गुरु दीक्षा का महत्व – Diksha

गुरु दीक्षा का महत्व - Diksha

यह प्रश्न बहुतायत उठाया जा रहा है कि “मैं और मेरा भगवान, बीच में गुरु का क्या काम”, ये प्रश्न धर्मावलम्बियों का नहीं नास्तिकों और अधर्मियों का होता है और कई बार ये लोग स्वरूप का आडम्बर भी रचते हैं अर्थात कालनेमि की तरह धार्मिक चर्चा भी करते हैं और गुरु, ब्राह्मण की निंदा भी करते हैं, अनुपयोगिता भी सिद्ध करते हैं। ऐसी स्थिति में गुरु का महत्व समझना आवश्यक है जिसके लिये दीक्षा (Diksha) का महत्व भी समझना होगा अथवा इस प्रकार भी कह सकते हैं कि गुरु दीक्षा का महत्व समझना होगा।

गुरु में मनुष्य बुद्धि रखना, मन्त्र में अक्षरबुद्धि रखना, प्रतिमा में शिलाबुद्धि रखना नरक देने वाला कहा गया है। जो नरकगामी (नास्तिक-अधर्मी) हैं उनकी बुद्धि इससे भी निकृष्ट होती है और वो सामान्य जनों को भी छलपूर्वक निकृष्टश्रेणी का प्राणी, नरकगामी बनाना चाहते हैं और इसी कारण कहते हैं “मैं और मेरा भगवान, बीच में गुरु का क्या काम” : गुरु में मनुष्यबुद्धि स्पष्ट है।

गुरौ मनुष्यबुद्धिं च मन्त्रे चाक्षर बुद्धिकाम्। प्रतिमासु शिलाबुद्धिं कुर्वाणो नरकं व्रजेत् ॥

यह लेख दीक्षा को एक गूढ़ आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करता है, जिसमें गुरु अपनी शक्ति और ईश्वरीय अनुग्रह से शिष्य के सीमित भाव को मिटाकर उसे उसके अनंत, शुद्ध शिवस्वरूप का बोध कराते हैं।

जो आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होना चाहते हैं उनके लिये दीक्षा का ज्ञान अनिवार्य है। ऐसे लोगों को दीक्षा संबंधी ज्ञान के लिये यह आलेख मार्गदर्शन करने वाला सिद्ध होगा।

यह आलेख विद्यावारिधि दीनदयालमणि त्रिपाठी जी से प्राप्त है और इसके लिये हम उनके आभारी हैं एवं श्रेय उन्हीं को जाता है।

आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी
आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी जी

दीक्षा अथवा भगवान् की जीवोद्धार विधि

गुरु क्या करते हैं ? गुरु का मुख्य कार्य है-शिष्य की आत्मा के साथ अभिन्न होकर शिष्य-रूप चैतन्य की भोग-भूमि को सम्पूर्ण रूप से एक विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा शुद्ध करना । यह गुरु का अभावात्मक कार्य है। इसके बाद उनका भावात्मक कार्य होता है – ज्ञान-दीक्षा द्वारा चित् , आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया शक्तियों का शिष्य में उद्भावन । 

दीक्षा के दो मुख्य अंग हैं — एक है, पाशों का नाश और दूसरा है, शिव-तत्त्व के साथ शिष्य का योग । पहले पृथिवी आदि तत्वों की शुद्धि करनी पड़ती है । उसके अनन्तर समना-पद को शुद्ध करना पड़ता है, क्योंकि उसमें पूर्वोक्त तत्वों का संस्कार रह जाता है। समना-शक्ति का रूप – अत्यन्त सूक्ष्म-तम तत्-तत् प्रपंचों की मननात्मकता है । शिष्य के समना-पद पर विद्यमान क्षीणतम भेद-संस्कारों को भी मिटा देना गुरु का एक प्रधान कर्तव्य है।

इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए गुरु को चाहिये कि शिष्य की आत्मा को समना के साथ युक्त कर दे। शिष्यात्मा के समना-युक्त होते ही, वह सर्व तत्त्वों में व्यापक तत्त्व हो जाता है, क्योंकि सब तत्वों का सूत्रपात पहले समना में ही होता है ।

इस प्रकार सब तत्त्व शुद्ध हो जाते हैं। केवल यही नहीं, उनके संस्कार भी शुद्ध हो जाते हैं। उस समय शुद्ध आत्मभाव की प्राप्ति होती है। तदनन्तर, ऊर्ध्व में आत्म-व्याप्ति होती है ।

परन्तु इसके आगे भी एक अवस्था है, वही परमशिव की अवस्था है। शुद्ध-आत्मा की अवस्था में चित् आदि शक्तियों के साथ अभिन्नता न होने के कारण परमशिवभाव की अभिव्यक्ति नहीं होती। उसके लिए योगक्रिया की आवश्यकता होती है । उसी समय सर्वव्यापक-स्थिति का आविर्भाव होता है । समना से ही तत्वों का अवसान भी होता है । समना के ऊपर स्थिर होकर योगवित् आत्मा एक उछाल में उन्मना से अतीत सर्वग-तत्व के साथ योग प्राप्त करते हैं । 

उन्मनातीत शब्द से तात्पर्य है। अनुभव प्राप्त कर योगवित् आत्मा का शक्तिमत्-स्वरूप को प्राप्त करना । परमतत्व में योग का उपाय प्रणव-मन्त्र का उच्चारण है । प्रणव की-ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म अर्थात् अ, उ, म, बिन्दु और नाद-इन मात्राओं में प्रत्येक प्रणवात्मक है; प्रणव का एकदेश भी प्रणव ही है । प्रणव का उच्चारण तब तक करना चाहिये, जब तक उन्मनातीत पद की प्राप्ति न हो ।

इस विषय का और भी परिस्फुट रूप से विवेचन किया जा रहा है ।

दीक्षा में दो व्यापार मुख्य हैं – एक शिष्य के पाशों का नाश और दूसरा शिवत्व-योजना; अर्थात् शिष्य में जो मलिनता है, उसका प्रक्षालन कर उसे शिवस्वरूप में युक्त कर देना ।

दीक्षा के सब कृल्य योग्य गुरु को ही करने पड़ते हैं। उसमें गुरु की मन्त्र-शक्ति ही प्रधान साधन है । गुरु भावना-सिद्ध होते हैं, अतः क्षेत्र-विशेष में उन्हें भावना का भी उपयोग करना पड़ता है।

पाश-नाश क्या है ? यह समझने के लिए सृष्टि-व्यापार पर दृष्टिपात करना चाहिये । चिदानन्दघन- स्वतन्त्र- परमेश्वर अपनी उन्मना’ नामक स्वातन्त्र्य-शक्ति से शून्य से लेकर पृथिवी-पर्यन्त, अनन्त वाच्य-वाचकरूप पदार्थों को अपनी स्वरूप-भित्ति पर एक ही समय में अवभासित करते हैं। वे स्वरूप से अतिरिक्त न होने पर भी, अतिरिक्त भासित होते हैं। इनमें एक भाग वाचक-रूप तथा दूसरा भाग वाच्य-रूप है।

पति और पत्नी का परम अन्योन्याश्रय संबंध - Husband Wife Relationship
हरि के भरोसे हांको गाड़ी – hari ke bharose hanko gadi

वाचक-भाग ग्राहक का है और वाच्य-भाग ग्राह्य का है । 

प्रथम भाग में तीन स्तर हैं- पर, सूक्ष्म और स्थूल एवं द्वितीय भाग में भी ऐसे ही तीन स्तर हैं। पहले भाग के स्तरों के नाम हैं – वर्ण, मंत्र, तथा पद; एवं द्वितीय भाग के स्तरों को नाम हैं-कला, तत्त्व तथा भुवन | 

इनमें ‘वर्ण अभेद का विमर्शन करनेवाला अर्थात् अभेद-ज्ञान करानेवाला है । वह किंचित् स्थूल भाव को प्राप्त होने पर भेदाभेद का ज्ञान करता है एवं मन्त्ररूप धारण करता है । स्थूलत्व के और अधिक बढ़ने पर वह भेद-ज्ञान का हेतु हो जाता है तथा पदरूप में भासित होता है। 

इसी प्रकार वाच्यरूपा परमेश्वर की कला- शक्ति भी उत्तरोत्तर विशिष्ट होकर तत्व तथा भुवन का रूप धारण करती है। जैसे दर्पण में नगर का प्रतिभास होता है, ठीक वैसे ही भगवान् के स्वातन्त्र्य से उसमें क्रम का भान होता है। जैसे मिट्टी घटादि की व्यापक है, वैसे ही क्रम के भीतर पूर्व अंश परवर्ती अंश में व्यापक रहता है। दूसरे पक्ष में जैसे वृक्ष अपने बीज में शक्ति-रूप से स्थित रहता है, वैसे ही परवर्ती अंश पूर्व अंश में शक्ति-रूप से निहित रहता है ।

इसीलिए कहा जाता है-सब में सब है, ‘सर्व सर्वात्मकम्’ । 

यही कारण है कि पंच-तत्त्व दीक्षा में अनाश्रित-तत्त्व (शिव तत्व) पर्यन्त भूतों की व्याप्ति हो जाती है। इस प्रकार एक-एक आत्मा (या भाव) वस्तुतः पूर्वोक्त छः अध्वाओं का स्फुरणात्मक परमेश्वर-शक्तिमय ‘अ’कार से ‘हकार तक परामर्श या विमर्श- शुद्धरूप अहन्ता-विश्रान्ति-स्वरूप परमशिवरूप ही है। परन्तु अपनी माया-शक्ति के प्रभाव से उसको उक्त विषय का परिज्ञान नहीं रहता । इसीलिए आत्मा पूर्ण होकर भी, अपूर्णमन्य हैं; एवं उनका समग्र वैभव या ऐश्वर्य शब्द की कलाओं से लुप्त हो जाता है। 

इसी कारण यद्यपि वह तात्विक स्वरूप में अस्फुरण-शील है, तथापि मातृका- प्रभाव से उत्पन्न विभिन्न प्रकार के प्रत्ययों या भावों के आविर्भाव (उदय) के द्वारा देहादि में अहं अभिमान करने के लिए तथा विषय-मात्रा मैं भोक्तृत्वाभिमान करने के लिए, बाध्य होते हैं। उस समय आत्मा खेचरी आदि चार शक्ति-चक्रों के भोग्य बन जाते हैं । यही आत्मा का बन्धन है, इसी का नामपशुत्व है ।

परमेश्वर की अनुग्रहशक्ति गुरु के (जो शिव से अभिन्न हैं), हृदय में पारमार्थिक रूप से स्फुरित होती है। यह शक्ति शिष्य के पशुत्व को निवृत्त करने के लिए सब अध्वाओं से उसके संकोच-भाव को हटाती हुई स्वयं असंकुचित रूप में प्रकाशित होकर दीक्षा, ज्ञान, योग आदि के द्वारा उक्त अध्वाओं को शुद्ध करती है।

अतएव गुरु शक्ति के रूप में मन्त्रादि के शोधक हैं तथा पशु- आत्मा में अभिनिविष्ट मन्त्रादि शोध्य हैं । इस प्रकार शोभ्यशोधक-भाव मानने में किसी प्रकार की हानि नहीं है । प्रत्येक अध्वा में सर्वमयत्व है अर्थात् प्रत्येक अध्वा में सूक्ष्म रूप से अन्य सब अध्वाओं की सत्ता है। इसीलिए दीक्षा की प्रक्रिया में किसी अध्वा का प्राधान्य लेकर व्यापक-भाव से तदन्तर्गत रूपों का शोधन करना पड़ता है ।

हम अन्य विद्वद्जनों से भी इसी प्रकार की शास्त्रसम्मत व ज्ञानवर्द्धक संकलन, आलेख की आकांक्षा करते हैं।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


Discover more from कर्मकांड सीखें

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *