स्त्री धर्म को समझें अतिथि सेवा का महत्व | stri dharm – 8

स्त्री धर्म को समझें अतिथि सेवा का महत्व | stri dharm - 8

अतिथि सेवा का सनातन में विशेष महत्व है और यह आलेख संक्षेपतः अतिथि के महत्व से ही संबद्ध है जिसमें स्त्रियोचित अर्थात स्त्री धर्म पद्धति (stri dharm) से संबंधित तथ्यों को प्रकाशित किया गया है। परपुरुष संभाषण का निषेध है तो यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ब्राह्मण, अतिथि, निर्धन, दीन, पंगु आदि भी तो परपुरुष होंगे उनसे भी संभाषण, सेवा आदि का निषिद्ध हो जाना चाहिये, तभी तो पातिव्रत्य धर्म सुरक्षित रहेगा। तो यहां इस प्रश्न का भी उत्तर स्पष्ट होता है कि उपरोक्त सेवा कर्म में पातिव्रत्य का नाश नहीं होता अपितु यदि सेवा का त्याग कर दिया जाय तो पाप प्राप्त होता है।

जो नारी ब्राह्मण, निर्धन, अन्ध, पंगु और दीनजनों की सेवा करती है, वही पतिव्रता कहलाती है अर्थात यहां परपुरुष विषय प्रभावी नहीं होता और पातिव्रत्य सुरक्षित रहता है। इनकी सेवा-सत्कार में परपुरुष संबंधी विचार नहीं करना चाहिये। घर आये अतिथि की सेवा हो, भिक्षुक को भिक्षा देना हो, दीन-दुःखियों/पंगु आदि की सेवा हो, गुरु/ब्राह्मणों की सेवा हो इन कार्यों में परपुरुष संभाषण दोष का विचार नहीं होता है। अतिथि की सेवा करना गृहस्थों का कर्तव्य है और इसका पालन पति के न होने पर भी करना ही चाहिये। अतिथि के महत्व पर और भी सप्रमाण चर्चा यहां की गयी है।

सामान्यतः पुरुषों के लिये धर्म, कर्म, मर्यादा, आचरण आदि शास्त्रों में सर्वत्र भरे-परे हैं किन्तु स्त्रियों के लिये नहीं हैं ऐसा नहीं है। स्त्रियों के लिये भी कर्तव्याकर्तव्य का शास्त्रों में निर्धारण किया गया है और जो भी आध्यात्मिक चर्चा करते हैं उनके लिये स्त्रियों के धर्म, कर्म, मर्यादा, आचरण आदि की चर्चा भी आवश्यक है। यदि चर्चा ही नहीं करेंगे तो आधुनिकता के नाम पर दुर्गंध ही फैलता रहेगा।

यहां स्त्री धर्म से संबंधित शास्त्रोक्त चर्चा की गयी है जिसके संकलनकर्त्ता विद्यावारिधि दीनदयालमणि त्रिपाठी जी हैं एवं हम उनका आभार प्रकट करते हैं। यह आलेख कई भागों में है एवं आगे अन्य लेख भी आ सकते हैं, यहां अष्टम भाग दिया गया है।

आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी
आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी

अतिथि सेवा

अतिथि पूजा का अनिवार्य कर्तव्य : यदि गृहस्थ द्विज अतिथि का पूजन नहीं करता और केवल व्यर्थ में स्वाध्याय या यज्ञादि करता है, तो उसके सब यज्ञ-व्रत निष्फल हो जाते हैं। अतिथि की उपेक्षा करने से उसके समस्त पुण्य का नाश हो जाता है और वह तत्काल चाण्डालत्व को प्राप्त होता है।

न चातिथिं पूजयति वृथा म पठति द्विजः ॥
पाकयज्ञैर्महायज्ञैः सोमसंस्थामिरेव च ।
ये यजति न चार्चति गृहेष्वतिथिमागतम् ॥
तेषां यशोर्थिकामानां दत्तमिष्टं च यद्भवेत् ।
वृथा भवति तत्सर्वमाशया हतया हतम् ॥
वैश्वदेवातिके प्राप्तमतिथिं यो न पूजयेत् ।
स चाण्डालत्वमाप्नोति सद्य एव न संशयः ॥

अतिथि-भोजन का पुण्य : अतिथि को स्वयं भोजन कराना अत्यन्त पुण्यदायक है। धन, यश, आयु की वृद्धि और स्वर्गप्राप्ति का कारण भी यही है।

नैव स्वयं तदीयादतिथिं यन्न भोजयेत् ।
धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वयं चातिथिपूजनम्॥

शातातप का कथन है कि स्वाध्याय, अग्निहोत्र, यज्ञ और तपस्या से भी लोकों की प्राप्ति नहीं होती, जितनी अतिथि पूजन से।

स्वाध्यायेनाग्निहोत्रेण यज्ञेन तपसा तथा ।
नावाप्नोति गृही लोकान् यथात्वतिथिपूजनात् ॥

अतिथि-पूजन का फल क्रतुओं से श्रेष्ठ : महाभारत के आनुशासनिक पर्व में कहा गया है कि अतिथि को पूजकर जो शुभ विचार किया जाता है, वह सौ क्रतुओं से भी अधिक श्रेष्ठ माना गया है।

अतिथिः पूजितो यद्धि ध्यायते मनसा शुभम् ।
न तक्रतुशतेनापि तुल्यमाहुर्मनीषिणः ॥

तार्क्ष्य –सरस्वती संवाद में अतिथि पूजा का माहात्म्य : महाभारत के अरण्यकपर्व में कहा गया है कि जो द्विज अतिथि और पितरों को भोजन कराकर शिष्ट अन्न खाता है, उससे श्रेष्ठ सुख और कोई नहीं है। अतिथि को दिया हुआ भोजन गोसहस्रदान के फल के समान है। ब्राह्मण के पादोदक से भूमि क्लिन्न होने तक पितर उस जल को पीते रहते हैं।

यो ददात्यतिथिभ्यश्च पितृभ्यश्च द्विजोत्तमः ।
शिष्टान्यन्नानि यो भुङ्क्ते किं वै सुखतरं ततः ॥
यावतोधसः पिण्डानश्नाति सततं द्विजः ।
तावतां गोसहस्राणां फलमाप्नोति दायकः ॥
द्विजपादोदकक्लिन्ना यावत्तिष्ठति मेदिनी ।
तावत्पुष्करपर्णेन पिबन्ति पितरो जलम् ॥

पत्नी द्वारा अतिथि-पूजन : पति के प्रवास में भी, यदि अतिथि घर आए तो पत्नी द्वारा उसका सत्कार करना चाहिए। मनु का वचन है कि जहाँ पत्नी विद्यमान है, वही घर अतिथि-सत्कार के लिए योग्य है – “उपस्थितं गृहे विद्याद्भार्या यत्राग्नयोऽपि वा” — मनुस्मृति

रामायण में भी, सीता ने द्विजवेष धारण किए रावण का अतिथि रूप मानकर पूजन किया —

द्विजातिवेषेण हि तं दृष्ट्वा रावणमागतम् ।
सर्वैरतिथिसत्कारैः पूजयामास मैथिली ॥
उपानीयासनं पूर्वं पाद्येनामनिमंत्र्य च ।
अब्रवीत्सिद्धमित्येव तदा तं सौम्यदर्शना ॥

इसी प्रकार महाभारत, वनपर्व में द्रौपदी ने जयद्रथ को भी पाद्य, आसन आदि देकर आतिथ्य का विधान किया।

पाद्यं प्रतिगृहाणेदमासनं च नृपात्मज ।
मृगान्पञ्चाशतं चैव प्रातराशं ददानि ते ॥

स्त्री द्वारा ब्रह्मचारियों को भिक्षा : भिक्षा माँगने आए ब्रह्मचारियों को स्त्रियाँ भिक्षा दें, अन्यथा दोष लगता है। आपस्तम्ब कहते हैं कि ब्रह्मचारियों को भिक्षा देने से प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस और अन्न-आयुष्य की वृद्धि होती है।

स्त्रीणां प्रत्याचक्षाणानां समाहितो ब्रह्मचारी ।
इष्टं दत्तं प्रजां पशून् ब्रह्मवर्चसमन्नाद्यम् ।
ब्रह्मचारिसंघं चरन्तं न प्रत्याचक्षीत ॥

शास्त्र के प्रमाणों से समझें स्त्री धर्म क्या है - stri dharm niti

वैश्वदेव और अतिथि पूजा का क्रम : वैश्वदेव के अनन्तर ही अतिथि और अभ्यागतों का सत्कार भोजनादि से किया जाए। यदि वैश्वदेव के समय कोई भूखा आगंतुक उपस्थित हो तो उसे कभी भी टालना नहीं चाहिए। बाल, वृद्ध, रोगी, निर्धन और दीनजनों को उचित समय पर भोजन देना अनिवार्य है – “काले वैश्वदेवकाले तदन्ते अमार्थिनमुपस्थितं स्वामिनौ गृहपती न प्रत्याचक्षीयाताम् । अवश्यं तस्मै किञ्चिद्देयमिति” — आपस्तम्ब

अतिथि की सेवा करने वाली नारी : जो नारी ब्राह्मण, निर्धन, अन्ध, पंगु और दीनजनों की सेवा करती है, वही पतिव्रता कहलाती है और वही पतिव्रत-फल की भागिनी होती है।

ब्राह्मणान् दुर्बलानाथान् दीनान्धकपणांस्तथा ।
बिभर्त्यनेन या नारी सा पतिव्रतभागिनी ॥

क्रमशः…..

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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