हमने पाप के प्रकारों में महापातक/महापाप को देखा है और अब हमें महापातक/महापाप (mahapap) के बारे में जानना भी आवश्यक है। इसके साथ ही एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य भी होता है जो येन-केन प्रकारेण पापियों का सहयोग/समर्थन करना होता है। बहुत लोगों को ऐसा भी लगता है कि यदि हमने पाप किया तो पाप के भागी बने, यदि किसी और ने किया तो मैं (संबंध होने पर भी) पापी नहीं होऊंगा। वर्त्तमान में ऐसा विशेष रूप से सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है और इस विषय को समझने में भी यह आलेख लाभकारी है।
महापाप क्या है – mahapap
उपरोक्त सन्दर्भ में हमें पाप के प्रकारों को भी जानना आवश्यक है जो हमें महापाप में संलिप्त होने से बचाता है। यहां जो जानकारी दी गयी है उसके सङ्कलनकर्ता विद्यावारिधि दीनदयालमणि त्रिपाठी जी हैं और इस आलेख का श्रेय उन्हीं को जाता है।
आगे जो महत्वपूर्ण जानकारी दी गयी है वह आचार्य दीनदयालमणि त्रिपाठी द्वारा संकलित है और हमें व्हाट्सप समूह से प्राप्त हुआ है। यहां उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया है जिन शीर्षकों के साथ जो साझा किया गया था वो यथावत प्रस्तुत किया गया है। यह आलेख उन सबके लिये अति-उपयोगी है जो आस्थावान सनातनी है और नरक (दुःखों) से बचना चाहते हैं।

महापातक/महापाप वर्णन
ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः। महान्ति पातकान्याहुः संसर्गश्चापि तैः सह ॥ – मनुः
इस विषय में मनु कहते हैं कि — “ब्राह्मण की हत्या, मद्यपान (शराब पीना), चोरी, और गुरु की पत्नी से संबंध” ; ये चार प्रमुख महापाप (महापातक) हैं। और इनके साथ रहने वाला व्यक्ति भी महापातकी कहलाता है।
ब्रह्महा मद्यपः स्तेनस्तथैव गुरुतल्पगः। एते महापातकिनो यश्च तैः सह संवसेत्॥ – याज्ञवल्क्य
१.ब्राह्मण-हंता, २. शराब पीने वाला, ३.चोर और ४. गुरु की पत्नी के साथ सम्बन्ध रखने वाला — ये सभी महापातकी हैं।
५. और जो व्यक्ति इनके साथ एक वर्ष तक निवास करता है, वह भी महापातकी बन जाता है।
विशेष शब्दार्थ :
- ब्रह्महा — वह व्यक्ति जो ब्राह्मण की हत्या करता है। यदि कोई ब्राह्मण किसी भी कारण से मारा जाए, और वह हत्या जानबूझकर, तुरंत या समय के अंतर से, और किसी बाहरी कारण की परवाह किए बिना हो — तो वह व्यक्ति “ब्रह्महा” कहलाता है।
- मद्यपः — निषिद्ध शराब पीने वाला व्यक्ति। (यह सनातन धर्म में वर्जित मादक पेय द्रव्य मदिरा पीना माना गया है।)
- स्तेनः — चोर; विशेषतः वह जो ब्राह्मण का सोना या धन चुराता है।
- गुरुतल्पगः — गुरु की पत्नी (गुरुपत्नी) से शारीरिक संबंध रखने वाला।
- संसर्ग (सहवास) — जो व्यक्ति उपर्युक्त महापातकियों में से किसी एक के साथ लगातार एक वर्ष तक निवास करता है, वह भी स्वयं महापातकी माना जाता है।
अपराध प्रयोजकादीनां फलतारतम्यम् – प्रयोजक आदि का फल में तारतम्य (अर्थात् दोषफल में अंतर)
मनुः – अनुग्राहकस्यापि हिंसाफलसंबन्धमाह
बहूनामेककार्याणां सर्वेषां शस्त्रधारिणाम् । यद्येको घातयेत्तत्र सर्वे ते घातुकाः स्मृताः ॥
विष्णुः –
आक्रुष्टस्ताडितो वाऽपि धनैर्वा विप्रयोजितः । यमुद्दिश्य त्यजेत् प्राणांस्तमाहुर्ब्रह्मघा ॥
ज्ञातिमित्रकलत्रार्थं सुहृत् क्षेत्रार्थमेव च । यमुद्दिश्य त्यजेत् प्राणां स्तमाहुर्ब्रह्मघातुकम् ॥
रागद्वेषात् प्रमादाद्वा स्वतः परत एव वा । घातयेत् ब्राह्मणं कञ्चित् स भवेत् ब्रह्मघातुकः ॥
भृतको यस्य तं हन्यात्सोऽपि च ब्रह्मघातुकः ॥
किसी हिंसात्मक कृत्य में संलग्न विभिन्न व्यक्तियों — जैसे कि प्रेरक, सहायता करने वाला, आदेश देने वाला, कार्य करने वाला, भाड़े पर काम करने वाला आदि — सभी दोष के भागी होते हैं, लेकिन उनके दोष में गंभीरता की दृष्टि से अंतर होता है।
- मनुस्मृति के अनुसार – यदि बहुत से लोग एक ही कार्य (जैसे हत्या) के लिए एक साथ जुड़े हों, और उस कार्य को केवल एक ही व्यक्ति ने प्रत्यक्ष रूप से किया हो, तो भी वे सभी व्यक्ति “घातक” (हत्यारे) माने जाते हैं। अर्थात् किसी कृत्य की सामूहिक संलिप्तता में सभी उत्तरदायी होते हैं।
- विष्णु धर्मसूत्र के अनुसार – जो व्यक्ति अपमानित होकर, मारा जाकर या धन से वंचित होकर किसी ब्राह्मण की हत्या कर देता है, वह “ब्रह्मघातक” कहलाता है। आशय यह है कि अपराध करने का कारण चाहे जो भी हो, अगर उद्देश्य ब्राह्मण की हत्या है, तो वह अपराध गंभीर है।
- याज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार – यदि कोई व्यक्ति अपने रिश्तेदार, मित्र, पत्नी या जमीन-जायदाद के लिए ब्राह्मण की हत्या करता है, तो भी वह ब्रह्मघातक कहलाता है। अर्थात् कोई भी सांसारिक लाभ हत्या को उचित नहीं ठहरा सकता।
- अन्य शास्त्र वचन – यदि कोई व्यक्ति राग (लगाव), द्वेष, प्रमाद (लापरवाही), स्वयं के कारण या दूसरों के कहने पर ब्राह्मण की हत्या करता है, तो वह ब्रह्मघातक ही कहलाता है। अपराध के कारण बदल सकते हैं, लेकिन उसका फल नहीं बदलता।
- भृतक (भाड़े पर कार्य करने वाला) – जिस व्यक्ति को हत्या के लिए रखा गया हो, वह भी उतना ही दोषी होता है जितना कि हत्या का आदेश देने वाला। भाड़े पर हत्या करना भी उतना ही बड़ा अपराध है।
हेमाद्रौ –
धनार्थं क्षेत्रदारार्थं पश्वर्थं वा जनेश्वर । यमुद्दिश्य त्यजेत् प्राणां स्तमाहुर्ब्रह्मघातुकम् ॥
नारी वा पुरुषो वाऽपि विधवा वा मनस्विनी । यमुद्दिश्य त्यजेत् प्राणांस्तमाहुर्ब्रह्मघातुकम्॥हेमाद्रि – धन के लिए, भूमि या स्त्री के लिए, अथवा पशुओं के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी ब्राह्मण की हत्या करता है, तो वह ‘ब्रह्मघातक’ (ब्राह्मण-हंता) कहलाता है। चाहे वह नारी हो या पुरुष, चाहे वह विधवा हो या विवाहित, यदि वह जानबूझकर ब्राह्मण की हत्या करती है, तो वह भी ब्रह्मघातक ही कहलाती है।”
स्मृत्यन्तरेऽपि
हन्ता मन्त्रोपदेष्टा च तथा संप्रतिपादकः । प्रोत्साहकः सहायश्च तथा मार्गानुदेशकः ॥
आश्रयः शस्त्रदाता च भक्तदाता विकर्मिणाम् ।उपेक्षकः शक्तिमांस्तु दोषवक्ताऽनुमोदकः ॥
अकार्यकारिणां तेषां प्रायश्चित्तं प्रकल्पयेत् ॥स्मृत्यन्तर (अन्य स्मृति) के अनुसार – हिंसक कृत्य में केवल प्रत्यक्ष हत्यारा ही नहीं, बल्कि –
- मन्त्रदाता (जो मार्गदर्शन या आदेश देता है),
- संप्रति-पादक (जो आदेश का पालन करवाता है),
- प्रोत्साहक,
- सहायक,
- मार्ग दिखाने वाला,
- आश्रयदाता,
- शस्त्र देने वाला,
- भोजन या संसाधन देने वाला,
- अधर्म के कर्म में साथ देने वाला,
- उपेक्षा करने वाला,
- बलवान होते हुए भी न रोकने वाला,
- दोष जानकर भी चुप रहने वाला,
- अनुमोदक (कर्म की स्वीकृति देने वाला)
ये सभी दोषी होते हैं और इन सभी के लिए प्रायश्चित्त (प्रायश्चित्तीय कर्म) नियत किया जाना चाहिए।”
आपस्तम्बः – प्रयोजयिता मन्ता कर्तेति स्वर्गनरकफलेषु कर्मसु भागिनो यो भूय आरभते तस्मिन् फलविशेषः ।
आपस्तम्ब धर्मसूत्र – प्रयोजक (जो प्रेरित करता है), मन्त्रदाता (योजना बनाने वाला), और कर्ता (जो कार्य करता है। इन सबको धर्म के अनुसार कर्म के स्वर्ग या नरक में प्राप्त होने वाले फलों में भागीदार माना जाता है। लेकिन जो व्यक्ति कार्य का आरंभ करता है (मुख्य कर्ता),उसे फल विशेष रूप से अधिक प्राप्त होता है, चाहे वह शुभ हो या अशुभ।
प्रयोजकादीनां – स्मृतिमुक्ताफले प्रायश्चित्तकाण्डः
प्रत्यासत्तिव्यवधानापेक्षया – व्यापारगत- गुरुलाघवापेक्षया च फलगुरुलाघवात् प्रायश्चित्तगुरुलाघवं बोद्धव्यम् । तथा च सुमन्तुः – तिरस्कृतो यदा विप्रो हत्वाऽऽत्मानं मृतो यदि । निर्गुणः सहसा क्रोधात् गृहक्षेत्रादिकारणात् । त्रैवार्षिकं व्रतं कुर्यात् प्रतिलोमां सरस्वतीम् । गच्छेद्वाऽपि विशुद्धयर्थं तत्पापस्येति निश्चितम् । क्रोधाद्वै म्रियते यस्तु निर्निमित्तं च भर्त्सितः । वत्सरत्रितयं कुर्यान्नरः कृच्छ्रं विशुद्धये। भर्त्सको यः स विद्वांश्चेद्वर्षेणैकेन शुद्धयति । केशश्मश्रुनखादीनामकृत्वा वपनं वने इति ।
प्रयोजकादि दोषियों के लिए प्रायश्चित्त का निर्धारण — स्मृतिमुक्ताफल के ‘प्रायश्चित्तकाण्ड’ से
प्रत्यासत्ति और व्यापार के अनुसार दोष-गुरुलाघव – प्रायश्चित्त (प्रायश्चित्तीय उपाय) की गंभीरता या लघुता दो बातों पर निर्भर करती है:
- प्रत्यासत्तिव्यवधानापेक्षया – अर्थात् अपराध में व्यक्ति की निकटता या दूरी (जैसे – प्रेरक, सहायक, या प्रत्यक्ष कर्ता)।
- व्यापारगत गुरुलाघवापेक्षया – अर्थात् उसके द्वारा किए गए कार्य का स्वरूप – वह कितना गंभीर या हल्का था।
इन दोनों के आधार पर ही प्रायश्चित्त भी गंभीर (गुरु) या हल्का (लघु) होना चाहिए।
सुमन्तु का निर्देश – जब कोई ब्राह्मण तिरस्कृत होकर (अपमानित होकर), क्रोध में या घर-जमीन आदि कारणों से स्वयं की हत्या करता है (आत्महत्या करता है), तो उसे तीन वर्ष तक व्रत करना चाहिए या ‘प्रतिलोमा सरस्वती’ नामक तीर्थ में जाकर स्नान करना चाहिए, जिससे वह पाप से शुद्ध हो सके।
यदि कोई ब्राह्मण बिना किसी कारण केवल क्रोधवश मर जाए, या केवल अपमानित होने पर आत्महत्या कर ले, तो उसे तीन वर्षों तक ‘कृच्छ्र व्रत’ (तीव्र तपस्या) करनी चाहिए।
और यदि अपमान करने वाला विद्वान है, तो वह केवल एक वर्ष के व्रत से शुद्ध हो सकता है। परंतु उसे अपने केश, दाढ़ी, नाखून आदि का मुण्डन कर वन में रहना होगा।
“उपकारार्थ प्रवृत्तौ दोषाभावः” – अर्थात् — जब कोई कार्य परोपकार के लिए किया गया हो, तब उसमें पाप या दोष नहीं माना जाता है।
- संवर्त का वचन:
औषधं स्नेहम् आहारं ददद् गोब्राह्मणादिषु। दीयमाने विपत्तिः स्यात्, न स पापेन लिप्यते॥
जो व्यक्ति गौ, ब्राह्मण आदि के हित के लिए औषधि, घी या आहार देता है और यदि उस उपचार से विपत्ति (हानि) भी हो जाए, तो भी वह व्यक्ति पाप का भागी नहीं होता।
दाहच्छेदसिराभेदप्रयत्नैः उपकुर्वताम्। प्राणसन्त्राणसिद्ध्यर्थं प्रायश्चित्तं न विद्यते॥
जो वैद्य (डॉक्टर) जीवनरक्षा के लिए दाह, चीरा लगाना, नस खोलना आदि उपचार करते हैं, उनका उद्देश्य यदि प्राण की रक्षा है, तो उन्हें प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं, भले ही कष्ट हो या हानि हो।
“एतच्च दानं निपुणभिषग्विषयम्। इतरस्य भिषजस्तु भिषमिथ्याचरन् दाप्यः इति दोषस्मरणात्॥”
यह दोष-मुक्ति कुशल और निपुण वैद्य के लिए ही है। यदि कोई अन्य व्यक्ति बिना उचित ज्ञान के चिकित्सा करे और हानि हो जाए, तो वह दोषी माना जाएगा और उससे दंड लिया जा सकता है।
- आत्महत्या आदि प्रसंग में:
यदि कोई व्यक्ति क्रोध या पागलपन (उन्माद) में किसी के नाम को लेकर भी, स्वयं की हत्या कर लेता है, तो नाम लेने वाले को दोष नहीं लगता। लेकिन यदि कोई ब्राह्मण बिना किसी कारण के अपने प्राण त्याग दे (आत्महत्या करे), तो दोष उसी का माना जाएगा, जिसने आत्महत्या की — न कि जिसके नाम पर ऐसा किया गया।”
आशय यह है कि परोपकार, विशेषतः जीवन-रक्षा हेतु किए गए कर्मों में यदि हानि भी हो जाए, तो दोष नहीं माना जाता।
किन्तु चिकित्सा में निपुणता आवश्यक है — तभी दोष से बचा जा सकता है।
अनावश्यक आत्महत्या में दोष आत्मघाती को होता है, न कि किसी और को।
यह शास्त्रीय सिद्धांत “भावना और उद्देश्य” को अपराध और पाप की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण मानता है।
“आक्रोशकारक पर दोष का अभाव (कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में)”
तथा यत्राप्याक्रोशजनितमन्युरात्मानं खड्गादिना प्रहृत्य मरणादर्वागाक्रोशादिकर्त्राऽनधनधान्यादिना सन्तोषितो यदि जनसमक्षमुचैः श्रावयति, न तत्राक्रोशस्यापराध इति तत्रापि वचनान दोषः । यथाऽऽह विष्णुः – उद्दिश्य कुपितो भूत्वा तोषितः श्रावयेत् पुनः । तस्मिन् मृते न दोषोऽस्ति तस्य चोच्छ्रावणे कृते इति।
यदि कोई व्यक्ति किसी के अपशब्द (आक्रोश) से क्रोधित होकर, आत्महत्या का प्रयास करता है – जैसे कि तलवार आदि से स्वयं को घायल करता है, लेकिन मरने से पहले ही, वही व्यक्ति यदि बाद में उस आक्रोश करने वाले को धन-धान्य आदि देकर प्रसन्न हो जाए, और उसे सार्वजनिक रूप से (जनसमक्ष) ऊँचे स्वर में सम्मानपूर्वक याद करे,
तो उस आक्रोश करने वाले पर कोई दोष नहीं लगता।”
विष्णुधर्मसूत्र का समर्थन:
उद्दिश्य कुपितो भूत्वा, तोषितः श्रावयेत् पुनः। तस्मिन् मृते न दोषोऽस्ति तस्य चोच्छ्रावणे कृते ॥
यदि कोई व्यक्ति किसी पर क्रोधित होकर आत्महत्या का प्रयास करे, फिर बाद में उसी व्यक्ति द्वारा तुष्ट हो जाए और सार्वजनिक रूप से उसकी प्रशंसा करे, तो उस व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी आक्रोशकर्ता दोषी नहीं माना जाएगा, क्योंकि उसे मृतक ने स्वयं क्षमा कर दिया था और उसे आदरपूर्वक स्मरण किया।
अर्थात् केवल क्रोध या अपशब्द बोल देने मात्र से अपराध नहीं ठहराया जाता, जब तक कि उसका परिणाम और बाद की स्थिति में स्पष्ट रूप से क्षमा, संतोष या प्रशंसा न हो।
यदि मृतक व्यक्ति ने जीवन रहते क्षमा, तुष्टि और सार्वजनिक प्रशंसा दी हो, तो आक्रोशकर्ता दोष से मुक्त माना जाता है।
हम अन्य विद्वद्जनों से भी इसी प्रकार की शास्त्रसम्मत व ज्ञानवर्द्धक संकलन, आलेख की आकांक्षा करते हैं।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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