क्या रुद्राभिषेक वास्तव में सभी के लिए है ~ Is Rudrabhishekam really for everyone?

क्या रुद्राभिषेक वास्तव में सभी के लिए है ~ Is Rudrabhishekam really for everyone?

शास्त्रों में रुद्राभिषेक का विस्तार से वर्णन किया गया है, और इसके आध्यात्मिक महत्व और लाभों का परीक्षण किया गया है। यह आलेख इस प्रश्न पर गहराई से विचार करता है कि क्या रुद्राभिषेक सभी व्यक्तियों अर्थात चारों वर्णों/स्त्री-पुरुषों के लिए उपयुक्त है। व्यक्तिगत मान्यताओं, परिस्थितियों और आधुनिक सोच के विकारों को ध्यान में रखते हुए इस विषय पर चिंतन की आवश्यकता है।

रुद्राभिषेक: एक शक्तिशाली प्राचीन अनुष्ठान, जो आधुनिक सोच रखने वालों के लिये रहस्य और विवादों से घिरा हुआ है। यह चर्चा इसके संभावित लाभों और शुभाशुभ परिणामों के पीछे की सच्चाई को उजागर करेगा, जिससे आपको आधुनिक जीवन में इसके महत्व की गहरी समझ मिलेगी।”

रुद्राभिषेक का अनावरण: एक गहन अन्वेषण

अनुष्ठान को समझना: रुद्राभिषेक का तात्पर्य है वेद मंत्रों द्वारा जल आदि द्रव्यों से शिवलिंग का स्नान कराना। किन्तु यह अनिवार्य नहीं है कि वह द्रव ही हो, पुष्प-फल आदि से भी अभिषेक किया जा सकता है और फिर स्नान कराना उपर्युक्त प्रतीत नहीं होता है अपितु जब तक मंत्रों का पाठ किया जाये तब तक निर्धारित द्रव्य शिवलिंग पर अर्पित करते रहना रुद्राभिषेक है।

हां ये अवश्य है कि मुख्यतः द्रव (जल-दुग्ध आदि) से ही रुद्राभिषेक किया जाता है और इसमें भी जल का ही विशेष प्रयोग होता है – “जलधारा शिवप्रियः“। अभिषेक सभी देवताओं का होता है और जब अभिषेक शिवलिंग का किया जा रहा हो तो उसे रुद्राभिषेक कहते हैं।

शिव की शक्ति: शिव की शक्ति को समझने का एक अचूक उपाय है रुद्राभिषेक और वर्त्तमान काल में अधिकांश लोग इसे समझने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु वास्तविक/शास्त्रोक्त ज्ञान के अभाव में विधिहीन करते देखे जाते हैं। शिव की शक्ति/कृपा प्राप्ति के लिये रुद्राभिषेक एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है।

अनुष्ठान का उद्देश्य: रुद्राभिषेक हो अथवा कोई भी धर्माचरण इसका वास्तविक उद्देश्य आत्मकल्याण की प्राप्ति ही है, किन्तु आत्मकल्याण मात्र के लिये सामान्य जन प्रयास ही नहीं करते हैं। पारमार्थिक उद्देश्य के अतिरिक्त सभी धर्माचरण का सांसारिक लाभ भी उद्देश्य होता है और अधिकांश लोग सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के निमित्त ही धर्माचरण का अनुष्ठानात्मक भाग करते देखे जाते हैं और इसी में से के है रुद्राभिषेक।

धन, आरोग्य, पुत्र, वंश, विजय, विवाह, सुख आदि अनेकानेक सांसारिक कामनायें होती हैं जिसके लिये शास्त्रों में रुद्राभिषेक की विधि बताई गयी है, कामना के अनुसार अभिषेक द्रव्यों और शिववास आदि का विचार किया जाता है।

लाभों की खोज – Exploring the Benefits

सकारात्मक परिवर्तन: जब हम कोई भी सकारात्मक कार्य करते हैं तो स्वाभाविक रूप से उसके परिणाम भी सकारात्मक ही होते हैं। शास्त्रों में रुद्राभिषेक एक अनुष्ठान के रूप में वर्णित है और इसे करने से लोगों के विचार-सोच आदि में सकारात्मक परिवर्तन भी होते हैं यथा पापाचरण से दूर रहने का प्रयास, सदाचरण का पालन करना। जब हम पापाचरण से बचते हैं और सदाचारी बनते हैं तो यही मन की शांति, संतुष्टि आदि का मूल कारण बनता है।

बेहतर स्वास्थ्य: व्रत-पूजा-अनुष्ठान आदि में हम सामान्य जीवन से पृथक हो जाते हैं और विशेष प्रकार का उपवास, आहार आदि ग्रहण करते हैं, शारीरिक व मानसिक शुद्धता व पवित्रता का विशेष ध्यान रखते हैं। हमारा स्वास्थ्य का शारीरिक व मानसिक अवस्था से ही तो प्रभावित होता है। इस प्रकार रुद्राभिषेक में हम जिस उत्तम शारीरिक व मानसिक अवस्था को धारण करते हैं वह उत्तम स्वास्थ्य का प्रदायक होता है। वैसे आरोग्य कामना से भी दुग्ध, गुरीच रस आदि से अभिषेक का विधान है। बौद्धिक विकास हेतु शकर्रा के शरबत से अभिषेक का विधान है।

बाधाओं का निवारण: हमारे जीवन में सुख-दुःख सदैव बने ही रहते हैं और हम प्रारब्ध के अधीन होते हैं। प्रारब्धवश हमारे प्रयासों में विघ्न-बाधा उपस्थित होते ही रहते हैं और हम उनसे मुक्ति चाहते हैं। विघ्न-बाधाओं से मुक्ति हेतु यह आवश्यक होता है कि जिस कर्म (पाप) के फलस्वरूप विघ्न-बाधा प्रकट होते हैं उसका शमन किया जाय। पापों का नाश दैवीय कृपा से होता है, भगवनन्नाम कीर्तन, भगवान के स्मरण-ध्यान आदि करने से होता है ऐसा शास्त्रों में वर्णित है। जब हम रुद्राभिषेक करते हैं तो इसमें मनसा-वाचा-कर्मणा भगवान से संबंध स्थापित करते हैं और इससे पूर्वसंचित पापों का शमन होता है एवं उससे उत्पन्न होने वाले विघ्न-बाधाओं का भी अंत स्वाभाविक रूप से हो जाता है।

रुद्राभिषेक: क्या यह सबके लिए है अर्थात चारों वर्ण, स्त्री-पुरुष सबके लिये है ?

रुद्राभिषेक विमर्श का यह सबसे महत्वपूर्ण भाग है और यहीं पर हम समझेंगे कि क्या सभी वर्णों के स्त्री पुरुषों को रुद्राभिषेक का अधिकार है अथवा वर्णव्यवस्था, स्त्री-पुरुष आदि के आधार पर कोई भेद भी है, कोई निषेध, कोई विशेष विधि है आदि।

व्यक्तिगत तत्परता को समझना: वर्त्तमान युग में हम देखते हैं कि अधिकार के नाम पर, लोकतंत्र-संविधान आदि चिल्लाते हुये हर कोई कर्मकांड में अपना अधिकार सिद्ध करना चाहता है और विडम्बना यह है कि धर्म के विषय में धर्मशास्त्रों के निर्णय को ही अस्वीकार करने का पाप करते हैं। विकास-विज्ञान आदि एक विशेष विषय हैं किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि अब लोगों को आत्मकल्याण की आवश्यकता नहीं है, धर्म को व्यापार बना दिया जाय। वर्त्तमान में धर्म को व्यापार बनाने का प्रयास किया जा रहा है। GDP में यदि धर्म को व्यापार बना दिया जाय तो इसका बड़ा योगदान हो सकता है।

व्यक्तिगत तत्परता सबको रखनी चाहिये किन्तु किसके लिये के विहित है, क्या निषेध है इसका ज्ञान शास्त्र के आधार पर ही करना चाहिये, न कि अधिकार कहकर शास्त्रनिषिद्ध में प्रवृत्त होना चाहिये। व्यक्ति को अपने वर्ण, लिंग का ज्ञान होना चाहिये और तदनुसार ही शास्त्राज्ञा के अनुसार तत्पर होना चाहिये तभी धर्माचरण से आत्मकल्याण संभव है अन्यथा यदि तत्परता पूर्वक शास्त्रनिषिद्ध धर्माचरण करेंगे तो विपरीत फल भी प्राप्त होगा – “परधर्मो भयावहः”

संभावित निषेध: जहां तक शिव पूजन और रुद्राभिषेक में अधिकार की बात है तो सबका अधिकार है किन्तु कुछ निषेध भी हैं :

ब्राह्मण की पत्नी को भी शिवलिङ्ग एवं शालिग्राम स्पर्श का अधिकार नहीं है । केवल पार्थिव लिङ्ग स्पर्श में स्त्री और शूद्रों को अधिकार हैं । मन्दिरों में वेद मन्त्रादि द्वारा प्रतिष्ठित देवादि विग्रहों को मन्त्रवित् पूजक हीं स्पर्श पूजादि करना चाहिए । अशुद्ध स्पर्शादि से देवता के कला नष्ट हो जाते हैं और ऐसे करने से उसी विग्रह में देवता के अस्तित्व नष्ट हौ जाते हैं । ऐसे स्थान में यज्ञादि के माध्यम से पुनः प्रतिष्ठा करना चाहिए ।

ब्राह्मण्यपि हरं विष्णुं न स्पृशेच्छ्रेय इच्छती। सनाथा सुतनाथा वा तस्या नास्तीह निष्कृतिः॥

पुनः

यदा प्रतिष्ठितं लिङ्गं मन्त्रविद्भिर्यथाविधि। ततःप्रभृति शुद्राश्च योषिञ्चापि न संस्पृशेत् ॥
दीक्षितानां द्विजान्येषां स्त्रीणामपि तथैव च। लिङ्गे स्वगुरुणा दत्ते पूजा नान्यत्र सा स्मृता॥

गर्ग संहिता ॥ ८३३-८३४ ॥

किन्तु फिर अन्यत्र पंचदेवोपासना में अधिकार प्राप्त होता है। स्त्री-शूद्र का भी पार्थिव लिंग की पूजा-स्पर्श का अधिकार है। इस प्रकार यदि पूजा का अधिकार है तो पुनः रुद्राभिषेक का भी अधिकार हैं किन्तु व्यवधान यह है कि रुद्राभिषेक वेदमंत्रों से किया जाता है और वेदमंत्रों में अधिकार नहीं है :

शूद्रोवर्ण चतुर्थोपि वर्णत्वाद्धर्ममर्हति। वेदमंत्र स्वधा स्वाहा वषट्कारादिभिर्विना ॥ वेदव्यास स्मृति ॥१॥६॥

जपतपस्तीर्थयात्रां प्रवज्या मन्त्रसाधनं। देवताराधनं चैव स्त्रीशूद्र पतनानिषट् ॥ अत्रि ॥१३६॥

स्त्री (सधवा) के लिये स्वतंत्र रूप से रुद्राभिषेक का निषेध है, पति के साथ संयुक्त होने का नहीं। पति का तो यह दायित्व है कि पत्नी के साथ ही धर्माचरण करे और पत्नी पति के किये धर्माचरण से ही धर्म की भागी हो जाती है तो फिर पृथक अधिकार का औचित्य ही सिद्ध नहीं होता। इसी प्रकार शूद्र के लिये प्रणव, वेदमंत्र, स्वधा, स्वाहा, वषट्कार आदि का निषेध है तो रुद्राभिषेक कैसे कर सकता है ? धर्माचरण के लिये जितना महत्व श्रद्धा, आस्था, विश्वास आदि का है उतना ही अधिक शास्त्राज्ञा के पालन का भी। शास्त्रों में भी आस्था अनिवार्य है और शास्त्रविधि के विरुद्ध किया गया कर्म किसी प्रकार से कल्याणकारी नहीं होता।

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥ – गीता ॥१६॥२३॥

शुभ फल नहीं होगा, कल्याण नहीं होगा यह तो फल का अभाव सिद्ध करता है किन्तु अत्रि के वचन से पतनकारक भी होता है।

यहां पर हमें अन्यत्र से यह भी ज्ञात होता है कि मंत्र में अनाधिकार का तात्पर्य वेदमन्त्र परक है, पौराणिक मंत्रों में स्त्री-शूद्रों का भी अधिकार है और यदि पौराणिक मंत्रों से शिवपूजन करना चाहें, रुद्राभिषेक करना चाहें तो कर सकते हैं। आगमोक्त रुद्राभिषेक के लिये शिवपूजन विधि, नमक-चमक प्रयोग आदि पूर्व प्रकाशित है। अनुपनीत के लिये चूंकि आगम का निषेध नहीं है अतः आगमोक्त मंत्रों से रुद्राभिषेक करे, प्रणव के स्थान पर “औं” का प्रयोग करे अथवा “नमः” का प्रयोग करे।

मंत्रमहार्णव में मुख्य प्रणव के अतिरिक्त जिनका प्रणव में अधिकार निषेध किया गया है उनके लिये अन्य पांच प्रकार के प्रणव बताये गए हैं : द्विज के लिये “ॐ”, क्षत्रिय (अनुपनीत व व्रात्य) के लिये “लं”, वैश्यों के लिये (अनुपनीत या व्रात्य) “श्रीं”, शूद्रों के लिये “ह्रीं”, कन्या हेतु भी “ह्रीं” व स्त्री (रजस्वला होने के बाद) “क्लीं” को प्रणव कहा गया है अर्थात अपने योग्य प्रणव का प्रयोग करे – तारो द्विजानां वसुधा च राज्ञां तथा विशां श्री खलु बीजमेव। शूद्रस्य माया युवतेरनंग पञ्चप्रकाराः प्रणवाः भवन्ति॥

संभावित अनिष्ट: जो धर्मप्रिय जन होते हैं वह स्वयं के लिये प्राप्त शास्त्राज्ञा (विहित-निषिद्ध) का ग्रहण करते हुये ही किसी कर्म में प्रवृत्त होते हैं क्योंकि इसका उल्लंघन करने से अधर्म होगा और अधर्म होने से पतनकारक होगा। जो धर्म करना चाहते हैं उन्हें समानता का यह अधिकार राजनीति तक ही सीमित रखना चाहिये धर्म के लिये प्रयोग नहीं करना चाहिये। धर्म के लिये शास्त्राज्ञा ही ग्राह्य है और जिसे शास्त्रवचन पर विश्वास ही न हो उसे कुछ करने की भी तो आवश्यकता नहीं है। आत्मकल्याण चाहने वाला शास्त्रों में विश्वासपूर्वक  विहित-निषिद्ध दोनों ग्रहण करे।

जपतपस्तीर्थयात्रां प्रवज्या मन्त्रसाधनं। देवताराधनं चैव स्त्रीशूद्र पतनानिषट् ॥ अत्रि ॥१३६॥

जो धर्माचरण कल्याणकारी न होकर पतन का कारक हो; अधिकार, समानता आदि नैतिकता की बातें करके उसे करना मूर्खता के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है। धर्माचरण में प्रवृत्त होने से पूर्व अन्यान्य तथ्यों का ज्ञान होना अनिवार्य है। विधिरहित किया गया कर्म निष्फल होता है किन्तु विधि के विरुद्ध किया गया कर्म अनिष्ट व पतन कारक होता है।

आध्यात्मिक विकास का मार्ग

मार्गदर्शन प्राप्त करना: ज्ञान प्राप्ति के लिये यह आवश्यक है कि ज्ञानी गुरु से ही प्राप्त करे। पुस्तकों में तो सभी बातें लिखी हुई हैं किन्तु क्या कोई बालक बिना पढ़ाये, स्वयं ही ज्ञानी बन सकता है ? इसी प्रकार आध्यात्मिक विषयों में सामान्य जन उस बच्चे के सदृश ही होते हैं जिन्हें धर्म-अध्यात्म का ज्ञान नहीं होता है, पढ़ने-लिखने आ गया हो इसका तात्पर्य यह नहीं कि सर्वज्ञ हो गये अथवा स्वयं ही पढ़कर सबकुछ कर सकते हैं। यदि ऐसा हो तो कोई भी पुस्तकें मात्र पढ़कर अधिवक्ता, न्यायाधीश, पायलट, इंजिनियर, चिकित्सक आदि बन जाये।

आध्यात्मिक विकास के लिये सर्वप्रथम यह अनिवार्य है कि ज्ञानी गुरु से ज्ञान प्राप्त करे, न कि लोकतंत्र और संविधान चिल्लाये। ये सब मात्र देश की सीमा पर्यन्त ही प्रभावी होते हैं और जीवित रहते हुये ही, न ही मृत्यु के पश्चात प्रभावी होते हैं और न ही देश की सीमा से बहिर्गत होने पर। गुरु कथन का तात्पर्य ब्राह्मण भी होते हैं, रुद्राभिषेक आदि धर्माचरण (कर्मकांड) के लिये शास्त्र की विधि आदि विद्वान ब्राह्मण से ही पूछे।

अनुष्ठान की तैयारी: विधि का ज्ञान होने के पश्चात उसकी जो अन्य व्यवस्था होती है वो व्यवस्था भली-भांति करे। धर्माचरण में शारीरिक व मानसिक पवित्रता अत्यावश्यक है अतः इसका त्याग कदापि न करे और सामग्रियों में भी पवित्रता का ध्यान रखना अनिवार्य है। निर्धारित काल, विधि आदि के अनुसार ही रुद्राभिषेक व अन्यान्य अनुष्ठानों की तैयारी करे।

निष्कर्ष: आत्म-खोज की यात्रा

व्यक्तिगत अन्वेषण: मानव तन सौभाग्य से प्राप्त होता है और इसे प्राप्त करने के पश्चात् आत्मकल्याण का प्रयास करना ही चाहिये। जो आत्मकल्याण का प्रयास नहीं करता उससे बड़ा आत्मघाती नहीं हो सकता। आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर होने के लिये पूजा-अनुष्ठान आदि का अत्यधिक महत्व होता है और इसी कड़ी में रुद्राभिषेक भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। पूर्व जन्मार्जित पापों का नाश होना भी आत्मकल्याण के लिये अनिवार्य है और रुद्राभिषेक से पापों का नाश होता है।

जागरूकता के साथ प्रथाओं का चयन: जागरूकता का एक ज्वर लोगों को पीड़ा पहुंचा रहा है और वैज्ञानिकता के नाम पर स्वेच्छाचार करने लगे हैं। स्वेच्छाचार का तात्पर्य है शास्त्र के अनुसार न करके जैसा मन करे वैसा करना। इस विषय में जागरूक होना आवश्यक है कि धर्माचरण धर्मशास्त्रों के अनुसार ही करें।

आधुनिक प्रासंगिकता: आधुनिक काल में हम भले ही चांद पर पहुंच गये अथवा मंगल पर जाकर बसें, आध्यात्मिक अवनति ही कर रहे हैं। भौतिक विकास को हमने आध्यात्मिक पतन का कारण बना लिया है और इससे बाहर निकलने की आवश्यकता है। हमें अपना जीवन शास्त्रों की आज्ञानुसार धर्मपूर्वक ही व्यतीत करना चाहिये। आधुनिकता की ओट लेकर पापाचारी बनने का प्रयास निःसंदेह नरक में भेजने वाला है।

परंपरा का सम्मान; प्राचीन ज्ञान पर चिंतन : जितना भी विकास कर लें, आधुनिक बन जायें परंपराओं का पालन भी करना ही चाहिये। हाँ यह अवश्य है कि कुप्रथा के प्रति सजग रहें और उन कार्यों से बचें जो हानिकारक हो। किन्तु हानिकारक कथन का भी उचित अर्थ ही ग्रहण करना चाहिये क्योंकि जो व्यस्ततम व्यक्ति होता है धर्माचरण के लिये समय निकालना भी उसके लिये हानिप्रद होता है इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह धर्मविमुख हो जाये।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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