कर्मकांड सीखने की चर्चा में एक गंभीर विषय यह है कि क्या कर्मकांडी पंडित का जन्म से ब्राह्मण होना आवश्यक है ? वर्त्तमान युग में धर्मद्रोहियों द्वारा गिरोह बनाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है कि वर्ण निर्धारण में जन्म का कोई महत्व नहीं होता है, वर्ण कर्मानुसार सुनिश्चित होते हैं और व्यक्ति अपने वर्ण का निर्धारण स्वयं कर सकता है जिसका माध्यम कर्म होता है। जबकि यह शास्त्र से सिद्ध नहीं होता है हां शास्त्रों के ही कुछ वचनों द्वारा वो गिरोह उटपटांग कुतर्क भी किया जाता है। यहां हम शास्त्रोक्त प्रमाणों के माध्यम से यह समझेंगे कि क्या कर्मकांडी पंडित का जन्म से ब्राह्मण होना आवश्यक है ?
क्या कर्मकांडी का ब्राह्मण कुल में जन्म लेना अनिवार्य है ? ब्राह्मण जन्म से या कर्म से – brahman janm se ya karm se
आगे की चर्चा से पूर्व यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कर्मकांड सीखने के लिये ब्राह्मण होना अनिवार्य नहीं है अपितु जिनका उपनयन होता है सभी सीख सकते हैं, किन्तु कर्मकांड सीखना और कर्मकांडी बनना दोनों में अंतर है। कर्मकांडी बनने के लिये जन्म से भी ब्राह्मण होना आवश्यक है और इसी विषय की प्रामाणिक चर्चा यहां की गयी है। किन्तु इस विषय को समझने के लिये यह खंडन भी आवश्यक है कि “वर्ण का निर्धारण कर्म से होता है जन्म से नहीं” क्योंकि अनेकानेक संगठन, संस्थायें इस प्रकार का भ्रामक तथ्य प्रचारित करते हैं।
वर्ण का निर्धारण जन्म से होता है अथवा नहीं वर्त्तमान में यह विवादित विषय बनता जा रहा है। जो शास्त्रों की व्याख्या करने वाले हैं, ज्ञाता हैं वो इन विषयों पर मौन रहते हैं, जो प्रसिद्ध कथावक्ता होते हैं वो जूते-चप्पलों के भय से अपने मुख पर ताला लगाये रखते हैं किन्तु जो अज्ञानी हैं और धर्म से कोई संबंध नहीं रखते वो धर्म के विषयों की व्याख्या करते रहते हैं। इसी विषय में से एक है वर्ण का निर्धारण जन्म से होता है अथवा कर्म से। इस आलेख में वर्ण निर्धारण संबंधी शास्त्रोक्त चर्चा की गयी है।
वर्त्तमान की राजनीति इतनी निकृष्ट श्रेणी की है जिसमें धर्म का लेश मात्र भी नहीं मिलता अपितु स्थिति तो यह है कि भले ही कलयुग के कारण धर्म का ह्रास स्वाभाविक है किन्तु प्रत्यक्ष और सबसे बड़ी भूमिका राजनीति का ही है। भौतिक रूप से भारत रूपी भूखंड स्वतंत्र कहा जाता हो किन्तु वैचारिक स्वतंत्रता की प्राप्ति नहीं हुयी है। अभी भी आक्रांताओं के विचार ने बहुत से लोगों को अपना दास बना रखा है और वर्त्तमान भारत की राजनीति को बड़े स्तर पर वो प्रभावित करते रहे हैं व कर रहे हैं।
हम वर्ण व्यवस्था की चर्चा में यहाँ यह समझेंगे कि इसका आधार क्या है जन्म या कर्म। वर्तमान में कुछ संगठन वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं। गोस्वामी जी के राम चरित मानस की इस चौपाई को प्रमाण मानकर “करम प्रधान विश्व करि राखा” कर्म को ही वर्ण व्यवस्था का आधार सिद्ध किया जाता है, और बहुत जोर-शोर से यह सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है कि वेदों ने स्वेच्छाचारिता का प्रतिपादन किया है, जिसे जो कर्म करना हो करे और कर्म के अनुसार वर्ण होगा।
जबकि इसका पूर्ण अर्थ अगले पाद में स्पष्ट हो जाता है “जो जस करहिं सो तस फलु चाखा” अर्थात जो जैसा कर्म करता है उसे वैसे फल मिलता है। कर्म का यह सिद्धांत फल प्रतिपादन हेतु है न कि वर्ण निर्धारण हेतु। फिर भी कुतर्कियों को क्या कहा जाय वो झूठइ लेना-झूठइ देना के सिद्धांत पर चलने वाले हैं।

“जन्मना जायते शूद्रः” कई पौराणिक श्लोकों में पाया जाता है इसको भी आधार बनाया जाता है यद्यपि वो लोग इसे मनुस्मृति का बताते है और यह भी गलत है। इसके आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि सभी जन्म से शूद्र ही होते हैं और जो वर्ण को चयन करने की स्वतंत्रता होती है।
कुछ समय पूर्व इस “जन्मनाजायते शूद्रः” पौराणिक श्लोक को आर्यसमाजादि वाले लोग मनुस्मृति का कहकर सबको भ्रमित करते थे, जबकि मूल श्लोक पुराणों का है और वे पुराणों को मानते नहीं, फिर पुराणों से हवाला दे तो दें कैसें ? तो युक्ति लगायी कि इसे मनुस्मृति का कहकर भ्रामक प्रचार-प्रसार करो जिससे कर्मणा सिद्धान्त मजबूत हों और स्मार्त्तों का वेदविद्वानों का जन्मना सिद्धान्त कमजोर हो।
कर्म की प्रधानता का निष्कर्ष यह है कि फल हेतु कर्म प्रधान है और कर्म के अनुसार ही मृत्यु के उपरांत की गति भी होती है। किसी के जन्म में उसके पूर्व जन्म के कर्मों का भी योगदान होता है अर्थात विशेष स्थान, घर, जाति, वर्ण आदि तो दूर की बात है योनि तक में कर्म का योगदान होता है। किसे कुत्ते की योनि में जाना होगा और किसे नाली का कीड़ा बनना होगा यह पूर्व जन्म के कर्म ही निर्धारित करते हैं।
कर्म फल के अनुसार यदि कुत्ता योनि मिले और वह लाल खून के आधार पर मनुष्य से समानता के लिये लड़ने लगे तो क्या होगा – दोनों में से एक समाप्त हो जायेगा या तो कुत्ते सभी मनुष्यों को काट खायेंगे अथवा मनुष्य सभी कुत्तों को मार देगा ? इसलिये लाल खून के आधार पर समानता सिद्ध करने का प्रयास करना बहुत ही भयावह है।
कर्मफल के अनुसार जिसको जहां जन्म मिला पुनः उस जन्म के अनुसार उसके कर्म सुनिश्चित होते हैं, जैसे शेर योनि का भिन्न, चूहे का भिन्न, कुत्ते का भिन्न और गाय का भिन्न होता है। उसी प्रकार मनुष्य होने पर भी वर्ण-स्थान भेद से कर्म का निश्चय होता है अर्थात कर्म से वर्ण नहीं वर्ण से कर्म सुनिश्चित होता है। जो अधर्मी-पापात्मा हैं, आध्यात्मिक दृष्टि से रहित नारकीय जीव हैं वह विभिन्न वर्णों में जन्म के पीछे कर्म के सिद्धांत को नहीं समझते और इसी कारण कर्म से वर्ण निर्धारित होता है इस भ्रम के माध्यम से विश्व के विनाश का प्रयास करते हैं।
क्या कर्मकांडी का ब्राह्मण कुल में जन्म लेना अनिवार्य है ?
यदि कर्मकांडी/पंडित बनना चाहते हैं तो सर्वप्रथम आपके लिये यह जानना आवश्यक है कि कर्मकांडी बनने का अधिकार है अथवा नहीं। कर्मकांडी बनने के पीछे उद्देश्य वृत्ति हो सकता है किन्तु प्रमाण तो शास्त्र ही होगा क्योंकि कर्मकांडी बनने के उपरांत भी आपको शास्त्रों में आस्था रखना अनिवार्य होगा और यदि ऐसा नहीं करते तो कर्मकांडी नहीं ठग बन जायेंगे।
यदि कर्मकांडी/पंडित बनना चाहते हैं तो सर्वप्रथम आपके लिये यह जानना आवश्यक है कि कर्मकांडी बनने का अधिकार है अथवा नहीं। कर्मकांडी बनने के पीछे उद्देश्य वृत्ति हो सकता है किन्तु प्रमाण तो शास्त्र ही होगा क्योंकि कर्मकांडी बनने के उपरांत भी आपको शास्त्रों में आस्था रखना अनिवार्य होगा और यदि ऐसा नहीं करते तो कर्मकांडी नहीं ठग बन जायेंगे।
जो जन्म के सिद्धांत को नहीं मानने वाले हैं उनके मानने-न-मानने से क्या अंतर होगा ? जैसे दिन में कोई कहे कि सूर्य उदित है हम यह नहीं मानेंगे तो इसका सूर्य पर क्या प्रभाव होगा, किसे मूर्ख कहा जायेगा ? हां एक दूसरी बात यह है कि जब वह मूर्ख सिद्ध होने लगेगा तब कहेगा सूर्य का न तो कभी उदय होता है न अस्त होता है, आदि-इत्यादि कुतर्क करते हुये झेंपने का प्रयास करने लगेगा।
- जन्म से संपत्ति का उत्तराधिकार प्राप्त होता है।
- जन्म से कुटुम्ब प्राप्त होते हैं।
- जन्म से गुण-दोष भी प्राप्त होते हैं और इसे अस्वीकार करने वाला मूर्ख है।
पानी एक ही है, सबका रासायनिक सूत्र भी एक ही होगा किन्तु क्या सभी पानी के गुण-दोष समान होते हैं ?
- समुद्र के पानी का स्वाद, गुण-दोष कुछ होता है तो नदियों के पानी का स्वाद गुण-दोष कुछ और होता है, अपितु सभी नदियों के जल का भी स्वाद, गुण-दोष समान नहीं होते।
- उसी प्रकार तालाब-कूप आदि के जल का भी स्वाद-गुण-दोष भिन्न होते हैं। कुछ ही दूरी पर स्थित दो चापाकल के पानी का भी स्वाद-गुण-दोष भिन्न देखा जाता है।
- भिन्न-भिन्न वृक्षों के फल का स्वाद-गुण-दोष भी पृथक हो जाता है कहने को भले ही कोई एक फल हो। एक मात्र आम को लिया जाय तो स्थान-स्वाद-गुण-दोष आदि के कारण अनेकों प्रजातियां होती है जिनमें कुछ अच्छे लगते हैं और कुछ नहीं। कई वृक्ष ही ऐसे होते हैं जिसके सभी फल शीघ्रता से सड़ जाते हैं, कई वृक्षों में लदे फल में भी कीड़े लग जाते हैं।
यह कुतर्क सामान्य रूप से सुना जाता है कि सबके खून का रंग लाल ही होता है। किन्तु इसका दूसरा पहलू भी तो है इन लोगों की दृष्टि मात्र सांसारिक है और अध्यात्म से, शास्त्रों से, धर्म से इनका कोई लेना-देना नहीं होता। जब इन लोगों दृष्टि आध्यात्मिक है ही नहीं तो इनके द्वारा आध्यात्मिक विषय पर वक्तव्य कैसे दिया जा सकता है ?
- सबके खून का रंग भले ही लाल हो किन्तु सबके खून का भी गुण-दोष भिन्न होता है।
- यदि लाल रंग के खून से समानता सिद्ध होती है तो कुत्ते, गधे आदि का खून भी तो लाल ही होता है।
- सबके खून का रंग लाल ही होता है तो सबके ब्लड-टेस्ट का रिपोर्ट भी एक ही क्यों नहीं होता है ?
आइये इस कुतर्क का चीरहरण करते हैं :
- जो लोग सबके खून का रंग लाल है और सब समान है का कुतर्क करते हैं उन्हें कुत्ती का दूध पीलाना चाहिये क्योंकि कुत्ती का दूध भी उजला ही होता है, और इसके साथ ही उसके घर में जो बच्चे जन्म लें उन बच्चों के लिये मां का दूध नहीं अपितु कुत्ती के दूध का ही नियम बना लेना चाहिये।
- अरे मूर्खों गाय और भैंस का दूध भी दिखने मात्र में श्वेत दिखता है, गुण-दोष भिन्न होते हैं अर्थात प्रभाव भिन्न होता है।
- गाय और भैंस की चर्चा तो दूर की हो गयी भिन्न-भिन्न गायों के दूध का भी गुण-दोष भिन्न होता है।
इसका निष्कर्ष यह है कि जो आध्यात्मिक दृष्टिकोण से रहित हो मात्र सांसारिक दृष्टिकोण से आध्यात्मिक विषय की चर्चा नहीं करनी चाहिये। सांसारिक दृष्टिकोण रखने वालों को सांसारिक चर्चा ही करनी चाहिये। आध्यात्मिक चर्चा में सम्मिलित होने के लिये आध्यात्मिक चक्षु का खुला होना भी आवश्यक होता है। सबके खून का रंग लाल ही होता है ऐसा कहना सांसारिक दृष्टिकोण है, सबके खून का गुण-दोष भिन्न होता है यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सिद्ध होता है।
ब्राह्मण जन्म से या कर्म से
तर्क के माध्यम से ऊपर यह सिद्ध हो चुका है कि कर्म प्रधान है और कर्म की प्रधानता के कारण ही विशेष वर्ण-स्थान ही नहीं विभिन्न योनियों में भी जन्म होता है। जिस प्रकार गाय, शेर, सर्प, श्वान आदि जीवों के कर्म-स्वभाव-गुण-दोष आदि भिन्न होते हैं और सभी के कर्म का निर्धारण उसके योनि के अनुसार होता है उसी प्रकार विभिन्न वर्ण के लिये भी उसके कर्म-स्वभाव-गुण-दोष आदि का निर्धारण होता है। इस प्रकार कर्म का निर्धारण जन्म होता है अर्थात वर्ण से कर्म का निर्धारण होता है न कि कर्म से वर्ण का। आगे शास्त्रोक्त चर्चा के माध्यम से और समझते हैं :
जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते। वेदपाठाद् भवेद् विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः॥ - स्कन्दपुराण
इसके आधार पर यदि आप इसका ये अर्थ करतें हैं कि वर्ण कर्म के द्वारा कोई भी बदल सकता है । तो इस श्लोक का ये अर्थ बिल्कुल भी नहीं है । इस श्लोक में चार वर्णों की तो कोई चर्चा ही नहीं है।
इस श्लोक में मात्र एक वर्ण ब्राह्मण की चर्चा है और ब्राह्मण के ४ स्तर को बताया गया है जिसका वास्तविक तात्पर्य यह है : ब्राहण घर में जन्म होने मात्र से शूद्रवत समझना चाहिये अर्थात जन्म मात्र से वेद का अधिकारी नहीं होगा, संस्कारों से द्विज संज्ञा होती है अर्थात वेद पाठ का अधिकारी होता है, वेद पाठ करने वाले की विप्र संज्ञा होती है और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने पर ब्राह्मण संज्ञा होती है। यहां पर ब्राह्मण विशेषता प्रकट करने के लिये प्रयुक्त किया गया है। वर्ण के रूप में ब्रह्मज्ञान न भी हो तो भी ब्राह्मण वर्ण सिद्ध होता ही है।
- यदि उपनयन होने से ब्राह्मणत्व की प्राप्ति होती हो तो फिर चार वर्ण की क्या आवश्यकता है सभी उपनयन के पश्चात् ब्राह्मण ही हो जायेंगे।
- यदि ज्ञान/तपस्या/सिद्धि आदि से ब्राह्मण वर्ण की सिद्धि होती हो तो भी चार वर्णों की आवश्यकता सिद्ध नहीं होती।
- यदि कर्म से ही वर्ण का निश्चय होता तो रावण, परशुराम आदि का वर्ण परिवर्तन क्यों नहीं हुआ ?
वास्तविकता यह है कि वर्ण का निर्धारण जन्म से होता है और कर्म का निर्धारण वर्ण करता है। जबकि सनातन द्रोहियों द्वारा यह भ्रम उत्पन्न किया जा रहा है कि वर्ण का निर्धारण कर्म से होता है पूर्णतः विपरीत नियम।
यदि उपनयन संस्कार से वर्ण की प्राप्ति होती है और उपनयनपूर्व सभी शूद्र होते हैं तो फिर मनु के इस वचन का क्या औचित्य है : गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् । गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः ॥ – मनुस्मृति में बताया गया है कि गर्भ से अष्टम वर्ष में ब्राह्मण का, ग्यारहवें वर्ष में क्षत्रिय का और बारहवें वर्ष में वैश्य का उपनयन करे। जन्म से सभी शूद्र हैं और सबका उपनयन एक आयु में होनी चाहिये तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के उल्लेख की क्या आवश्यकता थी ? इनमें भी सबके लिये आयु पृथक कैसे हो सकता है जब उपनयन पूर्व सभी शूद्र ही हैं तो ? यह एक मात्र वचन नहीं है और भी हैं :
आषोडषाद् द्वाविंशाच्चतुर्विंशाच्च वत्सरात् । ब्रह्म क्षत्र विशां काल औपनायनिकः परः॥
इस प्रकार प्रमाण से ही स्पष्ट हो जाता है कि वर्ण का निर्धारण जन्म से ही होता है। यदि जन्म से वर्ण का निर्धारण नहीं होता है तो उपनयन में ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य के लिये भिन्न-भिन्न आयु क्यों कही गयी है क्योंकि कर्म तो वह बाद में करेगा न उपनयन से पूर्व कौन सा कर्म करता है अथवा उपनयन के पश्चात् भी अध्ययन तक तो सभी का वर्ण ब्राह्मण ही रहना चाहिये था।
पुनः जन्म से यदि सभी शूद्र होते हैं तो किसी का उपनयन नहीं हो सकता क्योंकि शूद्र का उपनयन निषेध है। यदि शूद्र का उपनयन निषेध है और जन्म से सभी शूद्र होते हैं तो किसी का भी उपनयन नहीं होना चाहिये। अर्थात जन्म से ही वर्ण का निश्चय होता है।
“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः”
भगवान कृष्ण ने गीता में जो चार वर्णों के लिये “चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः” कहा है उसका तात्पर्य तो यही है कि वर्ण का निर्धारण गुण-कर्म के आधार पर किया गया है, गुण-कर्म तो जन्म से ही निर्धारित होता है अर्थात वर्ण का निर्धारण जन्म से ही होता है और वर्ण के अनुसार कर्म। कर्म सिद्धांत पूर्व और पर दोनों से जुड़ा है अर्थात पूर्व कर्मों के अनुसार योनि-वर्ण आदि की प्राप्ति भी होती है और प्राप्त योनि-वर्णादि के अनुसार पुनः कर्म निर्धारित होता है।
जन्म से वर्ण-जाति-कर्म का निर्धारण समझने के लिये हमें वर्त्तमान राजनीति के उदाहरण की आवश्यकता है :
- राहुल गांधी किस आधार से नेता हैं और प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं, नेता प्रतिपक्ष हैं, जन्म से अथवा कर्म से ?
- तेजस्वी यादव किस आधार से नेता हैं, मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं, उपमुख्यमंत्री रह चुके हैं, जन्म से अथवा कर्म से ?
- अखिलेश यादव किस आधार से नेता हैं, मुख्यमंत्री रह चुके हैं, जन्म से अथवा कर्म से ?
इसी प्रकार अनेकों नाम हैं, लेकिन इनकी विशेषता क्या है ? इनकी विशेषता तो विशेष परिवार में जन्म लेना ही है न ? यदि कर्म-योग्यता आदि की बात करें तो हजारों कार्यकर्त्ता इनसे श्रेष्ठ होंगे, किन्तु जन्म से पिछड़ गये। कर्म से वर्ण निर्धारण की चर्चा, सबका खून लाल ही है का कुतर्क मुख्य रूप से नेता लोग ही तो करते हैं, फिर इनके लिये जन्म क्यों महत्वपूर्ण हो जाता है ? इसी प्रकार से अन्य क्षेत्रों में भी देखा जाता है बस आंख खोलकर देखने की आवश्यकता है। कुछ अपवाद भी होते हैं और अपवादों के आधार पर नियम असिद्ध नहीं होता है। जैसे नरेंद्र मोदी अपवाद हैं और मोदी ही नहीं भाजपा पार्टी ही अपवाद है।
कर्मकांडी को गुण-तेज-दिव्यता कैसे प्राप्त होता है ?
इसी प्रकार अनेकों नाम हैं, लेकिन इनकी विशेषता क्या है ? इनकी विशेषता तो विशेष परिवार में जन्म लेना ही है न ? यदि कर्म-योग्यता आदि की बात करें तो हजारों कार्यकर्त्ता इनसे श्रेष्ठ होंगे, किन्तु जन्म से पिछड़ गये। कर्म से वर्ण निर्धारण की चर्चा, सबका खून लाल ही है का कुतर्क मुख्य रूप से नेता लोग ही तो करते हैं, फिर इनके लिये जन्म क्यों महत्वपूर्ण हो जाता है ? इसी प्रकार से अन्य क्षेत्रों में भी देखा जाता है बस आंख खोलकर देखने की आवश्यकता है। कुछ अपवाद भी होते हैं और अपवादों के आधार पर नियम असिद्ध नहीं होता है। जैसे नरेंद्र मोदी अपवाद हैं और मोदी ही नहीं भाजपा पार्टी ही अपवाद है।
जिस प्रकार शरीर में सप्तकोष होते हैं उसी प्रकार 84 कलायें भी होती है। कुल 84 कलायें (प्राणात्मक ऊर्जा) होती है। शरीर सप्तकोशात्मक पिण्ड होता है जो पिता के अग्नि (वीर्य) और माता के सोम (रज) के संयोग का प्रतिफल होता है जो पिण्ड रूप में परिणत होता है और उस पिण्ड में 84 कला होती है जिसमें से मात्र 28 कला अर्जित किया जाता है शेष 56 कलायें पूर्वजों से ही अर्थात जन्म से ही मिलता है। इस प्रकार मनुष्य स्वयं के गुण-दोषों का जितना भाग अर्जित करता है उससे द्विगुणित उसे जन्म से ही प्राप्त होता है। कलाओं की चर्चा
अर्थात जिस वर्ण में जिसका जन्म होता है उस वर्ण के गुण-तेज-दिव्यता आदि भी प्राप्त होते हैं और यह खून के रंग जैसा दिखता नहीं है।
इस प्रकार से यह सिद्ध हो जाता है कि कर्मकांडी बनने के लिये जिस गुण-दिव्यता-तेज आदि की आवश्यकता होती है वह जितना अर्जित किया जा सकता है उससे दोगुना कर्मकांडी ब्राह्मण के यहां जन्म लेने से ही प्राप्त होता है। और इस प्रकार कर्मकांडी ब्राह्मण के घर में जन्म लेने वाला स्वार्जित गुण-तेज-दिव्यता से रहित होने पर भी अन्यों की अपेक्षा जो कर्म से वर्ण निर्धारण का कुतर्क रचते हैं दोगुणा श्रेष्ठ होता है और यदि स्वार्जित गुण-तेज-दिव्यता भी तो तब तो कहना ही क्या ?
इस प्रकार यह भी सिद्ध होता है कि जो जन्म से ब्राह्मण होते हैं और जो कर्म से ब्राह्मण बनना चाहते हैं उनमें किसी प्रकार से तुलना भी नहीं की जा सकती है। कर्म से ब्राह्मण बनने पर अर्थात स्वार्जित गुण-दिव्यता-तेज आदि प्राप्त होने पर भी यदि जन्मजात गुण-दिव्यता-तेज न हो तो वह तृतीयांश मात्र ही होता है।
अब उपरोक्त तथ्यों के संदर्भ में भी प्रमाण की अनिवार्यता तो बनती है जो यह बताता हो कि ब्राह्मण हेतु जन्म से भी ब्राह्मण होना आवश्यक है :
तपः श्रुतञ्च योनिश्चेत्येतद् ब्राह्मणकारकं।
तपः श्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव सः॥
महाभारत के इस वचन में ब्राह्मणत्व के तीन कारक कहे गये हैं : तपस्या, वेद (ज्ञान) और योनि अर्थात ब्राह्मण कुल में जन्म प्राप्त करना। पुनः उपरोक्त वचन का समर्थन पतञ्जलि भाष्य में भी किया गया है और थोड़ा शब्द परिवर्तन करके “तपः श्रुतञ्च” के स्थान पर “विद्या तपश्च” कहा गया है जिसका तात्पर्य भी वही है।
विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥
निष्कर्ष : वर्ण का निर्धारण जन्म से ही होता है, कर्म से नहीं अपितु कर्म का निर्धारण वर्ण से होता है और इसीलिये ब्राह्मण के कर्म, क्षत्रिय के कर्म आदि कहे गये हैं। कुछ लोग कर्म से वर्ण का कुतर्क रचते हैं जो कि भयावह है। जन्म से जितने गुण-तेज-दिव्यता की प्राप्ति होती है उसका मात्र आधा ही अर्जित किया जा सकता है। इस प्रकार एक कर्मकांडी के लिये यह आवश्यक है कि वह जन्म से ब्राह्मण हो। जन्म से ब्राह्मण न होने पर स्वार्जित गुण-तेज-दिव्यता आदि के आधार पर वर्ण निर्धारित नहीं हो सकता है।
विनम्र आग्रह : त्रुटियों को कदापि नहीं नकारा जा सकता है अतः किसी भी प्रकार की त्रुटि यदि दृष्टिगत हो तो कृपया सूचित करने की कृपा करें : info@karmkandvidhi.in
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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