भोजन पकाना और भोजन परोसना यह स्त्रियों का विशेष महत्वपूर्ण कर्तव्य है और स्त्री धर्म पद्धति (stri dharm) में इसका विशेष वर्णन मिलता है। वर्त्तमान युग में महिला अधिकार को लेकर जो थोड़ा-बहुत पढ़ लेती है वो उत्पात मचाने लगती है। जो नौकरी करने लगती है वो पति को नौकर समझने लगती है (कुछ अपवादों को छोड़कर) और ये शिक्षा व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था का दोष है कि संस्कृति के विपरीत धारा बहाई जा रही है और इसी को अच्छा कहा जा रहा है जो भारतीय संस्कृति के पूर्णतः विरुद्ध आचरण है।
यहां भोजन निर्माण पत्नी का स्त्री धर्म है और भोजन कराना (परोसना) भी इसकी सप्रमाण चर्चा की गयी है जो अपनी संस्कृति में आस्था रखने वाली स्त्रियों/बच्चियों के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण है।
भोजन निर्माण व परिवेषण स्त्री धर्म | stri dharm – 9
भोजन के विषय में कि भोजन निर्माण और कराना स्त्रियों का स्त्री धर्म है इसे एक तर्क से भी सम्पुष्टी मिलती है यद्यपि शास्त्राज्ञा होने पर तर्क की न तो कोई आवश्यकता है और न ही कोई औचित्य तथापि समझने के लिये आवश्यक है। सभी प्राणियों में एक सामान्य सी बात देखने को मिलती है और वो है बच्चों को जन्म देना और उसके आहार की व्यवस्था।
माता ही बच्चों को जन्म देती है और बच्चे की आहार की व्यस्था के लिये उसके स्तनों में दुग्ध उतपन्न होता है। विचार कीजिये बच्चे को जन्म देने से पूर्व भी वही आहार करने वाली स्त्री के स्तनों में दुग्ध नहीं होता किन्तु बच्चे के जन्मोपरांत दुग्ध हो जाता है। इस तर्क से सिद्ध होता है कि भोजन निर्माण और परोसना दोनों ही स्त्री का धर्म है जो प्रकृतिसिद्ध भी है तर्कसिद्ध भी है।
बच्चियों को इस विषय का ज्ञान देना परिवार (माता-पिता) आदि का परम कर्तव्य है क्योंकि भविष्य में वो भी किसी की पत्नी बनेगी। वर्त्तमान युग में देखा जाता है कि इस विषय को लेकर विवाद चलता रहता है और ऐसा भी कहा-सुना जाता है कि दोनों मिलकर भोजन बनायेंगे, साथ में भोजन करना तो सामान्य सी बात हो गयी है जबकि पत्नी को पति के लिये भोजन परोसना चाहिये किन्तु भोजन करते समय वहां नहीं रहना चाहिये, पत्नी की उपस्थिति में पति भोजन न करे ऐसा कहा गया है।
तो जो पति-पत्नी आधुनिकता के दलदल में फंस गये हैं उनकी छोड़ दें जो आगे किसी की पत्नी बनने वाली बच्चियां हैं उनको तो शिक्षा देनी ही चाहिये। साथ ही बेटो के लिये बहु ढूंढने में भी इस तथ्य का परिक्षण अवश्य ही करना चाहिये।
सामान्यतः पुरुषों के लिये धर्म, कर्म, मर्यादा, आचरण आदि शास्त्रों में सर्वत्र भरे-परे हैं किन्तु स्त्रियों के लिये नहीं हैं ऐसा नहीं है। स्त्रियों के लिये भी कर्तव्याकर्तव्य का शास्त्रों में निर्धारण किया गया है और जो भी आध्यात्मिक चर्चा करते हैं उनके लिये स्त्रियों के धर्म, कर्म, मर्यादा, आचरण आदि की चर्चा भी आवश्यक है। यदि चर्चा ही नहीं करेंगे तो आधुनिकता के नाम पर दुर्गंध ही फैलता रहेगा।
यहां स्त्री धर्म से संबंधित शास्त्रोक्त चर्चा की गयी है जिसके संकलनकर्त्ता विद्यावारिधि दीनदयालमणि त्रिपाठी जी हैं एवं हम उनका आभार प्रकट करते हैं। यह आलेख कई भागों में है एवं आगे अन्य लेख भी आ सकते हैं, यहां नवम भाग दिया गया है।

भोजन परिवेषण
परिवेषण (भोजन परोसना) स्त्री का धर्म : धर्मशास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि भोजन का परोसना (परिवेषण) पत्नी का विशेष कर्तव्य है।
आदिपर्व में उत्तंक के प्रसंग में, उसकी उपाध्यायिनी पत्नी ने स्वयं कहा कि वह कुण्डलों को लाकर ब्राह्मणों को परिवेषण करना चाहती है — “सैवमुक्ता उपाध्यायिनी उत्तङ्कमुवाच – गच्छ पौष्यं भिक्षस्त्र, तस्य क्षत्रियया ये पिनद्धे कुण्डले स्तः। ते आनयस्वेति। इतश्चतुर्थेऽहनि पुण्यकं भविता। ताभ्यां आबद्धाभ्यां ब्राह्मणान् परिवेष्टुमिच्छामि। शोभयमानां मां यथा ताभ्यां कुण्डलाभ्यां तस्मिन्नहनि संपादयामि।” — महाभारत, आदिपर्व
महाभारत, वनपर्व में द्रौपदी का भी वर्णन है — वह ब्राह्मणों और अतिथियों को माता की भाँति स्वयं भोजन कराती थी।
पतिस्तु द्रौपदी सर्वान् द्विजांश्चैव यशस्विनी।
मातेव भोजयित्वाग्रे शिष्टमाहारयत्तदा॥
आग्नेयपुराण में भी कहा गया है कि पत्नी को पति के इच्छित भोजन को तैयार कर स्वयं परोसना चाहिए – “यदिष्टं भोजने भर्तुस्तत्संपाद्याहरेत् स्वयम्”
भोजन और पात्र-शुद्धि का नियम : व्यास कहते हैं कि पत्नी को स्वयं पात्र धोकर घृतयुक्त, उष्ण, पथ्य और मित अन्न पति को परोसना चाहिए।
स्वयं प्रक्षाळ्य पात्राणि दत्तमन्नं तु भार्यया।
भोक्तव्यं सघृतं सोष्णं हितं पथ्यं मितं सदा॥
भोजन के समय पत्नी को पति के समीप नहीं बैठना चाहिए। याज्ञवल्क्य कहते हैं — “न भार्यादर्शनेऽश्नीयान्नैकवासा न संस्थितः॥”
श्रुति में आया है कि पत्नी की उपस्थिति में पति को उसके अन्ते (समीप) नहीं खाना चाहिए, अन्यथा संतति दुर्बल होती है – “जायाया अन्ते नाश्नीया – दवीर्यवदपत्यं भवति” — श्रुति
हस्तदत्त भोजन का निषेध : परिवेषण के समय अन्न को हाथ से नहीं परोसना चाहिए। यह दोषयुक्त है। शातातप कहते हैं —
हस्तदत्तानि चान्नानि प्रत्यक्षलवणं तथा।
मृत्तिका भक्षणं चैव गोमांसाभ्यशनं स्मृतम् ॥
लवणं व्यञ्जनं चैव घृतं तैलं तथैव च।
लेह्यं पेयं च विविधं हस्तदत्तं न भक्षयेत्॥
यम का कथन है —
हस्तदत्ता तु या भिक्षा लवणव्यञ्जनानि च।
भोक्ता शुचितां याति दाता स्वर्गं न गच्छति॥
हस्तदत्तास्तु ये स्निग्धा लवणव्यञ्जनानि च।
दातारं नोपतिष्ठन्ते भोक्ता भुञ्जीत किल्बिषम्॥
अत्रि कहते हैं —
घृतं वा यदि वा तैलं ब्राह्मण्या नखनिर्गतम्।
अभोज्यं तद्विजानीयाद्भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्॥
आपस्तम्ब का मत है —
घृतं तैलं च लवणं पानीयं पायसं तथा।
भिक्षा च हस्तदत्ता तु न ग्राह्या यत्र कुत्रचित्॥
तस्मादन्तर्हितं चान्नं पर्णेन च तृणेन वा। प्रदद्यान्न तु हस्तेनेति॥
दर्वी (चम्मच) से ही परिवेषण का विधान : आपस्तम्ब कहते हैं कि अन्न और व्यञ्जन सब दर्वी से ही परोसे जाएँ – “दर्व्या देयं कृतान्नं च समस्तव्यञ्जनानि च”
आपस्तम्ब कहते हैं कि – यदि कोई जल या पका अन्न दर्वी के अतिरिक्त किसी अन्य ढंग से देता है, तो वह भ्रूणहा, सुराप, चोर और गुरुतल्पगामी के समान दोषी होता है।
उदकं यत्पक्वान्नं योऽदर्व्या दातुमिच्छति।
स भ्रूणहा सुरापश्च स स्तेनो गुरुतल्पगः॥
लोहे के पात्र से परोसने का दोष : पराशर कहते हैं कि लोहे के पात्र में परोसा हुआ अन्न कुत्ते के जूठे के समान होता है।
आयसेन तु पात्रेण यदन्नमुपदीयते।
शुनोच्छिष्टमसौ भुङ्क्ते दाता तु नरकं व्रजेत्॥
पंक्ति-भोजन में समानता का नियम : वसिष्ठ कहते हैं कि एक पंक्ति में बैठाए गए लोगों को यदि प्रेम, भय या लोभ के कारण असमान अन्न परोसा जाए, तो वह ब्रह्महत्या के समान दोष है।
यद्येकपंक्तौ विषमं ददाति स्नेहाद्भयाद्वा यदि वाऽर्थहेतोः।
वेदेषु दृष्टामृषिभिः प्रगीतां तां ब्रह्महत्यां मुनयो वदन्ति॥
क्रमशः…..
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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