वर्त्तमान युग की जीवनशैली ऐसी हो गयी है कि पाप को जानते ही नहीं तो बचने का और यदि पाप हो जाये तो प्रायश्चित्त का विचार कहां से करें ! किन्तु इसमें एक और विचारणीय विषय है और वो यह है कि पाप वास्तव में नरक का आरक्षण (Reservation of Hell) करना है। पाप कर्मों के कारण हम नरकगामी होते हैं जहां दुःखों को भोगते हैं। मृत्युलोक में हम क्षणिक सुख के लिये जो पाप करते हैं उसका परिणाम हमें नरक में दीर्घकालिक दुःख के रूप में भोगना होता है। इस प्रकरण में हमें सर्वप्रथम पापों का संक्षिप्त जानकारी के साथ नरकों की भी जानकारी आवश्यक है।
बच के रहो; पाप नरक का आरक्षण है – Reservation of Hell
उपरोक्त सन्दर्भ में हमें पाप और नरकों के बारे में ज्ञान होना आवश्यक है जो हमें पापकर्म में संलिप्त होने से बचाता है। यहां जो जानकारी दी गयी है उसके सङ्कलनकर्ता विद्यावारिधि दीनदयालमणि त्रिपाठी जी हैं और इस आलेख का श्रेय उन्हीं को जाता है।
आगे जो महत्वपूर्ण जानकारी दी गयी है वह आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी द्वारा संकलित है और हमें व्हाट्सप समूह से प्राप्त हुआ है। यहां उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया है जिन शीर्षकों के साथ जो साझा किया गया था वो यथावत प्रस्तुत किया गया है। यह आलेख उन सबके लिये अति-उपयोगी है जो आस्थावान सनातनी है और नरक (दुःखों) से बचना चाहते हैं।

21 नरकों की सूची
जो व्यक्ति पाप करने के बाद न तो पश्चात्ताप करते हैं और न ही प्रायश्चित्त करते हैं, वे अत्यंत दारुण (भयानक) 21 नरकों में जाते हैं।
यहाँ 21 नरकों की सूची दी गई है:
- तामिस्रं
- लोहशङ्कं
- महानिरय
- शाल्मली
- रौरवम्6. कुम्भिपाकम् (संशयित पाठ)
- पूतिमृत्तिकम्
- कालसूत्रकम्
- संघातम्
- लोहितोदम्
- सविषम्
- संप्रतापनम्
- महानरक
- काकोल
- सञ्जनव
- महापथम्
- अवीचिः
- अन्धतामिस्रः
- कुम्भीपाकः
- असिपत्रवनम्
- तपनम्
पाप और फल का तारतम्य — विष्णुधर्मोत्तरपुराण
अष्टाविंशतिकोट्यः स्युर्घोराणि नरकाणि वै – कुल 28 करोड़ घोर नरक कहे गए हैं।
महापातकिनः चात्र सर्वेषु नरकाब्धिषु – महापाप करने वाले नरक के सभी समुद्रों (कोटियों) में युगों तक पीड़ा पाते हैं।
आचन्द्रतारकं यावत् पीड्यन्ते विविधैः वधैः – वे चंद्र-तारों की आयु तक, अर्थात कल्पकाल तक पीड़ा भोगते हैं।
एकविंशतिसंख्येषु पादोनब्रह्मकल्पकम् – 21 नरकों में ब्राह्मकल्प से थोड़ा कम समय तक वे पकते हैं।
चतुर्दशसु पच्यन्ते कल्पार्थं समपापिनः – मध्यम या सम पापी लोग 14 नरकों में कल्पकाल तक कष्ट पाते हैं।
उपपातकिनः चापि तदर्धं यान्ति मानवाः – उपपातक (कम पाप) करने वाले नरकों में आधा काल (कल्प का अर्ध) बिताते हैं।
शैषैः पापैः तदर्थं च कालक्लृ तिः इयं स्मृता – शेष छोटे पापों के लिए कम समय के अनुसार कष्ट होता है — इसे कालानुसार फल कहते हैं।
रहस्यकृत पाप का फल — पराशर मुनि के अनुसार
“पातकेषु सहस्रं स्यान्महति द्विगुणं तथा । उपपातके तुरीयं स्यान्नरकं वर्षसंख्यया ॥”
अर्थ : यदि कोई पाप गुप्त रूप से (रहस्यपूर्वक) किया जाता है, तो उसका फल और भी अधिक कठोर होता है।
- सामान्य पातकों (पापों) के लिए 1000 वर्ष नरक।
- महापातक (जैसे ब्रह्महत्या, सुरापान आदि) के लिए 2000 वर्ष।
- उपपातक के लिए 250 वर्ष (तुरीयं = चौथाई)।
यहाँ “वर्षसंख्यया” से नरकवास की अवधि बताई गई है।
नरकानुभव के बाद तिर्यगादि योनियों में जन्म — याज्ञवल्क्य के अनुसार
“महापातकजान् घोरान्नरकान् प्राप्य दारुणान् । कर्मक्षयात् प्रजायन्ते महापातकिनस्त्विह ॥”
अर्थ : महापातक करने वाले नरकों में अत्यंत घोर कष्ट भोगने के बाद जब उनका कर्म क्षीण हो जाता है, तब वे मानव लोक में पुनर्जन्म नहीं, बल्कि निम्न योनियों में जन्म लेते हैं।
एकविंशतिमित्येतत् प्रधाननरकापेक्षयोक्तम्। महापातकजैरिति च पापमात्रोपलक्षणम् । तथा च पापतारतम्यात् फलतारतम्यं दर्शितं विष्णुधर्मोत्तरे — अष्टाविंशतिकोट्यः स्युर्घोराणि नरकाणि वै । महापातकिनश्चात्र सर्वेषु नरकाब्धिषु । आचन्द्रतारकं यावत् पीड्यन्ते विविधैर्वधैः । अतिपातकिनश्चान्ये निरयार्णवकोटिषु । एकविंतिसंख्येषु पादोनब्रह्मकल्पकम् । चतुर्दशसु पच्यन्ते कल्पार्थं समपापिनः । उपपातकिनश्चापि तदर्धं यान्ति मानवाः । शैषैः पापैस्तदर्थं च कालक्लृ तिरियं स्मृता इति ।
- बहून् वर्षगणान् घोरान् नरकान् प्राप्य तत्क्षयात् – व्यक्ति पहले अनेक वर्षों तक घोर नरकों में कष्ट भोगता है।
- संसारान् प्रतिपद्यन्ते महापातकिनस्त्विह – फिर पुनः संसार में जन्म लेता है, लेकिन सुखी योनि नहीं मिलती, बल्कि दारुण और हीन योनियाँ मिलती हैं।
पापविशेषानुसार योनि का निर्धारण: पाप फलस्वरूप योनि (जन्म रूप)
अगली पंक्तियों में विशेष पापों के अनुसार योनियाँ दी गई हैं:
पाप | अगला जन्म (योनि) |
---|---|
ब्रह्महत्या | श्वान (कुत्ता), सूकर (सुअर), खर (गधा), उष्ट्र (ऊँट), गीदड़ (गोमायु), मृग, पक्षी, चाण्डाल, पुल्कस आदि |
सुरापान | कृमि, कीट, पतंग, विष्ठा खाने वाले पक्षी, हिंसक जानवर, पिशाच |
स्वर्णहरण | कृमि, कीट, पतंग (कीट-पतंगे) |
चोरी (स्तेय) | लूता (मकड़ी), सरट (छिपकली या कृकलास), मछली, जलचर, हिंस्र जीव |
गुरु पत्नी गमन | तृण (घास), लता, झाड़ी, मांसभक्षी पशु, दंष्ट्रा (नुकीले दाँत वाले जानवर), क्रूर कर्म वाले प्राणी |
विशेष बात: यह क्रम पाप के भारानुसार निर्धारित है — जितना अधिक पाप, उतनी ही अविवेकपूर्ण, पीड़ादायक, और निर्बुद्धि योनि।
हम अन्य विद्वद्जनों से भी इसी प्रकार की शास्त्रसम्मत व ज्ञानवर्द्धक संकलन, आलेख की आकांक्षा करते हैं।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।