और शुद्धिकरण हो पाये। यदि आचमन के बारे में जानकारी नहीं होगी तो “येन-केन-प्रकारेण” आचमन किया जायेगा जिससे शुद्धि की प्राप्ति नहीं होगी अर्थात अशुद्धि की अवस्था का निवारण नहीं होगा और यदि शुद्धि न हो पायी तो आचमन का प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा।
आचमन का अर्थ – achaman meaning
यः कर्म कुरुते मोहादनाचम्यैव नास्तिकः। भवन्तिहि वृथा तस्य क्रियाः सर्वा न संशयः ॥ – मदनपारिजात
यद्यपि पवित्रता और शुद्धता को समानार्थी ही समझा जाता है तथापि दोनों में भेद है, शुद्धता को नेत्रों (इन्द्रियों) द्वारा देख जा सकता है, किन्तु पवित्रता (दिव्यता) का ज्ञान इंद्रियों द्वारा प्राप्त नहीं होता अर्थात उसे देखा नहीं जा सकता।
कोई स्थान-व्यक्ति-वस्तु शुद्ध (स्वच्छ) है अथवा नहीं यह देखकर जाना जा सकता है, किन्तु पवित्र है अथवा नहीं यह ज्ञान देखने से प्राप्त नहीं होता। पवित्रता का तात्पर्य दिव्यता भी लिया जा सकता है, पवित्रता में मंत्र-विधि आदि का विशेष महत्व होता है।
आचमन का तात्पर्य जल पीना नहीं होता है, आचमन का तात्पर्य पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर, बैठकर, हाथों को घुटने के भीतर रखते हुये और भी अन्य विशेष विधिों का प्रयोग करते हुये जल का प्राशन करना होता है। मंत्र सर्वदा अनिवार्य नहीं होते हैं, अनेकों स्थितियों में (शुद्ध आचमन) अमंत्रक आचमन का ही विधान है। स्नान से तो शरीर की बाह्य शुद्धि होती है किन्तु आतंरिक पवित्रता आचमन से होती है।
वैसे एक विषय जिह्वा की शुद्धि का भी आता है, उच्छिष्ट जिह्वा ही होती है एवं किसी भी मंत्र का उच्चारण जिह्वा ही करती है, फिर उच्छिष्ट जिह्वा द्वारा उच्चारित मंत्र से पूजा कैसे की जा सकती है। इसका उत्तर यही दिया गया है कि आचमन करने से जिह्वा की शुद्धि हो जाती है।
प्रश्न : पुष्पं तु भ्रमरोच्छिष्टं मत्सोच्छिष्टं तु तज्जलम् । जिह्वोच्छिष्टं तु तन्मन्त्रं कथं पूजा विधीयते ॥
उत्तर : पुष्पं तु प्रोक्षणाच्छुद्धिः जलमुत्पवनं तथा । जिह्वादाचमनं शुद्धिः एवं पूजा विधीयते ॥
आचमन के संबंध में विशेष गंभीर चर्चा/विश्लेषण करने से पूर्व शास्त्रोक्त प्रमाणों का अवलोकन अनिवार्य है अतः आगे प्रथमतया शास्त्रों के प्रमाणों का अवलोकन करेंगे तत्पश्चात आचमन संबंधी महत्वपूर्ण विश्लेषण। यदि आप कर्मकांड सीखना चाहते हैं तो मात्र यही आलेख नहीं; कर्मकांड सीखें के सभी आलेख महत्वपूर्ण हैं एवं यदि पूर्व आलेखों का अवलोकन नहीं कर पाये हैं तो उनका अवलोकन भी अवश्य करें। कर्मकांड सीखें के सभी आलेखों का सम्यक अध्ययन करने से कर्मकांड का गंभीर व गूढ़ ज्ञान प्राप्त होता है।
आचमन हेतु शास्त्रों के प्रमाण
आयतं पर्वणां कृत्वा गोकर्णाकृतिवत् करं । संहताङ्गुलिना तोयं गृहीत्वा पाणिना द्विजः ॥
मुक्ताङ्गुष्ठकनिष्ठाभ्यां शेषेणाचमनं चरेत् । मासमज्जनमात्रास्तु संगृह्य त्रिः पिबेदपः ॥ – भारद्वाज
अन्तर्जानुः शुचौ देश उपविष्ट उदङ्मुखः । प्राग्वा ब्राह्मेण तीर्थेन द्विजो नित्यमुपस्पृशेत् ॥
घुटनों को भीतर (हाथों को) करके पवित्र स्थान पर उत्तराभिमुख वा पूर्वाभिमुख बैठकर ब्राह्मतीर्थ (अंगुष्ठ के नीचले मूल भाग) से द्विज नित्य आचमन करे ।
गोकर्णाकृतिहस्तेन माषमग्नं जलं पिबेत् । तन्न्यूनमधिकं पीत्वा सुरापानसमं भवेत् ॥
गाय के कान की सी आकृति वाले हाथ से माष-मज्जन (जितने जल में माष डूब जाये) परिमाण वाले जल का पान करे। उससे कम या अधिक पीकर सुरापान के समान फल करने वाला हो जाता है।
संहताङ्गुलिना तोयं गृहीत्वा पाणिना द्विजः । मुक्ताङ्गुष्ठकनिष्ठेनः शिष्टेनाचमनं भवेत् ॥
जुड़ी हुई अंगुली वाले हाथ से जल ग्रहण कर तत्पश्चात अंगुष्ठ व कनिष्ठिका को पृथक कर शेष से द्विज आचमन करे।
उपविश्य शुचौ देशे प्राङ्मुखो ब्रह्मसूत्रधृक् । बद्धचूड: कुशकरो द्विजः शुचिरुपस्पृशेत् ॥
पवित्र स्थान पर बैठकर, पूर्व की ओर मुख करके, यज्ञोपवीत धारण करके, शिखा बांध कर, हाथ में कुश लेकर द्विज आचमन करे ।
अप्सु प्राप्तासु हृदयं ब्राह्मणः शुचितामियात् । राजन्य: कण्ठं तालुं तु वैश्यः शूद्रस्तथा स्त्रियः ॥
(आचमन में) मुख द्वारा पान किये जल के हृदय तक पहुंचने पर ही ब्राह्मण शुचिता को प्राप्त होता है; राजन्य (क्षत्रिय) कण्ठ तक तथा वैश्य, शूद्र एवं स्त्रियां तालु तक (जल पहुंचने पर )।
प्राङ्मुखोदड्मुखो भूत्वा समाचम्य विशुध्यति । पश्चिमे पुनराचम्य याम्यां स्नानेन शुध्यति ॥
पूर्व की ओर मुख करके तथा उत्तर की ओर मुख करके सम्यक् प्रकार से आचमन कर (व्यक्ति) पवित्र हो जाता है। (यदि ) पश्चिम की ओर मुख करके आचमन करता है तो दुबारा आचमन करके पवित्र होता है । ( किन्तु ) दक्षिण दिशा की ओर मुख करके आचमन करता है, तो पुनः स्नान करने से ही शुद्ध होता है ।
आर्द्रवासा जले कुर्यात्तर्पणाचमनं जपम् । शुष्कवासा: स्थले कुर्यात्तर्पणाचमनं जपम् ॥
जल में गीला कपड़ा धारण किये ही तर्पण, आचमन तथा जप करे । ( किन्तु ) स्थल पर सूखा कपड़ा धारण करके ही तर्पण, आचमन तथा जप करे।
आम्रेक्षुखण्डताम्बूलचर्वणे सोमपानके ।
विष्ण्वलितोयपाने च नाद्यन्ताचमनं स्मृतम् ॥
आम, गन्ने का टुकड़ा तथा ताम्बूल चबाने में, सोमपान में, विष्णु के चरणामृतपान में न तो आदि में और न ही अन्त में आचमन कहा गया है।
विष्णुपादोद्भवं तीर्थं पीत्वा न क्षालयेत्करम् ।
क्षालयेद्यदि मोहेन पञ्चपातकमाप्नुयात् ॥
विष्णु के चरणामृत तीर्थ (जल) को पीकर हाथ नहीं धोना चाहिए। यदि मोहवश हाथ धोता है तो वह पांच प्रकार के पातकों को प्राप्त होवे ।
प्राजापत्येन तीर्थेन त्रिः प्राश्नीयाज्जलं द्विजः । द्विः प्रसृज्य मुखं पश्चात्स्वान्यद्भिः समुपस्पृशेत् ॥
हृद्वाभिः पूयते विप्रः कण्ठगाभिस्तु भूमिपः । तालुगाभिस्तथा वैश्यः शूद्रः स्पृष्टाभिरन्ततः ॥
त्रिः प्राश्नीयाद्यदम्भस्तु प्रीतास्तेनास्य देवताः॥ – शङ्ख
पूजा आदि आरम्भ करने से पूर्व पवित्रता हेतु आचमन करना चाहिये। द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) प्रजापति/ब्राह्मतीर्थ से तीन बार प्रासन (आचमन) करे, दो बार मुख का (अंगुष्ठमूल से) मार्जन करे, तत्पश्चात अन्य जल स्पर्श करे अर्थात हाथ धोये। ब्राह्मण के आचमन का जल हृदय तक जाना चाहिये, क्षत्रिय के कण्ठ तक वैश्य के तालु तक और शूद्र जल का स्पर्शमात्र करे। तीन बार जल का प्राशन करने से देवताओं की प्रीति (प्रसन्नता) होती है।
त्रिराचामेदपः पूर्वं द्विः प्रमृज्यात्ततोमुखम्। खानि चोपस्पृशेदद्भिरात्मानं शिर एव च ॥ – गौतम
प्राङ्मुख उदङ्मुखो वा द्वौ पाणी प्रक्षाल्य बद्धशिखो यज्ञोपवीती जले वाथ स्थले वान्तर्जानु नविवराङ्गुलीभिः गोकर्णाकृतिवत् करं कृत्वा तिष्ठन् न प्रणतो न हसन्न जल्पन् न व्रजन् नोष्णाभिर्न विवर्णाभिर्न बुद्बुदाभिः न चलो जलं माषमग्नमात्रं पिबेत् । ब्राह्मणस्य दक्षिणे हस्ते पञ्च तीर्थानि पञ्च दैवतानि भवन्ति । अङ्गुलीमध्ये दैवं तीर्थं अङ्गुल्यग्रे आर्षं तीर्थम् अङ्गुष्ठतर्जन्योर्मध्ये पैतृकं तीर्थम् अङ्गुष्ठमूलस्योत्तरतो रेखासु ब्राह्मं तीर्थम् मध्ये अग्नितीर्थम् । अङ्गुष्ठे अग्निः प्रदेशिन्यां वायुः मध्ये प्रजापतिः अनामिकायां ब्रह्मा कनिष्ठिकायामिन्द्रः ॥
अथ त्रिराचामेत् प्रणवेन । प्रथमं यत् पिबति तेन ऋग्वेदं प्रीणाति । द्वितीयं यत् पिबति तेन यजुर्वेदं प्रीणाति । तृतीयं यत् पिबति तेन सामवेदं प्रीणाति । प्रथमं यत् परिमृजति तेनाथर्ववेदं प्रीणाति । द्वितीयं यत् परिमृजति तेन इतिहासं प्रीणाति ॥
यद् उपस्पृशति तेनाग्निं यत् पादावभ्युक्षते तेन विष्णुं सह्यं पितॄन् चिरस्या ऋषीन् तेन चन्द्रादित्यौ यन्नासिके तेन प्राणापानौ यच्छ्रोत्रं तेन दिशो यद्बाहू तेन इन्द्रं यन्नाभिं तेन पृथिवीं यद् हृदयं तेन रुद्रं यच्छिरस्तेन सप्तर्षीन् प्रीणाति । अङ्गुष्ठानामिकाभ्यां तु चक्षुषी समुपस्पृशेत् प्रदेशिन्यङ्गुष्ठाभ्यां तु नासिके अङ्गुष्ठकनिष्ठिकाभ्यां श्रोत्रे मध्यमाङ्गुष्ठाभ्यां बाह्वोः अङ्गुष्ठेन नाभौ अङ्गुल्यग्रेण हृदि सर्वेषामङ्गुलीतलानां तु शिरसि इति सर्वान् कामान् समर्धयन्तु इति ॥
जब कभी भी आचमन करना हो तो आचमन संख्या का विशेष रूप से ध्यान रखे।
तर्ज्जन्यङ्गुष्ठयोगेन स्पृशेत् स्कन्धद्वयन्ततः। अङ्गुष्ठस्यानामिकाया योगेन श्रवणे स्पृशेत्॥
कनिष्ठाङ्गुष्ठयोगेन स्पृशेत् स्कन्धद्वयं ततः। नाभिञ्चहृदयं तद्वत् स्पृशेत् पाणितलेन तु॥
संस्पृशेच्च तथा शीर्षं॥ – शङ्ख
द्विराचमन
- स्नात्वा पीत्वा क्षुते सुप्ते भुक्त्वा रथ्योपसर्पणे । आचान्तः पुनराचामेद्वासो विपरिधाय च ॥ – बौधायन
- उष्ट्रवायससंस्पर्शे दर्शने चान्त्यवासिनां” ॥ – हारीत
- सुप्त्वा, भुक्त्वा, क्षुत्त्वा, स्नात्वा, पीत्वा विपरिधायच, रथ्यामाक्रम्य, श्मशानञ्चान्ततः पुनराचामेत् ॥ – गोभिल गृह्यसूत्र
- होमे भोजनकाले च सन्ध्ययोरुभयोरपि । आचान्तः पुनराचामेद्वासोविपरिधाय च ॥ – स्मृति
- होमे भोजनकाले च सन्ध्ययोरुभयोरपि । आचान्तः पुनराचामेदन्यत्रापि सकृत् सकृत् ॥ – अङ्गिरा
- प्रत्ङ्मुखश्चेदाचामेत्पुनराचम्य शुध्यति । दक्षिणाभिमुखस्तद्वत्पुनः स्नानेन शुध्यति ॥ स्नानखादनपानेषु सकृदादौ द्विरन्ततः । जपे चाध्ययनारम्भे द्विरादौ सकृदन्ततः ॥ दाने प्रतिग्रहे होमे सन्ध्यात्रितयवन्दने । बलिकर्मणि चाचामेद्विरादौ सकृदन्ततः ॥ – संग्रहकार
निष्ठीवने तथाभ्यङ्गे तथा पादावसेचने । उच्छिष्टस्य च सम्भाषादशुच्युपहतस्य च ॥
सन्देहेषु च सर्व्वेषु शिखां बद्ध्वा तथैव च । विना यज्ञोपवीतेन नित्यमेवमुपस्पृशेत् ॥
विकल्प
कुर्य्यादाचमनं स्पर्शं गोपृष्ठस्यार्कदर्शनम्। कुर्व्वीतालभनञ्चापि दक्षिणश्रवणस्य च॥
यथाविभवतोह्येतत् पूर्व्वाभावे ततः परम्। न पूर्वस्मिन्विद्यमाने उत्तरप्राप्तिरिष्यते॥ – वायुपुराण
श्रवण स्पर्श
प्रभासादीनि तीर्थानि गङ्गाद्याः सरितस्तथा । विप्रस्य दक्षिणे कर्णे सन्तीति मनुरब्रवीत् ॥
प्रभास आदि तीर्थ, गंगा आदि नदियां (ये सब) ब्राह्मण के दक्षिण कान में (स्थित) हैं, ऐसा मनु ने कहा है ।
- आदित्यावसवोरुद्रा वायुरग्निश्च धर्म्मराट्। विप्रस्यदक्षिणे कर्णे नित्यं तिष्ठन्ति देवताः॥ – पराशर
- क्षुते निष्ठीवने सुप्ते परिधानेऽश्रुपातने । कर्म्मस्थ एषु नाचामेद्दक्षिणं श्रवणं स्पृशेत् ॥ – वृद्धशातातप/साङ्ख्यायन
- वातकर्म्मणि निष्ठीवे दन्तश्लिष्टे तथानृते । क्षुते पतितसंलापे दक्षिणश्रवणं स्पृशेत् ॥ – मार्कण्डेयपुराण
पित्रमन्त्रोच्चरे रौद्रे आमालम्भेऽधमेक्षणे। अधोवायुसमुत्सर्गे आक्रन्दे क्रोधसम्भवे॥
मार्जारमूषिकस्पर्शेप्रवासिऽनृतभाषणे। निमित्तेषु च सर्वेषु दक्षिणं श्रवणंस्पृशेत् ॥
आचमन में कुशाप्रयोग
कुशहस्तः पिबेत्तोयं कुशहस्तः सदाऽऽचमेत् । सग्रन्थिकुशहस्तस्तु न कदाचिदुपस्पृशेत् ॥
हाथ में कुश धारण कर जल पीये, हाथ में कुश रखकर सदा आचमन करे। किन्तु गांठयुक्त कुश धारण किये हाथ से कभी आचमन न करे ।
सपवित्रेण हस्तेन कुर्यादाचमनक्रियाम्। नोच्छिष्टं तत्पवित्रं तु भुक्तोच्छिष्टं तु वर्जयेत् ॥ – मार्कण्डेय
(कुशनिर्मित) पवित्री धारण किये हाथ से ही आचमन करे । आचमन करने से पवित्री जूठा नहीं होती। किन्तु भोजन करने से वह जूठा हो जाती है, इसलिए भोजन के समय उसे अलग रखे ।
- वामहस्ते कुशान्कृत्वा समाचामति यो द्विजः। उपस्पर्शो भवेत्तेन रुधिरेण मलेन च ॥ – गोभिल
- उभयत्र स्थितैर्दर्भैः समाचामतियोद्विजः। सोमपानफलं तस्य भुक्त्वा यज्ञफलं भवेत् ॥ – हारीत
स्त्री शूद्रों हेतु जलस्पर्श
- हृद्गाभिः पूयते विप्रः कण्ठगाभिश्च भूमिपः । वश्योऽद्भिः प्राशिताभिश्च शूद्रः स्पृष्टाभिरन्ततः ॥ – मनु
- स्तियास्त्रैदशिकं तीर्थं शूद्रजातेस्तथैव च । सकृदाचमनाच्छुद्धिरेतयोरेव चोभयोः ॥ – मिताक्षरा
- शुध्येरन् स्त्री च शूद्रश्च सकृत्स्पृष्टाभिरन्ततः ॥ – याज्ञवल्क्य
आचमन विधि अर्थात आचमन करने की विधि
आगे आचमन संबंधी प्रमुख तथ्यों का जो कि विशेष महत्वपूर्ण है हिन्दी में विश्लेषण किया गया है। सबके प्रमाण ऊपर दिये जा चुके हैं अतः प्रमाण वचनों की पुनरावृत्ति नहीं की गयी है।
आचमन के प्रकार
षड्विध आचमन : शुद्धं स्मार्त्तं तथा चैव पौराणं वैदिकं तथा। तांत्रिकं श्रौत्रस्मार्त्तं च षड्विधं स्मृतं ॥ – विश्वामित्रकल्प
आचमन के बारे में षड्विध कहा गया है,विश्वामित्र कल्प में आचमन छः प्रकार के बताये गये हैं – शुद्ध, स्मार्त्त, पौराणिक, वैदिक, तांत्रिक तथा श्रौत्रस्मार्त्त। लेकिन इनमें से मुख्य तीन प्रकार ही हैं – श्रौत, स्मार्त, पौराण । मूत्र पुरीषोत्सर्गादि के उपरांत जो आचमन किया जाता है वह “शुद्ध” सज्ञक होता है। अस्त्रविद्या, बलि आदि में तांत्रिक आचमन किया जाता है।
आचमनं त्रिविधम् – श्रौतं स्मार्तं पौराणं सेति, तत्र प्रत्यक्षश्रुतिकोडितं श्रौतम्, सूत्रोक्तं स्मार्तं केशवाद्यैस्त्रिभिः पीतवेति वचनोक्तं पौराणम्।
आचमन करने की दिशा व स्थिति
आचमन करने के लिये पूर्व या उत्तर दिशा का ही निर्देश प्राप्त होता है। पश्चिम और दक्षिण का निषेधवचन भी है। यदि पश्चिमाभिमुख आचमन करे तो पुनः पूर्व-उत्तराभिमुख आचमन करने से शुद्धि होती है और यदि दक्षिणाभिमुख आचमन करे तो स्नान करने के पश्चात् शुद्धि होती है।
आचमन बैठकर ही करना चाहिये, हाथ घुटने के भीतर रखे। जल में खड़े होकर ही आचमन करना चाहिये।
गोकर्णाकृति
आचमन हेतु हाथों के गोकर्णाकृति करने का निर्देश प्राप्त होता है। जल ग्रहण काल में (प्रथम बार) सभी अंगुलियां मिली रहनी चाहिये तदुपरांत ग्रहण करते समय कनिष्ठिका व अंगुष्ठ पृथक कर लेना चाहिये। गोकर्णाकृति हेतु अन्य विधि भी प्राप्त होती है।
कुशाधारण
आचमन कुशा (पवित्री) धारण करके ही करना चाहिये। किन्तु एक विशेषता है वाम हस्त में कुशा धारण का निषेध है किन्तु इसमें पुनः विशेषता यह है कि यदि दाहिने हाथ में पवित्री न हो तो वामहस्त का निषेध है। यदि दाहिने हाथ में पवित्री हो तो बांये हाथ में भी धारण किया जा सकता है और इस प्रकार से दोनों हाथ में पवित्री धारण कर आचमन करने से सोमपान का फल प्राप्त होता है ऐसा हारीत का कथन है। कुशाहस्त आचमन करने से भी कुशा उच्छिष्ट नहीं होती है किन्तु भोजन करने से उच्छिष्ट हो जाता है।
इस प्रकार से यह स्पष्ट होता है कि आचमनकाल में यदि दोनों हाथों में पवित्री हो तो उत्तम है, यदि दोनों हाथ में न हो तो कम-से-कम दाहिने हाथ में अवश्य होना चाहिये। बिना पवित्री के आचमन नहीं करना चाहिये।
जल प्रमाण
आचमन करने के लिये जल की मात्रा का भी विशेष प्रमाण है :
- प्रथम नियमानुसार जल की मात्रा माषमात्र है, माषमात्र का तात्पर्य जितने जल में माष (उड़द) डूब जाये उतना बताया जाता है। इससे न तो अधिक जल हो न ही कम हो।
- द्वितीय नियमानुसार जल की मात्रा विभिन्न वर्णों के लिये भिन्न-भिन्न होती है : ब्राह्मण के हृदय तक पहुंचे, क्षत्रिय के लिये कंठ तक पहुंचे और वैश्य के लिये तालु तक ही रहे इतना जल ही ग्रहण करना चाहिये।
- स्त्री व शूद्रों के लिये जलस्पर्श मात्र का विधान बताया गया है। उष्णादि जल से आचमन नहीं करना चाहिये।
अद्भिस्तु प्रकृतिस्थाभिर्हीनाभिः फेनबुद्वुदैः । हृत्कण्ठतालुगाभिश्च यथासंख्यं द्विजातयः ॥
आचमन संख्या
आचमन करते समय आचमन की संख्या का भी ध्यान रखना चाहिये। ऐसा नहीं है कि जब भी आचमन करना हो तीन बार ही किया जायेगा। आचमन की संख्या दो और एक भी हो सकती है इसलिये आचमन की संख्या को स्मरण रखना भी आवश्यक हो जाता है, अथवा जहां कहीं भी आचमन बताया गया हो वहां उसकी संख्या का भी निर्धारण देखना चाहिये। यहां एक बात और समझने वाली है कि यह विचार करके उचित संख्या का निर्देश पुरानी पुस्तकों में ही वर्णित मिलती है।
नई पुस्तकों में इसका अभाव भी हो सकता है। अंतर्जाल पर उपलब्ध सामग्रियों की प्रामाणिकता सदा संदेहास्पद ही रहती है। इसलिये यदि प्राचीन पुस्तकों/पद्धतियों का अनुशीलन नहीं किया जा रहा हो तो इस विषय का स्वयं ही निश्चय करना चाहिये।
सामान्य रूप से तीन बार आचमन किया जाता है किन्तु जहां कहीं भी भिन्न संख्या में आचमन करना हो उसके दो बार आचमन और एक बार आचमन का प्राचीन पद्धतियों में वर्णन रहता था किन्तु अब हम प्रमाण के अनुसार उसका निर्णय समझेंगे। एक बार आचमन करने को सकृदाचमन (सकृत्) कहा जाता है और दो बार को द्विराचमन अथवा सकृत्सकृत् भी कहा जाता है। दो बार सकृत्-सकृत् कथन का तात्पर्य भी द्विराचमन ही होता है।
शयन, स्नान, पान (पीना), भोजन, छींकने, रथ (वाहन) से उतरने, उष्ट्र-वायसअन्यज का स्पर्श व दर्शन, वस्त्र धारण, श्मशानगमन आदि करने के उपरांत दो बार आचमन करना चाहिये।
इसके पश्चात कुछ कर्मों के पूर्व और पश्चात् भी आचमन करने का निर्देश है और उसी में एक बार आचमन भी प्राप्त होता है। स्नान, भोजन, पान (पीना) में एक बार (सकृत्) पूर्व और दो बार पश्चात् आचमन करे। जप, अध्ययन में दो बार पूर्व और एक बार (सकृत्) पश्चात् करे। दान, प्रतिग्रह, होम, संध्या, बलि कर्मों में दो बार पूर्व और एक बार (सकृत्) पश्चात् करे। अन्य सभी कर्मान्त में (दक्षिणा के पश्चात्) भी दो आचमन का विधान है।
मुख शोधन/मार्जन/हस्तप्रक्षालन
आचमन करने के पश्चात् मुख शोधन और हस्तप्रक्षालन भी किया जाता है। इसके लिये दो बार का निर्देश प्राप्त होता है एवं अंगुष्ठ के मूल भाग से दो बार ओष्ठ (होंठ) को पोंछना चाहिये तत्पश्चात हस्तप्रक्षालन करना चाहिये। हस्तप्रक्षालन बांयी ओर करे यह अन्य प्रमाण से सिद्ध होता है।
आचमन का विकल्प
आचमन, जल का स्पर्श, गोपृष्ठार्क का दर्शन, दक्षिण कर्ण का स्पर्श क्रमशः उत्तरोत्तर विकल्प का ग्रहण किया जा सकता है। प्रथम के अभाव में ही अगले विकल्प की सिद्धि होती है। अर्थात यदि आचमन करने के लिये पर्याप्त जल न हो तभी स्पर्श मात्र का विकल्प ग्राह्य होगा, यदि स्पर्श मात्र के लिये भी जल न हो तो गोपृष्ठार्क का दर्शन और यदि ये भी न हो तो दक्षिण कर्ण का स्पर्श करना चाहिये।
दक्षिण कर्ण स्पर्श का महत्व
ये तो ज्ञात हो गया है कि दक्षिण कर्ण का स्पर्श करना आचमन का एक विकल्प होता है इससे दक्षिण कर्ण के महत्व की को जानने की जिज्ञासा भी उत्पन्न होती है, एवं कुछ विशेष स्थितियों में दक्षिण कर्ण का स्पर्श ही करना होता है आचमन नहीं। मनु के कथानुसार प्रभासादि सभी तीर्थ और गंगादि सरिता ब्राह्मण के दक्षिण कर्ण में होती है इसलिये दक्षिण कर्ण परमपवित्र होता है और स्पर्श करने पर पवित्रकारक होता है।
इसी विषय को आगे बढ़ाते हुये पराशर का कथन है आदित्य, वसु, रुद्र, वायु, अग्नि, धर्मराज ये सभी देवता विप्र के दक्षिण कर्ण में वसते हैं। इसलिये दक्षिणकर्ण के स्पर्श की विशेष महत्ता होती है।
छींकना, थूकना, सोना, वस्त्रधारण, अश्रुपात, वात संबंधी उपद्रव, असत्यभाषण, पतित से वार्तालाप, पितृमंत्रोच्चार, रौद्र स्मरण, आमान्न स्पर्श, पतितदर्शन, अधोवायु उत्सर्ग, क्रंदन, क्रोध, बिल्ली-चूहा का स्पर्श आदि निमित्त में दक्षिण कर्ण का स्पर्श करे।
स्त्रीशूद्रों के लिये आचमन
विकल्प उपरोक्त आचमन विधान द्विजों के लिये है, स्त्री-शूद्र वा अनुपनीतों के लिये आचमन के स्थान पर जलस्पर्श मात्र कहा गया है। तथापि याज्ञवल्क्य ने सकृत् और स्पर्श दोनों कहा है और मिताक्षरा में इसी का समर्थन किया गया है। सकृत् और स्पर्श दोनों कथन का तात्पर्य है कि एक बार आचमन करे तत्पश्चात जलस्पर्श करे। अन्य सभी प्रमाणों में जलस्पर्श ही कहा गया है आचमन का विधान द्विजमात्र के लिये बताया गया है।
आचमन के संबंध में एक विषय जानने की उत्सुकता हो सकती है : “आचमन के मंत्र” के अनुसरण पथ यहां समाहित है जो सहयोगी वेबसाइट “मंत्र प्रयोग” पर प्रकाशित किया गया है।
सारांश : पवित्रीकरण का मुख्य तात्पर्य ही आचमन है और अनेकानेक स्थिति में आचमन का विधान मिलता है। व्यवहार में भले ही पूजा-पाठ आदि के आरंभ में मात्र आचमन किया जाता है किन्तु पूजा-पाठ करते हुये भी अनेकानेक बार आचमन की आवश्यकता हो सकती है जो आलेख में स्पष्ट होता है। अनेकानेक आचमन की आवश्यकता होने पर आचमन के विकल्प भी बताये गये हैं। कुल मिलाकर कर्मकांड में आचमन एक महत्वपूर्ण विषय है जिसका कर्मकांडी ही नहीं सामान्य जनों को भी ज्ञान होना चाहिये। आचमन संबंधी जानकारी देने हेतु यह महत्वपूर्ण आलेख है।
विनम्र आग्रह : त्रुटियों को कदापि नहीं नकारा जा सकता है अतः किसी भी प्रकार की त्रुटि यदि दृष्टिगत हो तो कृपया सूचित करने की कृपा करें : info@karmkandvidhi.in
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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