मनुष्य जीवन प्राप्ति एक अवसर है जो आत्मकल्याण के लिये कहा गया है। आत्मकल्याण का उपाय ही धर्म है और जो आत्मकल्याणकामी है वह किसी अन्य के दुःख का भी कारण नहीं बनता। कल्याण प्राप्ति के लिये यह आवश्यक है कि पापों से बचें और पापों से बचने के लिये पाप का ज्ञान होना आवश्यक है। इस प्रकरण में हम पाप के प्रकार (types of sins) को समझेंगे।
पाप के प्रकार – types of sins
उपरोक्त सन्दर्भ में हमें पाप के प्रकारों को भी जानना आवश्यक है जो हमें पापकर्म में संलिप्त होने से बचाता है। यहां जो जानकारी दी गयी है उसके सङ्कलनकर्ता विद्यावारिधि दीनदयालमणि त्रिपाठी जी हैं और इस आलेख का श्रेय उन्हीं को जाता है।
आगे जो महत्वपूर्ण जानकारी दी गयी है वह आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी द्वारा संकलित है और हमें व्हाट्सप समूह से प्राप्त हुआ है। यहां उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया है जिन शीर्षकों के साथ जो साझा किया गया था वो यथावत प्रस्तुत किया गया है। यह आलेख उन सबके लिये अति-उपयोगी है जो आस्थावान सनातनी है और नरक (दुःखों) से बचना चाहते हैं।

पापों के नव प्रकार
नवविध पापानि। प्रायश्चित्तनिमित्तभूतानि तानि च पापानि नवविधानि
पापों को नौ प्रकार में विभाजित किया गया है, जो प्रायश्चित्त (प्रायश्चित) करने के कारण बनते हैं।
ये नौ प्रकार के पाप इस प्रकार हैं:
- महापातकानि — महापाप (जैसे ब्रह्महत्या, सुरापान, आदि)
- अतिपातकानि — अत्यंत गंभीर पाप, महापातक के निकट
- समापातकानि — अन्य गंभीर अपराध, जो विशेष परिस्थिति में महापातक के समतुल्य हो
- उपपातकानि — अपेक्षाकृत छोटे पाप, किंतु फिर भी निंदनीय
- सङ्करीकरणानि — विभिन्न पापों का सम्मिलन (मिश्रण), जैसे कई पाप एक साथ करना
- मलिनीकरणानि — आत्मा या जाति को कलुषित करने वाले कर्म
- अपात्रीकरणानि — किसी को धार्मिक कार्यों के लिए अयोग्य बना देने वाले कर्म
- जातिभ्रंशकराणि — व्यक्ति को अपनी जाति (धर्म) से पतित कर देने वाले कर्म
- प्रकीर्णकानि — विविध प्रकार के अन्य सामान्य पाप
उदाहरण :
“यथा; विष्णुः – पुरुषस्य काम-क्रोध-लोभाख्यं रिपुत्रयं सुघोरं भवति।”
जैसा कि विष्णु धर्मसूत्र में कहा गया है — मनुष्य के काम, क्रोध और लोभ नामक तीन रिपु (शत्रु) अत्यंत भयानक होते हैं।
तेनायमाक्रान्तः… इनसे आक्रांत होकर मनुष्य महापातक, अतिपातक, समापातक, उपपातक, सङ्करीकरण, मलिनीकरण, अपात्रीकरण, जातिभ्रंशकरण और प्रकीर्णक जैसे पापों में प्रवृत्त हो जाता है।
पञ्चपातकगण (कात्यायनेनोक्तम्)
महापापं चातिपापं तथा पातकमेव च । प्रासङ्गिकं चोपपापमित्येवं पञ्चको गणः ।”
कात्यायन ने कहा है कि पापों के पाँच प्रकार होते हैं:
- महापाप (महान पाप),
- अतिपाप (अत्यन्त निंदनीय पाप),
- पातक (साधारण पाप),
- प्रासंगिक पाप (संबंध में हुए या अवसरजन्य पाप),
- उपपातक (पातक से लघु/हल्के निंदनीय पाप)।
“अत्र ‘पातकम्’ इति समपापान्युक्तानि।”
यहाँ “पातक” शब्द के अंतर्गत समान स्तर के (सामान्य) पाप गिनाए गए हैं।
“उपपातकेषु कानिचिदगम्यागमनादीनि वान्तरभेदाविवक्षया ‘प्रासङ्गिकम्’ इत्युक्तानि।”
कुछ उपपातकों जैसे कि अगम्यागमन (वर्जित स्त्रीगमन) आदि को यदि अवसरजन्य, परिस्थिति-जन्य अथवा अपवाद रूप में देखा जाए, तो उन्हें प्रासंगिक पाप कहा जाता है।
“अतिपातकाद्यवान्तरभेदाविवक्षया त्रैविध्यमुक्तं विज्ञानेश्वरीये” , “महापातकतुल्यानि पापान्युक्तानि यानि तु । तानि पातकसंज्ञानि, तन्यूनम् उपपातकम् इति।”
विज्ञानेश्वरी टीका में कहा गया है कि: जो पाप महापातक के तुल्य हैं पर सीधे उसी को स्पर्श नहीं करते, उन्हें पातक कहा जाता है। और जो उनसे भी हल्के हैं, वे उपपातक कहे जाते हैं।
हम अन्य विद्वद्जनों से भी इसी प्रकार की शास्त्रसम्मत व ज्ञानवर्द्धक संकलन, आलेख की आकांक्षा करते हैं।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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