शास्त्रों में अस्पृश्यता और वैधानिक समाधान से अस्पृश्यता का अंत – asprishyata kya hai

शास्त्रों में अस्पृश्यता और वैधानिक समाधान से अस्पृश्यता का अंत - asprishyata kya hai

संसार में सदैव से ही दोनों दृष्टिकोण रहा है एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण और दूसरा सांसारिक दृष्टिकोण इस कारण से यह नहीं कहा जा सकता कि ये वर्तमान युग की व्यवस्था है किन्तु ये सत्य है कि वर्तमान युग में सभी सांसारिक चक्षु से ही देखना चाहते हैं और आध्यात्मिक चक्षु के उन्मीलन करने का भी प्रयास नहीं करते। यही कारण है कि आध्यात्मिक दृष्टि से देखने वालों को ये सांसारिक दृष्टिकोण वाले सर्वथा तिरष्कार करते हैं। अनेकों विषय में से एक विषय है अस्पृश्यता जिसकी इस आलेख में चर्चा की गयी है और गंभीरता से समझने का प्रयास किया गया है।

यह आलेख उन चक्षुविहीनों के लिये नहीं है जो चक्षु का उन्मीलन नहीं चाहते किन्तु उन लोगों के लिये है जो चक्षु का उन्मीलन करना चाहते हैं। चक्षु का तात्पर्य भौतिक चक्षु नहीं आध्यात्मिक चक्षु है। ये भिन्न विषय है कि “आंखों देखी” बोली जाती है किन्तु आंखों देखी सत्य ही होता है ऐसा नहीं है।

  • भौतिक चक्षु से एक चिकित्सक को चाकू चलाते देखने का क्या यह तात्पर्य हो सकता है कि वो हत्या करने का प्रयास कर रहा था।
  • रात को आकाश से तारे टूटकर गिरते हुये दिखते हैं किन्तु वो सत्य नहीं होते।
  • कई विशेष जलाशय ऐसे होते हैं जिसके एक किनारे से दूसरा किनारा नहीं दिखता, समुद्र जैसा प्रतीत होता है किन्तु वो समुद्र नहीं होता।
  • कड़ी धूप में सड़कों पर जब चलते हैं तो दूर पानी से भिंगा हुआ दिखता है किन्तु वहां पानी नहीं होता है।
  • पहाड़ के एक ओर से दूसरा भाग नहीं दिखता किन्तु होता है।
  • पहाड़ दूर से दिखने में बहुत ही सुन्दर लगता है किन्तु निकट जाने पर वो सुंदरता नहीं मिलती।

भौतिक नेत्रों से सूर्य-चन्द्रमा आदि पानी में भी दिखते हैं परन्तु वो पानी में होते नहीं हैं। सूर्य-चन्द्रमा पानी में नहीं होता है यह भौतिक नेत्र नहीं बताता यह ज्ञानचक्षु बताता है और ज्ञानचक्षु से विहीन बालबुद्धि को पानी में ही सूर्य-चन्द्रमा दे दिया जाता है और वो समझता है कि उसे मिल गया।

ज्ञानचक्षु

जिस प्रकार सूक्ष्म कणों, जीवाणु, दूरस्थ वस्तु आदि को देखने में भौतिक चक्षु अक्षम होता है और उसे विशेष यंत्रों की आवश्यकता होती है और एक बार यह भी माना जा सकता कि उसे भौतिक नेत्रों द्वारा ही देखा गया। किन्तु आध्यात्मिक विषयों का अवलोकन भौतिक चक्षु से नहीं किया जा सकता है। आध्यात्मिक विषयों का साक्षात्कार ज्ञानचक्षुओं से ही किया जा सकता है।

अब आगे प्रश्न उत्पन्न होता है कि ज्ञानचक्षु किसे समझें ?

श्रुतिस्मृति तु विप्राणां चक्षुषी द्वे विनिर्मिते। काणस्तत्रैकया हीनो द्वाभ्यामन्धः प्रकीर्तितः॥ ~ बृहस्पति, पाराशर

श्रुतिस्मृती उभे नेत्रे ब्राह्मणस्य प्रकीर्त्तिते। एकया रहित: काणो द्वाभ्यामंध उदाहृत:॥ ~ हारीत

श्रुतिस्मृती हि विप्राणां लोचने कर्मदर्शने ॥ ~ गरुडपुराण

उपरोक्त वचनों से यह ज्ञात होता है कि श्रुति और स्मृति इन दोनों को चक्षु “श्रुतिस्मृती उभे नेत्रे” कहा गया है अर्थात दोनों ही ज्ञान आवश्यक है और यदि किसी एक का ज्ञान न हो तो काण दोनों ही ज्ञान न हो तो अंधा कहा गया है। किन्तु इसमें एक विशेषता और बताई गयी है वो है विप्र-ब्राह्मण के लिये। ब्राह्मण की श्रेष्ठता का तात्पर्य भी यही सिद्ध करता है कि ब्राह्मण मात्र भौतिक नेत्रों से अवलोकन नहीं करता अपितु आध्यात्मिक लोचन से भी अवलोकन करता है।

यदि ब्राह्मण भी मात्र श्रुति (वेदज्ञान) अथवा स्मृति किसी एक विषय का ज्ञाता हो तो वह काण होता है और दोनों में से किसी एक का भी ज्ञाता न हो तो अंधसंज्ञक होता है। इन दोनों चक्षुओं से रहित अर्थात अंधसंज्ञक ब्राह्मण भी आध्यात्मिक विषयों का साक्षात्कार नहीं कर सकता और उसका विश्लेषण भी नहीं कर सकता, अन्यों की तो चर्चा ही क्या करें।

अस्पृश्यता के विषय में जानने-समझने से पूर्व इसी धरातल पर वर्त्तमान भारत की स्थिति को समझना भी आवश्यक है, वर्त्तमान कालीन भारत को समझे बिना आगे बढ़ना उचित नहीं होगा।

विश्वगुरु भारत और वर्त्तमान भारत

प्राचीन भारत विश्वगुरु था और वर्त्तमान भारत में सभी इसकी दुहाई देते हैं, भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने की बात करते हैं किन्तु विश्वगुरु भारत की आवश्यक शर्त क्या है इसे ही नहीं समझते हैं। ज्ञानप्रदाता को गुरु कहा जाता है और जब भारत विश्व को ज्ञान देता था तो विश्वगुरु कहलाता था वर्त्तमान भारत तो विश्व से ज्ञान ले रहा है, वर्त्तमान भारत का संविधान भी तो विश्व के संविधानों से ज्ञान लेकर बनाया गया है। भौतिक विकास में विश्व से सीखता है तकनीक प्राप्त कर रहा है। तो यह विश्वगुरु कैसे बन सकता है ?

भारत को विश्वगुरु बनाने का तात्पर्य है कि विश्व भारत से ज्ञान प्राप्त करे, भारत का अनुकरण करे।

कर्मकांड सीखें : Karmkand Sikhen part 2

वर्त्तमान भारत में तो अब शास्त्रों (लोचन-ज्ञान) की चर्चा करना भी अन्धविश्वास कहा जाता है और किसी विषय की प्रमाणिकता हेतु विदेशियों से प्रमाणपत्र की अपेक्षा की जाती है। जीवनशैली में भारत पश्चिमी देशों का अनुकरण करने लगा है और इसे आधुनिकता सिद्ध किया जाता है एवं यदि भारतीय जीवन शैली की चर्चा करें तो उसे पुराने जमाने का, उन्नीसवीं सदी का, पिछड़ापन आदि कहा जाता है। फिर प्रश्न तो यह है कि पश्चिमी देशों का अंधानुकरण करने वाला भारत क्या कभी विश्वगुरु बन सकता है ?

वर्त्तमान भारत में जो विश्वगुरु भारत – विश्वगुरु भारत चिल्लाते हैं वो रट्टूमल तोता से कुछ भी अधिक नहीं हैं जो एक ही पंक्ति मात्र दुहराता रहता था :

शिकारी आयेगा
जाल बिछायेगा
दाना डालेगा
लोभ में उसमें फंसना नहीं

वर्त्तमान भारत उसी जाल में फंसे हुये तोते की तरह विश्वगुरु भारत – विश्वगुरु भारत रटने में तल्लीन है।

वर्त्तमान भारत में अंधो (उपरोक्त श्रुति-स्मृति से रहित) के समूह को विद्वान, विश्लेषक, पंडित आदि कहा जाता है जो भारतीय शास्त्रों का किंचित ज्ञान नहीं रखते पश्चिमी दृष्टिकोण रखते हैं अर्थात गुरु नहीं शिष्य हैं और वही अज्ञान भारतीयों को प्रदान करने का कार्य कर रहे हैं।

  • क्या संसद में चक्षुयुक्त सदस्य होते हैं ?
  • क्या सरकार के पास मार्गदर्शन हेतु चक्षुसंपन्न ज्ञानी होते हैं ?
  • क्या न्याय करने वालों के पास चक्षु है ?
  • क्या मीडिया की चर्चाओं में चक्षुयुक्त सदस्य होते हैं ?
  • क्या विभिन्न संस्थाओं-संगठनों में चक्षुवाले होते हैं ?
  • क्या समाज-परिवार की सोच को प्रभावित करने वाले फिल्म-धारावाहिक आदि निर्माता वर्गों में चक्षुसंपन्न ज्ञानी मार्गदर्शन करते हैं ?

लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल। लाली देखन मैं गयी मैं भी हो गयी लाल ॥

वर्त्तमान भारत की स्थिति तो यह है कि निति-दिशा-दशा के लिये काम करने वालों में जहां देखो सबके सब पश्चिम का अंधानुकरण करने वाले मिलेंगे और जब विश्वगुरु भारत बोलते हैं तो स्मरण होता है ~ “मुंह में राम बगल में छूड़ी“, यदि कुछ प्रयास करके ऐसी व्यवस्था कर भी लें यथा मनोनीत विधान से; तो स्थिति वही है “मैं भी हो गयी लाल” और इसका प्रमाण हैं बड़े-बड़े कथावाचक जो शास्त्रोक्त सत्य पर नित्य आवरण अर्पित करते हुये गायक बनकर मनोरंजन करते हैं और करें भी क्यों न उन्हें भी तो आधुनिक बनना है।

ज्ञानचक्षु हो न हो अंधानुकरण में प्रवीण होना चाहिये, क्योंकि जो मांग होगी वही तो उपलब्ध किया जायेगा। जिसका क्रेता ही न हो वह किसे बेचेंगे, बेचना ही है तो जिसका क्रेता है वही उत्पादन किया जायेगा और वही बेचा जायेगा। अर्थात जो शास्त्र और ज्ञान की चर्चा, प्रसार करने के पथ पर चलने का प्रयास करते हैं उन्हें भी व्यापारी बनना पड़ता है जबकि ज्ञान बेचना निषिद्ध है।

वर्त्तमान भारत की दिशा तो यह है कि कुछ वर्षों के पश्चात् पर्वोत्सवों का निर्णय भी शास्त्र से न करके मतदान से किया जाने लगे। वर्त्तमान भारत मतिभ्रम से पीड़ित है जिसे ओषधि की आवश्यकता है, इसे विश्वगुरु बनना तो है किन्तु किन्तु विश्व को ज्ञान देना नहीं विश्व से ज्ञान लेना है। भारत विश्वगुरु तब बनेगा जब यह विश्व को पुनः ज्ञान देना आरंभ करे।

ये कहां आ गये हम आधुनिक बनते-बनते
गुरु पद त्याग करके अंधानुकरण करते।

यदि आपको वर्त्तमान भारत के अंधानुकरण करने में शंका हो तो आप इस तीर्थाटन और पर्यटन से सम्बंधित आलेख को पढ़कर अपनी शंका का निवारण कर सकते हैं। आज अंधविकास करने की ऐसे होड़ में भारत चल पड़ा है जहां तीर्थाटन भी पर्यटन बनकर रह गया है।

ज्ञान का मूल तात्पर्य भौतिक ज्ञान नहीं आध्यात्मिक ज्ञान होता है, और इसी कारण से श्रुति-स्मृति को चक्षु कहा गया है। भौतिक शिक्षा देने वाले शिक्षक-प्रशिक्षक कहलाते हैं गुरु नहीं, गुरु आध्यात्मिक ज्ञानदाता ही होते हैं। भारत को यदि विश्वगुरु बनना है तो विश्व को पुनः आध्यात्मिक ज्ञान देना प्रारंभ करे। कारण यह है कि आध्यात्मिक ज्ञान का मूल ही भारत है अन्यत्र आध्यात्मिक ज्ञान नहीं होता है।

राजनीतिक अस्पृश्यता और आध्यात्मिक अस्पृश्यता

वर्त्तमान भारत में अस्पृश्यता कथन का जो तात्पर्य होता है वह राजनीतिक अस्पृश्यता है। इसका विश्लेषण भी राजनीतिक धरातल पर ही किया जाता है और इसके संबंध में जो संवैधानिक विधान है वह भी राजनीतिक है। उसका कारण भी यही है कि कि संविधान निर्माण करते समय विश्वगुरु बनने की सोच का त्याग करके अंधानुकरण करने की सोच को प्रश्रय दिया गया था।

उस समय की तात्कालिक परिस्थिति को भी उत्तरदायी माना जा सकता है किन्तु उस समय की जो परिस्थिति थी वर्त्तमान में तो वो विकराल हो गयी है और शास्त्रों को जलाने की चर्चा मात्र ही नहीं की जाती है जलाया भी जाता है, फाड़ा भी जाता है फिर भारत विश्वगुरु कैसे बनेगा ? शास्त्रों के बिना तो आप अंधे हो, फिर विश्व को कौन सा ज्ञान दोगे और कैसे विश्वगुरु बनोगे तनिक विचार तो करो।

जिस प्रकार भौतिक रूप से भी हम सभी पदार्थों को भौतिक नेत्रों से नहीं देख सकते किन्तु उसकी उपस्थिति होती है। हम अणु-परमाणु-जीवाणु-विषाणु आदि को भौतिक चक्षु से नहीं देख सकते और बिना देखे भी विश्वास करते हैं और इसे अन्धविश्वास नहीं कह सकते उसी प्रकार शास्त्रों में जो आध्यात्मिक ज्ञान है उसे भी अन्धविश्वास नहीं कह सकते। उसे अन्धविश्वास कहने का कारण है मतिभ्रम रोग से ग्रसित होना।

राजनीतिक रूप से अस्पृश्यता का तात्पर्य व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य भौतिक मात्र ग्रहण किया गया है किन्तु शास्त्रों का तात्पर्य यह नहीं है। राजनीतिक रूप से सार्वजानिक जीवन में अस्पृश्यता बाधित किया गया है जो शास्त्रों में भी किया गया है यथा यात्रा-उत्सव-समारोह आदि में स्पृश्यास्पृश्य का विचार न करे। किन्तु वैयक्तिक अथवा आध्यात्मिक जीवन में स्पृश्यापृश्य विचार करने की आज्ञा शास्त्र देता है और इसे राजनीतिक रूप से बाधित भी नहीं होता क्योंकि भारत का संविधान धर्मपालन की स्वतंत्रता प्रदान करता है।

जिस प्रकार सूक्ष्म पदार्थों का अवलोकन बिना विशेष यंत्रों के भौतिक नेत्रों से संभव नहीं है किन्तु उसकी उपस्थिति होती है और उसे बिना देखे भी स्वीकारना अन्धविश्वास नहीं है उसी प्रकार आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान शास्त्र ही प्रदान करते हैं और इसे भी अधंविश्वास नहीं कहा जा सकता। अपितु अन्धविश्वास वह होता है जो अंधा (श्रुति-स्मृति रूपी चक्षुविहीन) कहे और उस पर विश्वास करें। और राजनीतिक/भौतिक विश्लेषण करने वाले अंधे (श्रुति-स्मृति चक्षुविहीन) हैं और उनके कथन पर विश्वास करना अन्धविश्वास है।

इस प्रकार से आज तक आप जिसे अन्धविश्वास समझ रहे थे वो अन्धविश्वास नहीं है अपितु अन्धविश्वास बताने वाले जो तर्क-कुतर्क से सिद्ध करके बता रहे थे, जिसका शास्त्रों में कोई प्रमाण नहीं मिलता; वो अन्धविश्वास है और पासा ही पलट गया है।

अस्पृश्यता का शास्त्रों में प्रमाण मिलता है इस कारण यह अन्धविश्वास नहीं है। किन्तु सार्वजनिक जीवन में शास्त्र भी अस्पृश्यता के व्यवहार का निषेध करता है जिसे वैधानिक रूप से भी दंडनीय अपराध घोषित किया गया है। यहां अस्पृश्यता की जो चर्चा की जा रही है वह उस वैधानिक परिधि से बाहर है अर्थात सार्वजानिक जीवन से सम्बंधित नहीं है आध्यात्मिक जीवन, धर्माचरण से संबंधित है।

प्रत्येक पदार्थों और जीवों में गुण-दोष होते हैं और इन गुण-दोषों के आधार पर ही शास्त्रों में स्पृश्यापृश्य का विधान बताया गया है। जिस प्रकार आप वायरस को देख नहीं सकते किन्तु उससे बचना आवश्यक होता है अन्यथा स्वास्थ्य संबंधी समस्या उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन में दोषों से दूर रहना आवश्यक है अन्यथा उस दोष से दूषित हो जाते हैं और आध्यात्मिक पथ से भ्रष्ट हो जाते हैं, आध्यत्मिक स्वास्थ्य बिगड़ जाता है और आध्यात्मिक उत्थान नहीं कर सकते।

किन-किन पदार्थों-जीवों में दोष है, यह शास्त्र बताता है और उन-उन पदार्थों-जीवों को अस्पृश्य कहा जाता है। उसका स्पर्श मात्र करने से आध्यत्मिक जीवन दूषित हो जाता है और आध्यात्मिक दोष उत्पन्न होने पर आध्यात्मिक उन्नति बाधित हो जाती है।

अशौच होने पर कोई विशेष वर्ण अस्पृश्य नहीं होता अपितु सभी वर्ण अस्पृश्य हो जाते हैं। मल-मूत्र-रक्त-मांस-अस्थि आदि शरीर में रहने तक अस्पृश्य नहीं होते किन्तु शरीर से पृथक होने पर अस्पृश्य हो जाते हैं। गाय अस्पृश्य नहीं है किन्तु श्वान-मार्जार आदि अस्पृश्य होते हैं। उसी प्रकार नीच कर्म करने वाले, पापाचारी अस्पृश्य होते हैं किन्तु वैयक्तिक जीवन में, आध्यात्मिक जीवन में ही होते हैं सार्वजनिक जीवन में नहीं जिसे विधान निषिद्ध करता है।

संविधान का विधान सार्वजनिक जीवन में मात्र व्यक्तिपरक अस्पृश्यता का निषेध करता है। वस्तु परक, जीव परक अस्पृश्यता का सार्वजनिक जीवन में भी निषेध नहीं होता है और संविधान भी निषेध नहीं करता है। उत्सव-समारोह-यात्रा आदि में भी मल-मूत्र-रक्त-मांस आदि दूषित पदार्थ अथवा श्वान-मार्जार आदि जीव अस्पृश्य ही होते हैं।

किन्तु इन नारकीय विश्लेषकों, बुद्धिजीवों की दुर्दशा, मानसिक विकृति का स्तर यह है कि इस कथन के उपरांत ये लोग सार्वजनिक जीवन में मलमूत्र का भी भक्षण करना प्रारम्भ कर दें और यह कहने लगें कि मल-मूत्र भी अस्पृश्य नहीं होता है, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। किन्तु ये लोग अस्पृश्यता की व्याख्या नहीं कर सकते और ये लोग जो बुद्धिजीवी बनकर अस्पृश्यता की व्याख्या करते हैं वही अन्धविश्वास है क्योंकि इसका को प्रमाण नहीं है।

इस प्रकार की अस्पृश्यता को तो आंशिक रूप से वैज्ञानिक कहकर ये भी स्वीकार करते हैं और अस्पतालों को बारम्बार सनेटाइज करते रहते हैं। ये अस्पृश्यता विरोधी हाथों में दस्ताने क्यों पहन लेते हैं, मास्क लगाकर नाक-मुंह क्यों ढँक लेते हैं ?

इसी प्रकार यदि आप आध्यात्मिक यात्रा करना चाहते हैं और आत्मकल्याण करना चाहते हैं तो आपको शास्त्रों में वर्णित अस्पृश्यता विधान को सम्यक रूप से समझना होगा और उसका पालन करना होगा। यदि श्रुति-स्मृति ज्ञान से रहित हैं तो आध्यात्मिक रूप से अंधे हैं और अंधा व्यक्ति यात्रा करने में असमर्थ होता है, कहीं भी गड्ढे, कुँयें आदि में गिर सकता है।

अब आगे जो प्रश्न उत्पन्न होता है वो है कि छड़ी आदि सहारा लेकर तो अंधा भी चलता है। इसका भी उत्तर है और वो यह है कि आपको आध्यात्मिक यात्रा के लिये उस सहारे की आवश्यकता होती है जिसे श्रुति-स्मृति रूपी चक्षु होता है। जिसे श्रुति-स्मृति रूपी चक्षु होता है वही गुरु होते हैं और इनके सहारे ही आध्यात्मिक यात्रा की जाती है।

भारत को यदि विश्वगुरु बनना है तो जाल में फंसा हुआ रट्टूमल तोता नहीं बनना चाहिये। श्रुति-स्मृति रूपी चक्षु का उन्मीलन करके पुनः आध्यात्मिक यात्रा आरंभ करके विश्व को आध्यात्मिक ज्ञान देना चाहिये। जब भारत विश्व को विश्व को आध्यात्मिक ज्ञान देगा तभी विश्वगुरु कहलायेगा। भारत विश्वगुरु था इस कथन का इससे भाव से पृथक अन्य कोई भाव नहीं है।

निष्कर्ष : अस्पृश्यता की यहां जो व्याख्या की गयी है वह उस अस्पृश्यता से भिन्न है जिसका संविधान निषेध करता है और राजनीतिक रूप से कही-समझी जाती है। जिस अस्पृश्यता को राजनीतिक रूप से अपराध कहा गया है वह शास्त्रोक्त रूप से भी निषिद्ध ही है। किन्तु शास्त्रों में अस्पृश्यता की जो व्याख्या है वह राजनीतिक अस्पृश्यता की परिधि से बाहर है, आध्यात्मिक जीवन का अंग है इसके कुछ अपवाद भी हो सकते हैं जैसे कूप पर अस्पृश्यता का विधान।

हमें आध्यात्मिक उन्नति करने के लिये राजनीतिक दृष्टिकोण से नहीं अपितु आध्यात्मिक दृष्टिकोण से अस्पृश्यता को समझना आवश्यक है और जहां सार्वजनिक जीवन में संविधान निषेध करता है उसका भी पालन करना आवश्यक है किन्तु इसका तात्पर्य अस्पृश्यों के साथ बेटी-रोटी का संबंध जोड़ने की बाध्यता भी नहीं होती है।

विनम्र आग्रह : त्रुटियों को कदापि नहीं नकारा जा सकता है अतः किसी भी प्रकार की त्रुटि यदि दृष्टिगत हो तो कृपया सूचित करने की कृपा करें : info@karmkandvidhi.in

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


Discover more from कर्मकांड सीखें

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *