क्षौर कर्म का तात्पर्य मात्र बढे हुये केशों से मुक्ति पाना नहीं होता अपितु सनातन में क्षौर कर्म के आचरण का भी विशेष विधान व नियम है जो शास्त्रों में वर्णित है। वर्त्तमान में तो यह देखा जाता है कि किसे कब क्षौर कराना चाहिये कैसे करना चाहिये ये सब कुछ भी विचार नहीं करते और संभवतः जानकारी भी नहीं होती है क्योंकि कोई जानकारी देने वाले विद्वान हों तब तो जानकारी प्रदान करें। कहने को सनातन का पुनर्जागरण हो रहा है किन्तु लोग तो अब उपनयन में भी केशवपन नहीं कराते हैं तीर्थों के क्षौर करने की तो चर्चा ही क्या करें। तथापि यदि पुनर्जागरण हो रहा है तो जानकारी देना का प्रयास यहां किया जा रहा है।
क्षौर कर्म विचार – kshaur karma in hindi
क्षौर कर्म के अनेकानेक अवसर देखने को मिलते हैं जिसमें से सामान्य लोगों के मात्र अशौच परक क्षौर मात्र का ही ज्ञान है और थोड़ा बहुत यज्ञादि निमित्त क्षौर का। यदि नई पीढ़ी अर्थात युवावर्ग की चर्चा करें तो वो मात्र स्वयं को कट्टर हिन्दू कहने तक सीमित हैं, अथवा वैज्ञानिक अवधारणा, तर्क-कुतर्क में फंसे हुये हैं और अब तो अशौच होने पर भी क्षौर का त्याग कर चुके हैं क्योंकि इक्कीसवीं सदी में जीते हैं। किन्तु दोष उनका है ही नहीं दोष तो उस पीढ़ी का है जिसने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात “उदरनिमित्तं कृत बहुवेषं” का आश्रय लेते हुये बच्चों को संस्कार देना ही भूल गये।
आगे क्षौर विधान दिया गया है जो आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी द्वारा संकलित है और हमें व्हाट्सप समूह से प्राप्त हुआ है। यहां उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया है जिन शीर्षकों के साथ जो साझा किया गया था वो यथावत प्रस्तुत किया गया है। यह आलेख उन सबके लिये अतिउपयोगी है जो आस्थावान सनातनी है और ज्ञान के उपासक है। निश्चय ही ब्राह्मणों में भी उनकी अत्यल्प संख्या है; शेष में तो अपवाद मात्र ही बचे हैं।
॥ गया – यात्रा – क्षौर-विचारः ॥
प्रथमेऽहन्येकभुक्तं हविष्यम् अपरेऽहनि । उपोष्य च तृतीयेऽह्नि क्षौरं कुर्याद् यथाविधि ॥
गया यात्रा के पहले प्रथम दिन एक समय भोजन करें, दूसरे दिन हविष्यान्न भोजन कर तीसरे दिन उपवास और क्षौर कराना चाहिए। (गया में वपन नहीं करना चाहिए)
मुण्डनञ्चोपवासश्च सर्वतीर्थेष्वयं विधिः । वर्जयित्वा कुरुक्षेत्रं विशालां विरज़ां गयाम् ॥’
कुरुक्षेत्र, विशाला (बद्रीनाथ) विरजा, गयाको छोड़कर अन्य तीर्थों में मुण्डन और उपवास करना चाहिये। (किसी के मत से विशाला – मथुरा और उज्जैन लिया गया है। विरजा – नर्मदा, किसी मत से – हरिद्वार ॥)
॥ गर्भिणी-पति- क्षौर-श्राद्ध विचारः ॥
उदन्वतोऽम्भसि स्नानं नखकेशनिकृन्तनम् । विदेश गमनञ्चैव न कुर्याद् गर्भिणीपतिः ॥ (ज्योतिर्निबन्धे)
समुद्र स्नान, नख तथा शिर आदि का बाल बनवाना, विदेश यात्रा गर्भिणी पति न करे ।
शववाहतीर्थगमसिन्धुमज्जनक्षुरमाचरेन्न खलु गर्भिणीपतिः ॥ मुहूर्त चिन्तामणौ ॥
शव ढोना, तीर्थ यात्रा, समुद्र स्नान,बाल बनवाना गर्भिणी पति न करे ।
दहनं वपनञ्चैव चौलञ्च गिरिरोहणम् । नाव्यारोहणं चैव न कुर्याद् गर्भिणीपतिः ॥ गालवः
शव आदि का दाह, बाल बनवाना, चूड़ाकरण, पर्वतारोहण, नाव से यात्रा गर्भिणी पति न करे।
सिन्धुस्नानं द्रुमच्छेदं वपनं प्रेत वाहनम् । विदेश गमनञ्चैव न कुर्याद् गर्भिणीपतिः ॥
समुद्र स्नान, वृक्ष-छेदन, बाल बनवाना, मुर्दा ढोना, विशेष यात्रा गर्भिणी पति न करे ।
राजा योगी पुरन्ध्री च मातापित्रोस्तु जीविताः । मुण्डनं सर्वतीर्थेषु न कुर्याद् गर्भिणीपतिः ॥
माता पिता के जीवित रहने पर राजा, योगी, पुरन्ध्री (स्त्री) तीर्थ में मुण्डन गर्भिणी पति न करे ।
शवावाहोदधि-स्नानं वपनं पिण्डपातनम् । विदेशगमनञ्चैव न कुर्याद् गर्भिणीपतिः ॥ इति सङग्रहे ॥
शव वहन , समुद्र स्नान, वपन, पिण्डदान, विदेश गमन गर्भिणीपति न करे ।
अयन्तु क्षौरादि निषेधो गुर्विणीपतेः सप्तमासादूर्ध्वं बोध्यः । ततः प्राक् तु क्षौरं कर्तव्यमेवेदिति विशिष्टो विचारः ॥
यह वचन का निषेध गर्भिणी पति के लिए सात महीने के बाद मुण्डन कराने का निषेध है। गर्भिणी पति को सात महीने के पहिले तीर्थ में मुण्डन करा लेना चाहिए।
वपनं मैथुनं तीर्थं वर्जयेद् गर्भिणीपतिः । श्राद्धं च सप्तमात् मासादूर्ध्वं नान्यत्र वेदवित् ॥ इति नारदः ॥
श्राद्धम् – श्राद्ध भोजनम्
वपनं मैथुनं तीर्थं वर्जयेद् गुर्विणीपतिः । श्राद्धञ्च सप्तमान् मासादूर्ध्वं चान्यत्तु वेदवित् ॥ इति आश्वलायनः ॥
सात महीने गर्भ के बाद मुण्डन, तीर्थ यात्रा और श्राद्ध कर्म व श्राद्ध भोजन गर्भिणी पति न करे। इसी बात की पुष्टि आश्वलायन महर्षि ने की है।
॥आसुरादि- त्रिविध- वपन- विचारः ॥
देवा वै यद् यज्ञेऽकुर्वत तदसुरा अकुर्वत, तेऽसुराः ऊर्ध्वं पृष्ठेभ्यो ना ऽपश्यन् ते केशान् अग्रेऽवपन्त । अथ श्मश्रूणि अथोपपक्षौ । ततस्तेऽभावाच्च आयन् पराभवन् यस्यैवं वपति । अवाडेति अथो परैव भवति । अथ देवा ऊर्ध्वं पृष्ठेभ्योऽपश्यन् त उपपक्षावग्रेऽवपन्त, अथ श्मश्रूणि अथ केशान्, ततस्तेऽभवन् सुवर्णं लोकमायन् यस्यैवं वपति भवत्यात्मना अथो सुवर्णं लोकमेति । अथैतन्मनुर्वप्त्रे मिथुनम् अपश्यत सश्मश्रूण्यग्रेऽवपत्, अथोपपक्षौ अथ केशान्, तता वै स प्राजायत प्रजयापशुभिर्यस्यैवं वपति, प्रजया पशुभिर्मिथुने जयते, इति “प्रजया, इति शब्दो जायते, इत्यनेन सम्बध्यते । उपपक्षौ – कक्षौ इति भाष्यम्। इदञ्च प्रकरणात् कर्म विशेष परम् ॥ इति आपस्तम्ब शाखा (वीरमित्रोदय तीर्थ प्र० पृ० – ५९-६० )
देवाताओं ने यज्ञ किया, पश्चात् असुरों ने भी किया। उन असुरों ने पीठ के ऊपर नहीं देखा। उन लोगों ने पहले शिर के बालों को बनवाया, पश्चात् दाढ़ी-मूँछ को बनवाया । फिर काँख आदि बालों को बनवाया। इस (अपराध के) कारण वे देवताओं से पराजित हो गये। इस कारण प्रथम ऊपर का बाल न बनवाकर दाढ़ी मूँछ प्रथम बनवाना उत्तम है।
अनन्तर देवताओं ने पीठ के ऊपर देखा, पुनः दोनों काँखों को देखा देवगणों ने प्रथम काँखों के बालों को बनवाया। फिर दाढ़ी मूँछ बनवाया, फिर शिर के बालों को बनवाया। इस कारण वे सुन्दर लोक को प्राप्त हुए। जो देवता-तुल्य बाल बनवाता है, वह सुन्दर लोक को प्राप्त करता है ।
अथ बाद मनु ने बनाने वाले पूर्वोक्त दोनो को देखा और प्रथम दाढ़ी-मूँछ बनवाया । फिर काँख के बालों कों बनवाया। फिर शिर के बालों को बनवाया। इस कारण वे सन्तान वाले हुए। जो देव तुल्य बाल बनवाता है । वह सन्तान और पशु आदि से सुखी रहता है।
॥ प्रायश्चित्ते राजादिनां क्षौर – विचारः ॥
राजा अथवा राजपुत्र या ब्राह्मण प्रायश्चित्त कर्म में बाल नहीं ‘बनवाना चाहते हैं तो द्विगुण व्रत करना चाहिए ।
प्रायश्चित्त में बाल न बनवाकर द्विगुण व्रत भी नहीं करना चाहते हैं तो बालों का अग्रभाग दो अङ्गुलं कटवा देवें ।
प्रायश्चित्त में बालों को न बनवाने की इच्छा से द्विगुण व्रत करें, या द्विगुण दक्षिणा दान करें।
राजा वा राजपुत्रो वा ब्राह्मणो वा विशेषतः । केशानां रक्षणार्थाय द्विगुणं व्रतमाचरेत् ॥
यस्य न द्विगुणं दानं केशान् वाञ्छति रक्षितुम् । केशानां रक्षणार्थाय छेदयेदङ्गुलद्वयम् ॥
इति आत्रेये ।
केशानां रक्षणार्थाय द्विगुणं व्रतमाचरेत् ।द्विगुणेव्रतआदिष्टे दक्षिणा द्विगुणा भवेत् ॥
किन्तु महापातक गोवध, अवकीर्णन के अतिरिक्त निमित्तो में द्विगुण व्रत कर लेने पर भी केशों की रक्षा नहीं होगी।
परन्तु “महापातक गोवधावकीर्णन- व्यतिरिक्त-निमित्तेषु तत्रद्विगुण-व्रताचरणेऽपि केशरक्षणं न भवत्येव” इति ।
जो व्यक्ति शोभा आदि के कारण बाल नहीं बनवाना चाहता है वह जिस निमित्त से जिस व्रत को करना चाहता है उसका द्विगुण व्रत करें। परन्तु – महापातक, गोवध, अवकीर्णन से अतिरिक्त निमित्तों में द्विगुण व्रत करने पर भी केश रक्षण नहीं होता है।
लावण्यादि- हानिभिया केशवापनं न चिकीर्षति स केश रक्षणार्थं यस्मिन्निमित्ते यद् व्रतम् उपदिष्टं तद्- द्विगुणमाचरेत् । परन्तु महापातक- गोवधावकीर्णन – व्यतिरिक्त – निमित्तेषु तत्र द्विगुण व्रताचरणेऽपि केशरक्षणं न भवत्येव ।
विद्वान ब्राह्मण, राजा और स्त्री को महापातक, गोवध, अवकीर्णि व्रतों में द्विगुण दान देने से भी बालों की रक्षा नहीं की जा सकती है। अर्थात् अवश्य बाल बनवाना चाहिए।
विद्वद् विप्रनृपस्त्रीणां नेष्यते केशवापनम् । ऋते महापातकिनो गोहन्तुश्चावकीर्णिनः ॥ इति विशेष स्मरणात् ।
दूना व्रत कर लेने से बालों की रक्षा सब जगह की जा सकती है। अतः विशेष नियम कहा जा रहा है।
राजा, राजपुत्र और बहुश्रुत ब्राह्मण इन तीनों को बिना बाल बनवाये ही प्रायश्चित करने का उपदेश देना चाहिए।
द्विगुण व्रताचरणेन केशरक्षणस्य सर्वत्र प्राप्तौ नियमम् आह।
राजा वा राजपुत्रो वा ब्राह्मणो वा बहुश्रुतः । अकृत्वा वपनं तेषां प्रायश्चित्तं विनिर्दिशेत् ॥
यहाँ राजा पद अभिषेक गुणयुक्त क्षत्रिय वाचक है । राजपुत्र पद अभिषेकार्ह राजकुमार वाचक है। बहुश्रुत पद का अर्थ है, लोक वेदवेदाङ्गज्ञाता वाकोवाक्य इतिहास पुराणों में कुशल और उनमें पूर्ण निष्ठावाला उन्हीं के द्वारा वृत्ति चलानेवाला अड़तालिस संस्कारों से संस्कृत तीन या छः (अध्ययन- अध्यापन, यजन – याजन, दान-परिग्रह) अन्य कार्यों में विनीत हो ।
यथा स एष बहुश्रुतो भवति लोकवेदवेदाङ्ग विद्वाक्यो वाक्येतिहास-पुराण- कुशलस्तदपेक्षस्तद्वृत्तिरष्टाचत्वारिंशत् संस्कारैः संस्कृतस्त्रिषु कर्मस्वभिरतः षट्सु वा समयाचारिकेष्वभिविनीत इति ।
उक्त लोगों का बाल न बनवाकर प्रायश्चित्त का उपदेश करना चाहिए । इन्हीं लोगों के लिए है, ऐसा नहीं है ।
राजा, राजपुत्र और बहुश्रुत ब्राह्मण अपने बालों को बनवाकर प्रायश्चित्त करें। महर्षि हारीत ने वपन का विधान किया है ।
आपतम्ब महर्षि ने भी इन्हीं लोगों के बाल न बनने पर द्विगुण व्रताचरण का उपदेश किया है। बाल भी न बने द्विगुण व्रत भी न किया जाय तो पाप जैसा का तैसा रह जाता है ।
एतेषां वपनमकृत्वा अकारयित्वा प्रायश्चित्तमुपदिशेत् । अत्र चैतेषामेवेत्येव नियमो न त्वकृत्वैवेति ।
तेषामपि व्रताचरणाय हारीतेन- राजा वा राजपुत्रो वा ब्राह्मणो वा बहुश्रुतः । केशानां वपनं कृत्वा प्रायश्चित्तं समाचरेत् ॥ उक्तत्वात् । अतएवापस्तम्बोऽप्येतेषामेव वपनाभावे व्रतद्वैगुण्यम् तदुभयाभावे च पाप-तादवस्थ्यम् आह-
राजा, राजपुत्र और बहुश्रुत ब्राह्मण ये तीनों यदि वपन न कराये तो प्रायश्चित्त कैसे होगा ?
केश रक्षार्थ द्विगुण व्रत करें। तथा द्विगुणा दक्षिणा भी दे। जो केश रक्षार्थ द्विगुणदान नहीं किया उसका पाप जैसे का तैसा रह जाता है। और उपदेश देने वाला नरकगामी होता है । (अर्थात् प्रायश्चित्त के समय बाल बनवाने को मना करता है।)
जो कुछ भी पाप किया जाता है, वह पाप बालों के मूल में छिप जाता है। इसलिए सभी उपायों से शिखा सहित बाल बनवाना चाहिए।
राजा वा राजपुत्रो वा ब्राह्मणो वा बहुश्रुतः । यस्तु नो वपनं कुर्यात् प्रायश्चित्तं कथम्भवेत् ॥
केशानां रक्षणार्थाय द्विगुणं व्रतमाचरेत् । द्विगुणे तु व्रते चीर्णे दक्षिणा द्विगुणा भवेत् ॥
यस्य न द्विगुणं दानं केशाँश्च परिरक्षतः । तत् पापं तस्य तिष्ठेत वक्ता च नरकं व्रजेत् ॥
यत् किञ्चित् क्रियते पापं सर्वं केशेषु तिष्ठति । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन सशिखं कारयेद् द्विजः ॥
इति आपतम्बः
विद्वान विप्र, नृप, स्त्रियों का केश वपन निषेध है, तो क्यों नहीं उपर्युक्त वचनों में परिगणित कर दिया जाय?
समाधान है कि सम्पूर्ण बालों को इकट्ठा करके दो अङ्गुल अग्रभाग का कटवा देना चाहिए। इस प्रकार सधवा, कुमारी, अविवाहिता स्त्रियों के मुण्डन का विधान है।
यद्यपि नारी शब्द से कुमारी का ग्रहण हो जाता है तथापि कुमारियों का भी उक्त रीति से मुण्डन किया जाय इसलिए स्मृत्यन्तर में लिखा है कि-
ननु – विद्वद्विप्र – नृप – स्त्रीणां नेष्यते केशवापनम् । सर्वान् केशान् समुद्धृत्य छेदयेदङ्गुलद्वयम्॥
एवं नारीकुमारीणां शिरसो मुण्डनं स्मृतम् ॥
सर्वं केशपाशम् एकीकृतमूर्ध्वं कृत्वाऽग्रतोऽङ्गलद्वयं छेदयेत् । एवंविधं नारीणाम् अविधवानां कुमारीणाम् अविवाहितानाञ्चशिरसो मुण्डनं स्मृतम् ।
नारीग्रहणेन सिद्धेऽपि कुमारीग्रहणस्य पुनरुपादानं तासामप्येवं विध-मुण्डन- प्राप्त्यर्थम् । यतः स्मृत्यन्तरे-
सधवा नारियों को अलङ्कार के लिए बालों को रखना चाहिए। प्रायश्चित में भी बालों को नहीं बनवाना चाहिए।
सधवा स्त्रियों के लिए बाल रखना निश्चित है। कुमारी या विधवा के लिए नहीं ।
इस प्रकार विधवा स्त्रियों का ही वपन शास्त्र सम्मत है ।
हम अन्य विद्वद्जनों से भी इसी प्रकार की शास्त्रसम्मत व ज्ञानवर्द्धक संकलन, आलेख की आकांक्षा करते हैं।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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