कलिवर्ज्य भाग – ४
२५ : जीवन का परित्याग – दूसरे के लिए अपने जीवन का परित्याग कलिवर्ज्य है । विष्णुधर्म सूत्र (३।४५) का कथन है कि जो लोग गौ, ब्राह्मण, राजा, मित्र, अपने धन, अपनी स्त्री की रक्षा करने में प्राण गँवा देते हैं वे स्वर्ग प्राप्त करते हैं।
उन्होंने आगे (१६।१८) यहाँ तक कहा है कि अस्पृश्य लोग (जो चारों वर्गों की सीमा के बाहर हैं) भी ब्राह्मण, गायों, स्त्रियों एवं बच्चों के रक्षार्थ प्राण गंवाने पर स्वर्ग प्राप्त करते हैं। ‘आदित्यपुराण’ (राजधर्मकाण्ड, में भी यही श्लोक है । यह कलिवर्ज्य मत आत्मत्याग की वर्जना इसलिए करता है कि इससे केवल स्वर्ग की प्राप्ति होती है । यह कलिवर्ज्य केवल द्विजों के लिए है, शूद्रों के लिए नहीं (कलिवर्ज्यविनिर्णय १।२०)।
२६ : उच्छिष्ट दान – उच्छिष्ट (खाने से बचे हुए जूठ भोज्य पदार्थ) का दान कलिवर्ज्य है। मधुपर्क प्राशन में सम्मानित अतिथि मधु, दूध एवं दही का कुछ भाग स्वयं ग्रहण करता था और शेष किसी ब्राह्मण (या पुत्र या छोटे भाई) को दे देता था। अब यह कलिवर्ज्य है ।
आप० ध० सू० (१।१।४।१-६) ने कहा है कि शिष्य गुरु का उच्छिष्ट प्रसाद रूप में पा सकता है, किन्तु गुरु को चाहिए कि वह वैदिक ब्रह्मचारियों के लिए वर्जित मधु या अन्य प्रकार का भोज्य पदार्थ शिष्य को न दे। याज्ञवल्क्य(१/२१३) का कथन है कि यदि कोई सुपात्र व्यक्ति दान ग्रहण कर उसे अपने पास न रखकर किसी और को दे देता है, तो वह उन उच्च लोकों की प्राप्ति करता है जो उदार दानियों को प्राप्त होते हैं।
२७ : आजीवन पूजा प्रण – किसी विशिष्ट देवमूर्ति को (जीवन भर) विधिवत् पूजा करने का प्रण करना कलिवर्ज्य है। इस प्रकार के वर्जन का कारण समझना कठिन है। इस विषय में भट्टोजि दीक्षित, कलिवर्ज्यविनिर्णय, समयमयूख एवं अन्य लोगों द्वारा उपस्थापित व्याख्याएँ संतोषप्रद नहीं हैं। निर्णयसिन्धु की व्याख्या अपेक्षाकृत अच्छी है, क्योंकि इसने इस वर्ज्य को पारिश्रमिक पर की जाने वाली किसी विशिष्ट प्रतिमा-पूजा तक सीमित रखा है।
‘अपरार्क’ स्मृति वचन उद्धृत कर देवलक की परिभाषा दी है और कहा है कि देवलक वह ब्राह्मण है जो किसी प्रतिमा का पूजन पारिश्रमिक के आधार पर तीन वर्षों तक करता है, जिसके लिए वह श्राद्धों के पौरोहित्य के लिए अयोग्य हो जाता है। स्पष्ट है, इस कथन के अनुसार देवलक ब्राह्मण वित्तार्थी है । मनु (३।१५२) ने देवलक को श्राद्धों तथा देवताओं के सम्मान में किये गये कृत्यों में निमन्त्रित किये जाने के लिये अयोग्य घोषित किया है ।
कुल्लूक ने देवल को उद्धृत कर इस विषय में कहा है कि जो व्यक्ति किसी देव स्थान के कोष पर निर्भर रहता है, उसे देवलक कहा जाता है। वृद्ध हारीत (८/७७-८०) के मत से केवल शिव के वित्तार्थी पूजक देवलक कहे जाते हैं।
२८ : अशौच व्यक्ति स्पर्श – अस्थिसंचयन के उपरान्त अशौच वाले व्यक्तियों को छूना कलिवर्ज्य है। शव-दाह के उपरान्त अस्थिसंचयन के दिन के विषय में धर्मशास्त्रकारों में मतभेद है । इसी कारण ‘मिताक्षरा’ ने अपने-अपने गृह्यसूत्रों के अनुसरण की बात कही है। ‘मिताक्षरा’ (याज्ञ० ३.१७) ने कहा है कि संवर्त (३८) के मत से अस्थियाँ पहले, तीसरे, सातवें या नवें दिन संचित को जानी चाहिये; विष्णु ध० सू० (१९।१०-११) के मत से चौथे दिन अस्थियाँ संगृहीत कर गंगा में बहा दी जानी चाहिये और कुछ लोगों के मत से उनका संग्रह दूसरे दिन होना चाहिए । “मिताक्षरा’ ने पुनः (याज्ञ० ३।१८)
देवल का इसी विषय में उद्धरण देकर कहा है कि अशुद्धि की अवधि के तिहाई भाग की समाप्ति के उपरान्त व्यक्ति स्पर्श के योग्य हो जाते हैं और इस प्रकार चारों वर्गों के सदस्य क्रम से ३, ४, ५ एवं १० दिनों के उपरान्त स्पर्श के योग्य हो जाते हैं। और उपस्थित कलिवर्ज्य वचन ने यह सब वर्जित माना है और अशुद्धि के नियमों के विषय में कठिन नियम दिये हैं।
२९ : ब्राह्मण के लिये बलि – यज्ञ में बलि होनेवाले पशु का ब्राह्मण द्वारा हनन कलिवर्ज्य है। श्रौत यज्ञ में पशु की हत्या गला घोट कर को जाती थी। जो व्यक्ति श्वासावरोध कर अथवा गला घोट कर पशु-हनन करता था, उसे शामित्र कहा जाता था। कौन शामित्र हो, इस विषय में कई मत है ।
जैमिनि (३।७।२८-२९) ने स्वयं अध्वर्यु को शामित्र कहा है। किन्तु सामान्य मत यह है कि वह ऋत्विजों के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति होता था। आश्वलायन श्रौतसूत्र (१२।९।१२-१३) ने कहा है कि वह ब्राह्मण या अब्राह्मण हो सकता है। पशुयज्ञ कलियुग में निन्द्य या वर्जित मान लिए गये हैं, अतः ब्राह्मण का शामित्र होना भी वर्जित है।
३० : ब्राह्मण द्वारा सोमविक्रय – ब्राह्मण द्वारा सोमविक्रय कलिवर्ज्य है। केवल ब्राह्मण ही सोमरस-पान कर सकते थे। सोम लता क्रय की जाती थी, जिसके विषय में प्रतीकात्मक मोल-तोल होता था । कात्या० श्रौ ० सू० (७।६।२-४) एवं आप० श्रौ० सू० (१०। २०।१२) के मत से प्राचीन काल में सोम का विक्रेता कुत्स गोत्र का कोई ब्राह्मण या कोई शूद्र होता होगा। मनु (११।६० एवं नारद (दत्ताप्रदानिक, ७) ने सोम-विक्रेता ब्राह्मण को श्राद्ध में निमंत्रित किए जाने के अयोग्य ठहराया है और उसके यहाँ भोजन करना वर्जित माना है।
मनु (१०८८) ने ब्राह्मण को जल, हथियार, विष, सोम आदि विक्रय करने से मना किया है ।
३१ : ब्राह्मण द्वारा विशेष – अपने दास, चरवाहे (गोरक्षक), वंशानुगत मित्र एवं साझेदार के घर पर गृहस्थ ब्राह्मण द्वारा भोजन करना कलिवर्ज्य है । गौतम (१७।६), मनु (४।२५३ याज्ञ० (१/१६६) का कहना है कि ब्राह्मण इन लोगों का तथा अपने नापित (नाई) का भोजन कर सकता है।
हरदत्त (गौतम १७।६) एवं ‘अपरार्क’ (पु० २४४) का कथन है कि ब्राह्मण अत्यन्त विपत्तिग्रस्त परिस्थितियों में इन शूद्रों के यहाँ भोजन कर सकता है।
३२ : अति दूरवर्ती तीर्थयात्रा – अति दूरवर्ती तीर्थों को यात्रा कलिवर्ज्य है। ब्राह्मण को वैदिक एवं गृह्य अग्नियाँ स्थापित करनी पड़ती थी। यदि वह दूर की यात्रा करेगा तो इसमें बाधा उत्पन्न होगी। आप० श्रौ० सू० (४।१६।१८) ने व्यवस्था दी है कि लम्बी यात्रा में अग्निहोत्री को अपने घर की अग्निवेदिका की दिशा में मुह कर मानसिक रूप से अग्निहोम एवं दर्श- पूर्णमास की सारी विधि करनी पड़ती है । देखिए इस विषय में गोभिलस्मृति (२/१५७) भी।
स्मृतिकौस्तुभ का कहना है कि वह कलिवर्ज्य समुद्र पार के या भारतवर्ष की सीमाओं के तीर्थस्थानों के विषय में है। आश्चर्य है कि यह कलि वर्ज्य ब्राह्मण को दूरस्थ तीर्थ की यात्रा करने से मना तो करता है किन्तु उसे यज्ञों के सम्पादन द्वारा धन कमाने के लिए यात्रा करने से नहीं रोकता।
३३ : गुरुपत्नी में गुरुवत् वृत्तिशीलता – गुरु की पत्नी के प्रति शिष्य को गुरुवत् वृत्तिशीलता कलिवर्ज्य है। आप० ध० सू० (१२।७।२७), गौतम (२।३१-३४), मनु (२।२१०) एवं विष्णु (३३।१-२) ने कहा है कि शिष्य को गुरु की पत्नी या पत्नियों के प्रति वही सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए जिसे वह गुरु के प्रति प्रदर्शित करता है (केवल प्रणाम करते समय चरण छूना एवं उच्छिष्ट भोजन करना मना है)।
शिष्य बहुधा युवावस्था के होते थे और गुरुपत्नी युवा हो सकती थी। अतः मनु (२/२१२, २१६ एवं २१७ विष्णु ३२।१३-१५) का कहना है कि बीस वर्ष के विद्यार्थी को गुरुपत्नी का सम्मान पैर छूकर नहीं करना चाहिए, प्रत्युत वह गुरुपत्नी के समक्ष पृथ्वी पर लेटकर सम्मान प्रकट कर सकता है, किन्तु यात्रा से लौटने पर केवल एक बार पैरों को छूकर सम्मान प्रकट कर सकता है। अतः स्पष्ट है कि यह कलिवर्ज्य मनु एवं विष्णु के नियमों का पालन करता है ।
‘स्मृतिकौस्तुभ’ एवं ‘धर्मसिन्धु’ का कहना है कि इस कलिवर्ज्य से याज्ञ० (१/४९) का वह नियम कलियुग में कट जाता है जिसके अनुसार नैष्ठिक ब्रह्मचारी मृत्युपर्यंत अपने गुरु या गुरुपुत्रों या (इन दोनों के अभाव में) गुरुपत्नी के यहाँ रह सकता है ।
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