यदि स्त्रियों के पारिवारिक दायित्व और व्यवहार की बात करें तो इसका ज्ञान भी स्त्री धर्म पद्धति (stri dharm) से ही प्राप्त होता है। सभी भारतीय स्त्रियों/बच्चियों को इसका ज्ञान होना आवश्यक है और इसके लिये यह भी आवश्यक है कि आलेख को अधिकाधिक लोगों तक भेजने का प्रयास पाठकगण स्वयं ही करें। यहां शास्त्रोक्त प्रमाणों सहित स्त्रियों के पारिवारिक दायित्व और व्यवहार को समझने का प्रयास किया गया है जो कि अतिमहत्वपूर्ण विषय है।
स्त्री धर्म को समझें पारिवारिक कार्य और व्यवहार | stri dharm – 6
पत्नी को गृहलक्ष्मी कहा जाता है और शास्त्रों के अनुसार विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि पति का कार्य अर्थार्जन करना है किन्तु अर्जित धन पूर्णरूपेण गृहलक्ष्मी के अधिकार में होना चाहिये। उसके उचित व्यय एवं संग्रह का दायित्व स्त्रियों को ही प्रदान किया गया है। अर्जित धन पूर्णतः पत्नी को समर्पित कर देना व्यवहारोचित नहीं है इस कारण आंशिक (परिवार संचालन के लिये पर्याप्त) तो स्त्री को प्रदान करना ही चाहिये और स्त्री उसमें से ही संग्रह भी करती रहे।
इसी प्रकार सेवा (सास-ससुर और पति) भी स्त्री का दायित्व है। स्त्रियों के परपुरुष से वार्तालाप का भी विशेष विधान है जिसका वर्णन आगे उपलब्ध है और स्त्रियों को इसका ज्ञान होना चाहिये। ये सभी ज्ञान नहीं होने के कारण ही स्त्री सशक्त होने का प्रयास करती हैं, अर्थार्जन के लिये सभी सीमाओं का उल्लंघन कर देती हैं।
सामान्यतः पुरुषों के लिये धर्म, कर्म, मर्यादा, आचरण आदि शास्त्रों में सर्वत्र भरे-परे हैं किन्तु स्त्रियों के लिये नहीं हैं ऐसा नहीं है। स्त्रियों के लिये भी कर्तव्याकर्तव्य का शास्त्रों में निर्धारण किया गया है और जो भी आध्यात्मिक चर्चा करते हैं उनके लिये स्त्रियों के धर्म, कर्म, मर्यादा, आचरण आदि की चर्चा भी आवश्यक है। यदि चर्चा ही नहीं करेंगे तो आधुनिकता के नाम पर दुर्गंध ही फैलता रहेगा।
यहां स्त्री धर्म से संबंधित शास्त्रोक्त चर्चा की गयी है जिसके संकलनकर्त्ता विद्यावारिधि दीनदयालमणि त्रिपाठी जी हैं एवं हम उनका आभार प्रकट करते हैं। यह आलेख कई भागों में है एवं आगे अन्य लेख भी आ सकते हैं, यहां षष्ठ भाग दिया गया है।

सवर्णा पत्नी का महत्व
सवर्णा-पत्नी के साथ धर्मकर्म करने का नियम : याज्ञवल्क्य कहते हैं कि जब सवर्णा पत्नी जीवित और उपलब्ध हो, तब किसी अन्य स्त्री के साथ धर्मकर्म (अग्निहोत्र, यज्ञ आदि) नहीं करना चाहिए। यदि कई पत्नियाँ हों और सब सवर्णा हों, तो ज्येष्ठा पत्नी के साथ ही यह कार्य करना चाहिए।
ज्येष्ठा पत्नी में दोष होने पर व्यवस्था : यदि ज्येष्ठा पत्नी किसी दोष से ग्रस्त या धर्मकर्म में अयोग्य हो, तो कनिष्ठा पत्नी के साथ कार्य किया जाए। कात्यायन भी कहते हैं कि बहुपत्नी होने पर अग्निहोत्रादि में सेवा सवर्णा पत्नी से ही करवाई जाए, और यदि ज्येष्ठा पत्नी दोषरहित न हो, तो अन्य से करवाना उचित है।
वीरसुव पत्नी का महत्व : यदि कनिष्ठाओं में से कोई वीरसुव (अर्थात पुत्रवती) हो, तो उसी को प्रमुखता दी जाए। और यदि ऐसी भी अनेक हों, तो उनमें से जो आज्ञापालन करने वाली, गुणवती, दक्ष और प्रियवक्ता हो, उसी को नियुक्त करना चाहिए। कात्यायन स्पष्ट कहते हैं —
तथा वीरसुवामासा माज्ञासंपादनी च या ।
दक्षा प्रियंवदा शुद्धा तामत्र विनियोजयेत् ॥
दैनिक सेवा का क्रम
यदि एक पत्नी प्रतिदिन पूर्ण सेवा करने में सक्षम न हो, तो दिनक्रम के अनुसार और ज्येष्ठता के क्रम से सेवा करें। और यदि एक ही दिन में एक पत्नी सब कार्य करने में असमर्थ हो, तो सभी पत्नियाँ मिलकर ज्ञान और सामर्थ्य के अनुसार कार्य का विभाजन करें।
कात्यायन का वचन —
दिनक्रमे यथाकर्म यथाज्यैष्ठयमशक्तितः ।
विभज्य सहसा कुर्युर्यथाज्ञानमशक्तितः ॥
अग्न्यलङ्करण का नियम : अग्न्यलङ्करण (अग्नि को सजाना और शुद्ध करना) परिसमूहन आदि के बाद किया जाना चाहिए। बोधायनाचार्य कहते हैं — “सर्वत्र परिसमूहन-पर्युक्षण-परिस्तरण-परिषेचन-उपसमाधान-लङ्करणमित्याचार्या इति”
पत्नी का अग्निहोत्र में स्थान : आपस्तम्ब कहते हैं कि दोहन (दूध निकालने) के बाद, अग्निहोत्र के समय पत्नी को अपने स्थान पर बैठना चाहिए। बोधायन के अनुसार सायं और प्रातः, दोनों समय पत्नी यजमान के साथ रहती है।
दम्पति के समक्षता का नियम : होम में पति-पत्नी दोनों की उपस्थिति आवश्यक है। कात्यायन कहते हैं कि यदि पति-पत्नी दोनों उपस्थित न हों, तो होम निष्फल होता है।
असमक्षं तु दम्पत्योर्होतव्यं नविगादिना ।
द्वयोरप्यसमक्षं तु भवेद्धृतमनर्थकम् ॥
प्रवास का नियम : अग्निहोत्री ब्राह्मण को अपने घर में ही रहना चाहिए। केवल अर्थोपार्जन के लिए ही प्रवास की अनुमति है, तीर्थयात्रा हेतु नहीं।
धनान्यार्जयितं युक्तः प्रवास ह्यग्निहोत्रणः ।
धनैर्हि संभवेदिज्या तीर्थाद्यर्थं तु न व्रजेत् ॥
पत्नी के बिना अग्निहोत्र का निषेध : आपस्तम्ब के अनुसार, ‘पत्नीवदस्याग्निहोत्रं भवति’ — अर्थात् अग्निहोत्र पत्नी के बिना नहीं किया जाना चाहिए। अग्निहोत्र में ही सभी तीर्थों का फल है। त्रिकाण्डमण्डन में भी कहा गया है कि अग्निहोत्रगृह में ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, गौ, ब्राह्मण, पितृ और देवता उपस्थित रहते हैं।
औपासन होम में भी समान नियम : औपासन होम में भी पति-पत्नी दोनों का समक्ष होना आवश्यक है। आपस्तम्ब के अनुसार स्त्री के अनुपस्थित रहने पर होम नहीं करना चाहिए।
पत्नी के कर्तृत्व का मतभेद : श्रुति-सूत्रों के अनुसार यज्ञक्रिया में ऋत्विक और यजमान का ही अधिकार है, अतः पत्नी का कर्तृत्व स्वीकार्य नहीं। परन्तु अन्य आचार्यों, जैसे अश्वलायन, के अनुसार पाणिग्रहण आदि गृह्यकर्मों में पत्नी, पुत्र या शिष्य द्वारा भी परिचर्या की जा सकती है।
पत्नी के अग्निहोत्र में कर्तृत्व का समर्थन करने वाले मत : व्यास का कथन है कि विशेष अनुमति लेकर पत्नी, पुत्र, शिष्य या सहोदर भाई भी अग्निहोत्र में आहुति दे सकते हैं।
ऋत्विक्पुत्रस्तथा पत्नी शिष्यो वाऽपि सहोदरः ।
प्राप्यानुज्ञां विशेषेण जुहुयाद्वा यथाविधि ॥
गोभिल का कथन है कि गृह्यहोम में पत्नी सायं और प्रातः दोनों समय आहुति दे। – “गृह्यानौ जुहुयात्पत्नी सायं प्रातश्च होमयोः”
भारद्वाज का मत है कि स्त्री आहुति दे सकती है, किन्तु बिना मन्त्र के – “अपि वा स्त्री जुहुयान्मन्त्रवर्जितम्”
गौतम का एक मत है कि पत्नी ही आहुति दे – “पत्नी जुहुयादित्येकः”
स्मृत्यर्थसार का विशेष नियम : स्मृत्यर्थसार में कहा गया है कि होम में मुख्य यजमान होता है, किन्तु पत्नी, पुत्र, कन्या, ऋत्विक्, शिष्य, गुरु से वेतन पाने वाला, भांजा और पुत्रवधू भी आहुति दे सकते हैं। इनके द्वारा दी गई आहुति स्वतः ही पूर्ण मानी जाती है। यदि पत्नी पर्युक्षण के बिना भी आहुति दे, या कन्या दे, तो भी यह मान्य है। होम के बाद स्त्री को सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए।
होमे मुख्यो यजमानः पत्नी पुत्रश्च कन्यका ।
ऋत्विक् शिष्यो गुरुभ्रीता भागिनेयः सुतापतिः ॥
एतैरेव हुतं यत्तु तद्भुतं स्वयमेव तु।
पर्युक्षणं विना पत्नी जुहुयात्कन्यकाऽपि च ॥
सूर्य अर्घ्यदान का फल : व्यास कहते हैं कि जो नारी प्रातःकाल सूर्य को अर्घ्य देती है, वह सात जन्मों तक वैधव्य का दुःख नहीं देखती।
प्रातःकाले तु या नारी दद्यादयं विवस्वते ।
सप्तजन्मसु वैधव्यं सा नारी नैव पश्यति ॥
अर्घ्य का प्रकार : मण्डल बनाकर, चावल आदि से पूजन करना और निम्न मन्त्र से प्रार्थना करना —
नमो विवस्वते ब्रह्मन् भास्वते विष्णुतेजसे ।
जगत्सवित्रे शुचये सवित्रे कर्मदायिने ॥ – माधवीय
आग्नेय पुराण में भी कहा गया है कि स्त्री सूर्य को प्रणाम करे, आयु और आरोग्य की सिद्धि के लिए, और सौमंगल्य की कामना करते हुए ब्राह्मणों को नमस्कार करे।
प्रणमेद्भास्करं पत्युरायुरारोग्यसिद्धये ।
सौमङ्गल्यं प्रार्थयन्ती नमस्कुर्यात् द्विजान् सती ॥
गुरुओं का अभिवादन : व्यवहारोपयुक्त नाम से गुरुजनों का अभिवादन करना चाहिए – “कुर्याच्छत्रशुरयोः पादवन्दनं भर्तुतत्परा” — विज्ञानेश्वर
गौतम का मत है कि अभिवादन में किसी विशेष नाम के प्रयोग का नियम नहीं, बल्कि अवसर और व्यवहार के अनुसार नाम प्रयोग करना चाहिए – “स्त्रीपुंयोगेऽभिवदतोऽनियममेके”
सास-ससुर और पति की सेवा : अन्य सेवकों के रहते हुए भी, स्त्री को सास-ससुर और पति की सेवा स्वयं करनी चाहिए।
महाभारत, वनपर्व में द्रौपदी ने सत्यभामा से कहा —
“नित्यमार्यामहं कुन्तीं वीरं सत्यवादिनीम् ।
स्वयं परिचराम्येनां पानाच्छादनभोजनैः ॥
संप्रेषितायामथ चैव दास्यामुत्थाय सर्वं स्वयमेव कार्यम्”
महाभारत, विराटपर्व में द्रौपदी ने भीमसेन से कहा —
“या न जातु स्वयं पिष्ये गात्रोद्वर्तनमात्मनः ।
अन्यत्र कुंत्या भद्रं ते सा पिनष्म्यद्य चन्दनम्”
महाभारत, आनुशासनिक पर्व में —
“स्नानं प्रसाधनं भर्तुर्दन्तधावनमञ्जनम् ।
हव्यं कव्यं च यचान्यद्धर्मयुक्तं गृहे भवेत् ॥
न तस्यां जातु तिष्ठत्यां अन्या तत्कर्तुमर्हति”
पत्नी का मुख्य स्थान : कलियुग से पूर्व वर्णान्तर विवाह होने पर भी ब्राह्मण को ब्राह्मणी से ही गृहकार्य करवाना चाहिए। महाभारत, शान्तिपर्व –
तिस्रः कृत्वा पुरो भार्याः पश्चाद्विंदेत ब्राह्मणीम् ।
सा ज्येष्ठा सा च पूज्या स्यात् सा च भार्या गरीयसी ॥
अनं पानं च माल्यं च वस्त्राण्याभरणानि च ।
ब्राह्मण्यैतानि देयानि भर्तुः सा हि गरीयसी ॥
सास-ससुर का आदर : सास-ससुर का आदर पति के समान करना चाहिए और उनके पाँव छूकर प्रसन्न करना चाहिए।
श्वश्रूश्वशुरयोश्चैतत् कार्यं भर्तृवदादरात् ।
श्वश्रूश्वशुरयोः पादौ तोषयन्ती गुणान्विता ॥
मातापितृपरा नित्यं या नारी सा तपोधना ॥
गृहकार्य और आर्थिक दायित्व : व्यास कहते हैं कि स्त्री को मंगल कार्य करने वाली, घर की उन्नति में रुचि रखने वाली और प्रतिदिन गृहकल्याण हेतु तत्पर रहना चाहिए।
भाव्यं मङ्गलकामिन्या कृतमङ्गलशीलया ।
गृहोपकारसंस्काररतया प्रतिवासरम् ॥
मनु के अनुसार, स्त्री को अर्थसंग्रह, व्यय, शौच, धर्म, अतिथि सेवा, रसोई, गृह उपकरण की देखरेख में लगाया जाना चाहिए।
अर्थस्य संग्रहे चैनां व्यये चैत्र नियोजयेत् ।
शौचे धर्मेऽनपक्त्यां च पारिणाह्यस्य चेक्षणे ॥
परपुरुष से भाषण का नियम : गृहकार्य की चर्चा में परपुरुष से बातचीत आवश्यक हो सकती है। सामान्यतः यह वर्जित है, परन्तु शङ्खस्मृति में व्यापारियों, प्रव्रजितों, वैद्यों और वृद्धों से आवश्यक व्यवहार की अनुमति है। “न परपुरुषमभिभाषेतान्यत्र वणिक्प्रव्रजितवैद्यवृद्धेभ्यः” — शङ्खस्मृति
आपात स्थिति में, जब कोई अन्य बोलने वाला न हो, तब तिनके के अन्तराल से या सीधे भी बात करना दोषरहित है – “सा तथोक्ता तु वैदेही… तृणमन्तरतः कृत्वा रावणं प्रत्यभाषत” — रामायण
महाभारत में द्रौपदी ने भी शिबि-वंशीय वीर से वार्ता करते समय मर्यादा का पालन किया – “बुध्याऽभिजानामि नरेन्द्रपुत्र… अहं ह्यरण्ये कथमेकमेका त्वामालपेयं नियता स्वधर्मे” — महाभारत
स्त्री का स्वजनों से संभाषण : स्त्री अपने परिवार और स्वजनों से बिना किसी दोष के बात कर सकती है, चाहे वे पुरुष हों या स्त्री। यहाँ दोष केवल परपुरुष से अनावश्यक, असंयमित या अनुचित परिस्थितियों में बात करने पर ही माना गया है – “स्त्रीणां परपुरुषभाषणे अयं प्रकारः। स्वीयैः सह संभाषणे तु न दोषः”
स्त्री के संभाषण की मर्यादा का उदाहरण – सीता : रामायण में, लंका में रावण के सामने बैठी वैदेही ने अपनी मर्यादा बनाए रखने के लिए तिनके के बीच रखकर उससे बात की, ताकि प्रत्यक्ष दृष्टि से संवाद न हो। यह दर्शाता है कि स्त्री को संकट की स्थिति में भी मर्यादा का पालन करना चाहिए।
सा तथोक्ता तु वैदेही निर्भया शोककर्शिता ।
तृणमन्तरतः कृत्वा रावणं प्रत्यभाषत ॥ रामायण
स्त्री के संभाषण की मर्यादा का उदाहरण – द्रौपदी : महाभारत में, द्रौपदी ने शिबि वंशी राजपुत्र से वार्ता करते समय स्वयं को धर्ममर्यादा में बाँधकर स्पष्ट किया कि वह अकेले पुरुष से प्रत्यक्ष बात नहीं कर सकती। उसने अपने कुल, पतियों और भाइयों का परिचय देकर आतिथ्य का निवेदन किया।
बुध्याऽभिजानामि नरेन्द्रपुत्र न मादृशी त्वामभिभाषितुमर्हा ।
न त्वेव वक्ताऽस्ति तवेह वाक्यं अन्यो नरो वाप्यथवाऽपि नारी ॥
एका ह्यहं संप्रति तेन वाच्यं ददानि वै भद्र निबोध चेदम्॥ – महाभारत
स्त्री की सतर्कता और अतिथि सत्कार : द्रौपदी ने बताया कि युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन और नकुल-सहदेव शिकार के लिए चारों दिशाओं में गए हैं, अतः आतिथ्य देने से वे प्रसन्न होंगे। यह उदाहरण दर्शाता है कि स्त्री को अतिथि सत्कार में भी अपनी मर्यादा और बुद्धिमत्ता का परिचय देना चाहिए।
युधिष्ठिरो भीमसेनार्जुनौ च मायाश्च पुत्रौ पुरुषप्रवीरौ ।
ते मां निवेश्येह दिशश्चतस्रो विभज्य पार्थाः मृगयां प्रयाताः ॥
प्रियातिथिर्धर्मसुतो महात्मा प्रीतो भविष्यत्यभिवीक्ष्य युष्मान् ॥ महाभारत
स्वधर्म पालन में निष्ठा : द्रौपदी ने अकेले जंगल में अपरिचित पुरुष से बात करते समय भी कहा कि वह अपने स्वधर्म में नियत है, अतः अकेले संवाद करने में संकोच है। यह धर्म की मर्यादा का उच्च उदाहरण है – “अहं ह्यरण्ये कथमेकमेका त्वामालपेयं नियता स्वधर्मे” — महाभारत
व्यवहार की सीमा और अपवाद : शङ्खस्मृति के अनुसार, स्त्री को परपुरुष से केवल उन्हीं प्रसंगों में बात करने की अनुमति है, जो व्यवहारोपयुक्त हों, जैसे — व्यापारी, प्रव्रजित, वैद्य, वृद्ध। आपात स्थिति में, जब कोई अन्य बोलने वाला न हो, तब तिनके के अन्तराल से या सीधे भी संवाद दोषरहित है – “न परपुरुषमभिभाषेतान्यत्र वणिक्प्रव्रजितवैद्यवृद्धेभ्यः” — शङ्खस्मृति
क्रमशः…..
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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