प्राणायाम विधान : प्राणायाम कैसे करें
श्वास लेना, रोकना और छोड़ना यह प्राणायाम की तीन क्रिया है, जिसमें रोकने की क्रिया दो बार होती है श्वास लेने के पश्चात् भी और छोड़ने के पश्चात् भी। इस क्रिया के लिये अंगुलियों का भी प्रयोग किया जाता है। साथ ही सबसे बड़ी बात मंत्र प्रयोग है और वैज्ञानिक अवधारणा में क्रिया को महत्वपूर्ण और मंत्र को गौण सिद्ध किया जाता है जो कि अनुचित है। धर्म-कर्मकांड में क्रिया से अधिक मंत्र का महत्व होता है।
संवर्त्त – प्रणवेन तु संयुक्ता व्याहृतीस्सप्त नित्यशः । सावित्रीं शिरसा सार्धं मनसा त्रिः पठेद्विजः ॥
यथा देवता को बुलाने, विदा करने, पूजा आदि में क्रिया से अधिक महत्व मंत्र का ही सिद्ध होता है। किन्तु ऐसा नहीं कि क्रिया का महत्व नहीं है किन्तु मंत्र का अधिक महत्व है।
भूर्भुवस्स्वर्महर्जनस्तपत्सत्यं तथैव च । प्रत्योङ्कारसमायुक्तं तथा तत्सवितुःपदम् ॥
ओमापो ज्योतिरित्येतच्छिरः पश्चात्प्रयोजयेत् । त्रिरावर्तनयोगात्तु प्राणायामस्तु शब्द्यते ॥
भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यं इन सबको ओंकार से संयुक्त करके, तत्सवितुर पद पढ़े फिर गायत्रीशिर ॐ आपो ज्योति को पढ़े। इसका प्राणायाम की क्रियाओं में प्रयोग (जप) करे और तीन आवृत्ति के योग को एक प्राणायाम कहा जाता है। – योगयाज्ञवल्क्य, अनेकानेक प्रमाणों में यही बात बताई गयी है कुछ प्रमाण नीचे दिये जा रहे हैं :
मनु – सव्याहृतिं सप्रणवां गायत्रीं शिरसा सह । त्रिः पठेदायतप्राणः प्राणायामस्स उच्यते ॥
सप्त व्याहृतयः प्रोक्ताः प्राणायामे तु नित्यशः । भूर्भुवस्स्वर्महर्जनस्तपस्सत्यं तथैव च ॥
यम – ओङ्कारपूर्विकास्सप्त जपेत्तु व्याहृतीस्तथा । शिरसा सह गायत्री प्राणायामः परन्तप ॥
इस प्रकार से प्राणायाम का मंत्र बताया गया है : ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम् ॥ ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥ ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों॥ प्राणायाम की क्रियाओं में इस मंत्र का जप करते रहना चाहिये।
यम ने दश प्रणव कहा है, मन्त्रान्त में भी प्रणव युक्त करने से ही प्रणव की संख्या 10 होती है।
यम – दशप्रणवसंयुक्तैः प्राणायामैश्चतुर्दशैः । मुच्यते ब्रह्महत्यायाः किं पुनश्शेषपातकैः ॥
- बृहस्पति – बध्वाऽऽसनं नियम्यासून् स्मृत्वा चार्षादिकं तथा । संनिमीलितदृङ्ग्मौनी प्राणायामं समभ्यसेत् ॥
प्राणायाम की तीन क्रिया
पूरक, कुम्भक और रेचक प्राणायाम के तीन लक्षण अथवा क्रिया हैं – “पूरकः कुम्भको रेच्यः प्राणायामस्त्रिलक्षणः” – योगयाज्ञवल्क्य
नासिकाकृष्ट उच्छासो ध्मातः पूरक उच्यते । कुम्भको निश्चलश्वासो रिच्यमानस्तु रेचकः ॥
- दाहिने अंगुष्ठ से दक्षिण नासापुट को बंद करके, वामनासापुट से दीर्घ श्वास लेना पूरक संज्ञक होता है।
- फिर मध्यमा और अनामिका से वामनासापुट को भी बंद करके श्वास रोकना कुम्भक है एवं,
- दक्षिण नासापुट से अंगुष्ठ हटाकर धीरे-धीरे श्वास छोड़ना रेचक है।
तीनों क्रियाओं में मंत्र का भी प्रयोग अर्थात जप करते रहना चाहिये।
योगयाज्ञवल्क्य – कुम्भके विष्णुसायुज्यं पूरके ब्रह्मणोऽन्तिकम् । रेचकेन तृतीयेन प्रानुयादैश्वरं पदम् ॥
पूरक
योगयाज्ञवल्क्य – बाह्यस्थितं घ्राणपुटेन वायुं आकृष्य यत्नेन शनैस्समस्तम् ।
नाड्यश्च सर्वाः परिपूरणीयाः स पूरको नाम महानिरोधः ॥
कुम्भक
व्यास – नाभिपद्मस्थितं ध्यायेत् कं रक्तं पूरणेन तु । नीलोत्पलाभं हृत्पद्ये कुम्भकेन जनार्दनम् ॥
रेचक
ललाटस्थं शिवं श्वेतं रेचकेनापि चिन्नयेत् । शुद्धस्फटिकसङ्काशं निर्मलं पापनाशनम् ॥
योगयाज्ञवल्क्य – शनैर्नासापुटे वायुमुत्सृजेन्न तु वेगतः । न कम्पयेच्छरीरं तु स योगी परमो मतः ॥
ध्यान
बृहस्पति – रक्तं प्रजापतिं ध्यायेद्विष्णुं नीलोत्पलमभम् । शङ्करं त्र्यम्बकं श्वेतं ध्यायन्मुच्येत बन्धनात् ॥
विनियोग
व्यास – प्रणवस्य ऋषिह्मा गायत्रं छन्द एव च । देवोऽग्निस्मर्वकर्मादौ विनियोगः प्रकीर्तितः ॥
ब्रह्मा – विश्वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतमः । ऋषिरत्रिर्वसिष्ठश्च कश्यपश्च यथाक्रम् ॥
व्याहृतीनां तु सर्वासामार्षं चैव प्रजापतिः । गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्च बृहती पङ्क्तिरेव च ॥
त्रिष्टुप्च जगती चैव छन्दांस्येतानि सप्त वै । अनिर्वायुस्तथाऽऽदित्यो बृहस्पत्याप एव च ॥
इन्द्रश्च विश्वेदेवा च देवतास्समुदाहृताः । प्राणायामप्रयोगे च विनियोग उदाहृतः ॥
सवितादेवता यस्या मुखमग्निस्त्रिपाच्च या । विश्वामित्र ऋषिश्छन्दो गायत्री सा विशिष्यते ॥
विनियोगस्तूपनये प्राणायामे तथैव च। ओमापो ज्योतिरित्येष मन्त्रो यस्तु प्रकीर्त्यते ॥
तस्य प्रजापतिश्चार्षं यजुश्छन्दो विवर्जितम्। ब्रह्मा वायुश्च सूर्यश्च देवतास्समुदाहृताः ॥
प्राणस्यायमने चैव विनियोग उदाहृतः॥ – योगयाज्ञवल्क्य
न्यास
ब्रह्मा – पादयोश्च तथा जान्वोर्जङ्घयोर्जठरेऽपि च । कण्ठे मुखे तथा मूनि क्रमेण व्याहृतीर्न्यसेत् ॥
भूरङ्गुष्ठद्वये न्यस्य भुवस्तर्जनिकाद्वये । ज्येष्ठाङ्गुलिद्वये धीमान् स्वःपदं विनियोजयेत् ॥
करन्यासविधिं कृत्वा अङ्गन्यामं समारभेत् । भूःपदं हृदि विन्यस्य भुवश्शिरसि विन्यसेत् ॥
शिखायां स्वःपदं न्यस्य कवचे तत्पदं न्यसेत् । अक्ष्णोर्भर्गपदं न्यस्य दिग्विदिक्षु धियःपदम् ॥
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कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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