वर्त्तमान युग : भारतीय संस्कृति का आपत्काल – apatkal in india

वर्त्तमान युग : भारतीय संस्कृति का आपत्काल - apatkal in india वर्त्तमान युग : भारतीय संस्कृति का आपत्काल - apatkal in india

यदि हम वर्त्तमान भारत की धार्मिक/सांस्कृतिक/सामाजिक/पारिवारिक व्यवस्था और उसमें राजनीतिक हस्तक्षेप अर्थात राज्य का हस्तक्षेप देखें तो लगता है कि आपात्काल है। सभी सांस्कृतिक मूल्यों का क्षरण होता जा रहा है और उससे भी भयावह तो ये है कि बहुत सारे राजनीतिक भगवाधारी पनप गए हैं जो जनमानस को दिग्भ्रमित करके आग में घी डालने का कार्य कर रहे हैं। यह भी कृत्रिम व्यवस्था है जो राजनीति की ही ऊपज है। यहां हम वर्त्तमान भारत में सांस्कृतिक आपात्काल को गंभीरता से समझने का प्रयास करेंगे।

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम और जीवंत संस्कृतियों में से एक है, जिसका आधार ‘धर्म’ (कर्तव्य) और ‘संस्कृति’ रहा है। यहां परिवार और समाज का एक व्यापक प्रभाव रहा है एवं यह भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। किंतु वर्तमान समय में भारत एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहाँ उसकी सांस्कृतिक जड़ों पर चौतरफा प्रहार हो रहा है। इसे यदि ‘सांस्कृतिक आपात्काल’ कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

वर्णाश्रम व्यवस्था भारतीय संस्कृति की तो जैसे प्राण है, किन्तु इस व्यवस्था पर ऐसे कुठाराघात किया जा रहा है जैसे ये एक कुरीति हो और ऐसा ही सिद्ध भी करते हैं। भेद-भाव आदि की बातें करके, दलित-पिछड़ा-अतिपिछड़ा आदि नये शब्दों को गढ़कर राजनीति करने वाले दूसरे मुंह से जातिवाद मिटाओ का नारा भी लगाते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि किसी भी वर्ण-जाति का व्यक्ति जिसकी भारतीय संस्कृति में, शास्त्रों में आस्था है वह भयाक्रांत है और आपात्काल की अनुभूति कर रहा है।

भारतीय संस्कृति का प्राण : वर्णाश्रम व्यवस्था
भारतीय संस्कृति का प्राण : वर्णाश्रम व्यवस्था

राज्य का हस्तक्षेप और वैधानिक आक्रमण

स्वतंत्रता प्राप्ति से ही राज्य ने ‘धर्मनिरपेक्षता’ के नाम पर केवल बहुसंख्यक हिंदू समाज की धार्मिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाओं को विनियमित (Regulate) करने का प्रयास किया है। मंदिरों के सरकारीकरण से लेकर पारंपरिक रीति-रिवाजों पर कानूनी प्रतिबंध और नियंत्रण तक, राज्य का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। जब राज्य आस्था के विषयों को विशुद्ध रूप से कानूनी चश्मे से देखने लगता है, तो संस्कृति का आध्यात्मिक पक्ष गौण हो जाता है, एवं उनका क्षरण होने लगता है। अभी केरल, तमिलनाडू आदि राज्यों की सरकारों का तो भारतीय संस्कृति के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार न्यायालयों तक चल रहा है।

न्यायपालिका और सामाजिक संरचना का विखंडन

बीते कुछ वर्षों में न्यायपालिका के कई निर्णयों ने भारतीय सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने को झकझोर कर रख दिया है, एवं सांस्कृतिक संकट भी उत्पन्न कर दिया है। अनेकों बार ऐसा देखा गया कि भारत में भारतीय संस्कृति ही द्वितीय स्तर पर है एवं उसके प्रति सौतेला व्यवहार किया जा रहा है।

CJI गवई जो सेवानिवृत्त हो चुके हैं उनका एक वक्तव्य तो लोगों की आस्था पर भी प्रहार करने वाला आया था : “यदि तुम भगवान विष्णु के इतने ही बड़े भक्त हो तो जाकर अपने भगवान विष्णु से ही प्रार्थना करो”, जिसके पश्चात् जूता चलने वाली एक घटना भी सामने आया। थोड़ा बहुत परिवर्तन नये CJI जस्टिस सूर्यकांत के आने पर देखने को मिल रहा है और न्यायपालिका में कुछ परिवर्तन होते दिख रहा है किन्तु ये कब तक रहेगा एवं पुनः अगले CJI का व्यवहार क्या होगा यह संदिग्ध ही है।

  • लिव-इन रिलेशनशिप और समाज पर प्रभाव: न्यायालय ने इसे ‘जीवन के अधिकार’ (अनुच्छेद 21) के अंतर्गत वैध माना है। किंतु समाजशास्त्रियों का मानना है कि इससे विवाह की संस्था कमजोर हुई है। बिना किसी सामाजिक या कानूनी उत्तरदायित्व के साथ रहने की प्रवृत्ति ने ‘पारिवारिक प्रतिबद्धता’ को समाप्त कर दिया है। इससे उत्पन्न होने वाली संतान के अधिकार और संरक्षण का प्रश्न आज भी एक जटिल समस्या बना हुआ है।
  • समलैंगिक विवाह और जैविक सत्य: यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने विवाह को मान्यता देने का निर्णय संसद पर छोड़ दिया है, लेकिन इस पर होने वाली निरंतर बहस ने भारतीय ‘विवाह’ की परिभाषा (जो कि एक धार्मिक संस्कार है) को एक ‘कानूनी अनुबंध’ (Legal Contract) में बदलने का प्रयास किया है। भारतीय संस्कृति में विवाह केवल दो व्यक्तियों का मिलन नहीं, बल्कि दो कुलों का संगम और पितृ-ऋण से मुक्ति का मार्ग माना गया है।
  • व्यभिचार (Adultery) पर निर्णय: विवाह के बाहर संबंधों अर्थात दुराचार को अपराध की श्रेणी से हटाना कहीं न कहीं पारिवारिक निष्ठा और शुचिता के मूल को कमजोर करता है। ‘एडल्टरी’ (व्यभिचार) को अपराध की श्रेणी से बाहर करना (जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ) व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्ष में तो हो सकता है, लेकिन यह परिवार की ‘पवित्रता’ और ‘विश्वास’ की नींव को हिला देता है।
  • परिवार के अस्तित्व पर संकट : इसी प्रकार पत्नी के द्वारा पति के ऊपर बलात्कार का आरोप लगाया जा सकता है, ऐसा निर्णय तो विवाह पर ही प्रहार है। सोचिये यदि सहमति हो तो दुराचार सही है किन्तु यदि विवाहिता पत्नी से यदि किंचित विवाद हो तो बलात्कार का भी आरोप लग सकता है।
    • पुत्री का उत्तराधिकार भी परिवार के लिये संकट उत्पन्न करने वाला है, सभी भाई-बहन, साले-बहनोई बस विवाद ही करते रहेंगे। सोचिये ऐसा कानून बनाने वाला क्या भारतीय संस्कृति का विरोधी नहीं है।

परिवार: एक ढहता हुआ दुर्ग – संस्कारों की बलि और अधिकारों की वेदी

भारतीय संस्कृति की सबसे छोटी और सबसे मजबूत इकाई ‘परिवार’ थी। भारतीय वास्तुकला में जिस प्रकार ‘नींव’ पूरे महल का भार सहती है, भारतीय संस्कृति में वही स्थान ‘परिवार’ का रहा है। भारत ने कभी ‘Individual’ (व्यक्ति) को समाज की इकाई नहीं माना, बल्कि ‘कुटुंब’ को माना। किंतु आज यह दुर्ग ढह रहा है। यह पतन केवल भौतिक नहीं, बल्कि भावनात्मक और आध्यात्मिक है।

आज उपभोक्तावाद और अत्यधिक व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Individualism) के कारण संयुक्त परिवार तो दूर, एकल परिवार भी बिखर रहे हैं। कानून और आधुनिक जीवनशैली ने माता-पिता और बच्चों के बीच, पति-पत्नी के बीच, भाई-बहन के बीच के भावनात्मक सेतु को ‘अधिकारों की लड़ाई’ में बदल दिया है। बात मात्र अधिकारों की लड़ाई तक सीमित नहीं है पति की हत्या या उत्पीड़ित करके आत्महत्या करने को बाध्य कर देने तक पहुँच गयी है और ऐसी कई घटनायें हो चुकी हैं।

परिवार: एक ढहता हुआ दुर्ग - संस्कारों की बलि और अधिकारों की वेदी
परिवार: एक ढहता हुआ दुर्ग – संस्कारों की बलि और अधिकारों की वेदी
  • उपभोक्तावाद: आज हर वस्तु, यहाँ तक कि संबंध भी ‘उपयोग और फेंको’ (Use and Throw) की संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं। जब व्यक्ति स्वयं की सुख-सुविधाओं को परिवार के सामूहिक हितों से ऊपर रखने लगता है, तो संयुक्त परिवारों का विघटन शुरू होता है। आज स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि एकल परिवार (Nuclear Family) भी व्यक्तिगत अहंकार के कारण बिखर रहे हैं।
  • भावनात्मक सेतु और ‘अधिकारों की कानूनी लड़ाई’ : पहले परिवारों का संचालन ‘प्रेम’, ‘त्याग’ और ‘मर्यादा’ से होता था। आज इसका स्थान ‘विधिक अधिकारों’ ने ले लिया है।
    • पति-पत्नी: विवाह अब दो आत्माओं का मिलन नहीं, बल्कि दो ‘पार्टनर्स’ का समझौता बन गया है। छोटी-छोटी असहमतियों में ‘अधिकारों’ की दुहाई देकर न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जाता है।
    • माता-पिता और बच्चे: आधुनिक कानूनों और पाश्चात्य जीवनशैली ने बच्चों को सिखाया है कि वे माता-पिता के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं। ‘निजता’ (Privacy) के नाम पर माता-पिता को बच्चों के जीवन से बाहर किया जा रहा है, जिससे वे भावनात्मक रूप से एकाकी और असुरक्षित हो रहे हैं।
  • विकृत मानसिकता: उत्पीड़न और अपराध की पराकाष्ठा – लेख का सबसे भयावह पक्ष संबंधों में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति है। यह केवल अधिकारों की लड़ाई नहीं रही, बल्कि प्रतिशोध की अग्नि बन चुकी है।
    • कानून का दुरुपयोग – दहेज और घरेलू हिंसा से सुरक्षा के लिए बने कानूनों का कई बार ढाल के बजाय ‘हथियार’ के रूप में प्रयोग किया जा रहा है।
    • चरम अपराध – समाचार पत्रों में आए दिन ऐसी घटनाएं मिलती हैं जहाँ क्षणिक आवेश या अवैध संबंधों के चलते पति की हत्या, या झूठे मुकदमों से प्रताड़ित होकर व्यक्ति को आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ता है। यह इस बात का प्रमाण है कि परिवार के भीतर से ‘दया’ और ‘क्षमा’ जैसे गुण पूर्णतः लुप्त हो चुके हैं।

परिवार कोई ईंट-पत्थरों का ढांचा नहीं, बल्कि भावनाओं का संचार तंत्र है। यदि हम केवल ‘अधिकारों’ की बात करेंगे, तो हम एक ऐसा समाज बनाएंगे जो कानूनी रूप से तो सही हो सकता है, लेकिन मानवीय रूप से मृत होगा। भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए हमें ‘अधिकारों के लोकतंत्र’ से पुनः ‘कर्तव्यों के राजतंत्र’ (परिवार के भीतर) की ओर लौटना होगा।

समाज की शक्ति का राज्य द्वारा अपहरण करना एक भयावह संकेत

समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान के दृष्टिकोण से देखा जाए तो समाज और राज्य (State) के बीच एक संतुलन होना अनिवार्य होता है। जब राज्य इस संतुलन को बिगाड़कर समाज की स्वाभाविक शक्ति, निर्णय लेने की क्षमता और उसकी स्वायत्तता का ‘अपहरण’ करने लगता है, तो वह एक सर्वाधिकारवादी (Totalitarian) व्यवस्था की ओर बढ़ जाता है। दुर्भाग्य से वर्त्तमान भारत में ऐसा हो रहा रहा है। सरकारों ने अनेकानेक ऐसे कानून बना दिये जिसने समाज को ही पंगु बना दिया। न्यायपालिका भी समाज की शक्ति का अपहरण करने में कहीं से पीछे नहीं है।

वर्त्तमान युग : भारतीय संस्कृति का आपत्काल - apatkal in india
वर्त्तमान युग : भारतीय संस्कृति का आपत्काल – apatkal in india

भारतीय चिंतन परंपरा में ‘समाज’ सदैव ‘राज्य’ से ऊपर रहा है। हमारे यहाँ धर्म, संस्कृति, शिक्षा और न्याय की प्राथमिक व्यवस्थाएं समाज स्वयं संचालित करता था, राज्य केवल उनका रक्षक था। किंतु आधुनिक काल में राज्य एक ऐसी दैत्याकार मशीन बन गया है जो समाज की हर सूक्ष्म इकाई को निगल रहा है। समाज को जातिवाद, पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-बहन की लड़ाई में, राजनीतिक बहस में, सोशल मीडिया और मीडिया में उलझा दिया।

राज्य अब केवल कानून नहीं बनाता, बल्कि वह यह भी तय कर रहा है कि हमें कैसे जीना चाहिए, किसे प्रेम करना चाहिए और हमारे धार्मिक अनुष्ठान कैसे होने चाहिए। कोई हमारे समाज में समाजविरोधी भी है तो उसके भी अनेकों अधिकार हैं और समाज उसके प्रति कोई गतिविधि नहीं कर सकता। समाज की शक्ति उसकी विविधता युक्त सामूहिकता में होती है। राज्य ने राजनीति के माध्यम से समाज को ऐसी विविधता को जातिवाद की लड़ाई में बांट दिया है और समाज आपस में ही लड़ रहा है।

यदि समाज की शक्ति का अपहरण इसी गति से जारी रहा, तो भविष्य का भारत एक ‘यांत्रिक समाज’ होगा जहाँ:

  • लोग केवल कानून के डर से थोड़े-बहुत मर्यादित रहेंगे, संस्कारों के कारण नहीं। और कानून कितना मर्यादित कर सकता है ये तो राज्य के मुख्य तीनों अंगों में भी दिख रहा है। वो स्वयं ही अनियंत्रित हैं तो बाकि का क्या ? एवं दूसरा पक्ष यह भी है कि मात्र कानून के द्वारा सबको नियंत्रित नहीं किया जा सकता, और यह कटुसत्य है।
  • संकट के समय समाज स्वयं खड़ा होने के बजाय सरकार का मुंह ताकेगा। दुर्घटना वाली स्थितियों में यह सदैव ही देखने को मिलता है, कोई भी सहयोग करने के लिये तैयार नहीं होता, और सरकार अब 25000 पुरस्कार तक देने की बात कर रही है। ये भारतीय समाज का लक्षण नहीं था।
  • भारतीय समाज तो स्वयं का व्यय करके भी सहयोग करने वाला था जिसका शास्त्रों में वर्णन है : “परोपकाराय पुण्याय”, “परिहित सरिस धरम नहीं भाई”; जिसे आज राज्य ने पंगु करके मुंहतक्का बना दिया। 25000 पुरस्कार के लोभ से कोई करे तो सहयोग करे, किन्तु परोपकार समझकर न करे, यह तो घोर पतन है।

राजनीतिक भगवाधारी और वैचारिक भ्रम

आज धर्म का उपयोग आध्यात्मिक उत्थान के बजाय राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए अधिक किया जाने लगा है। हिन्दू एकता, सनातन धर्म, हिन्दू राष्ट्र आदि शब्द सुनने में तो अच्छे लगते हैं किन्तु ये सभी राजनीतिक प्रयोग मात्र हैं और वोटों के ध्रुवीकरण तक सीमित हैं। सनातन सिद्धांत, शास्त्र-सम्मत धार्मिक चर्चा आदि तो छोड़िये जहां देखते हैं शास्त्र-विरुद्ध चर्चा, आचरण आदि ही किये जा रहे हैं। प्रसिद्ध वो नहीं हो रहा है जो शास्त्रीय पक्ष रखता है, प्रसिद्ध उसे बनाया जा रहा है जो राजनीतिक समर्थन करता है और इसके लिये शास्त्र विरुद्ध बातें भी करता है, धर्म के विषय में दिग्भ्रमित करता है।

  • धर्म के वास्तविक मर्म (करुणा, संयम, त्याग) को त्यागकर उसे केवल नारों और प्रदर्शन तक सीमित कर दिया गया है।
  • हिन्दू एकता के नाम पर सनातन का जो मूल है “वर्णाश्रम-व्यवस्था” पर प्रहार किया जा रहा है। अन्तर्जातीय विवाह को सरकारी पोषण दिया जा रहा है किन्तु ये राजनीतिक भगवाधारी इस पर कभी मुंह नहीं खोलते।
  • सत्य और शास्त्र के ज्ञाताओं के स्थान पर ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ रूपी भगवाधारी जनमानस को दिग्भ्रमित कर रहे हैं।
  • यह एक कृत्रिम व्यवस्था है, जो सत्ता के संरक्षण में फल-फूल रही है और समाज में विद्वेष का जहर घोल रही है।

सांस्कृतिक मूल्यों का क्षरण

उपरोक्त सभी प्रभाव कहीं न कहीं भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात कर रहे हैं। सतही रूप से देखने पर फिल्म, सीरियल, मीडिया, सोशल मीडिया, आदि मुख्य कारक प्रतीत होते हैं किन्तु ये सभी तो सरकार द्वारा ही पोषित और संरक्षित किये जा रहे हैं, तभी कर रहे हैं क्योंकि इनको नियंत्रित करना तो राज्य का ही कार्य है। अर्थात मुख्य कारक तो राज्य ही है न। इतिहास की पुस्तकों में मुगलों का महिमागान था वो पीछे से राज्य के प्रश्रय में ही हुआ था न।

शिक्षा व्यवस्था और औपनिवेशिक मानसिकता ने नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से काट दिया है। हमारी भाषा, वेशभूषा और पर्व-त्योहारों का बाजारीकरण हो चुका है। जब त्योहार केवल ‘डिस्काउंट सेल’ और ‘स्टेटस सिंबल’ बन जाएं, तो समझ लेना चाहिए कि सांस्कृतिक प्राण निकल चुके हैं। विवाह जैसे संस्कारों में भी अब वर ने धोती पहनना तक छोड़ दिया है आगे अन्य चर्चा ही क्या करें।

सांस्कृतिक आपत्काल कथन को समझने के लिये इन बिंदुओं का अवलोकन करें और विचार करें :

  • वर्त्तमान युग में कठिनता से ही २ – ४ प्रतिशत लोग मिलें जो कोई भी कार्य करने से पूर्व धर्म कर संस्कृति का विचार करते हैं। देखने में तो विपरीत दिखता है धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यों में भी विचार करते नहीं मिलते और धर्म व संस्कृति के विरुद्ध किया जाता है, फिर अन्य कार्यों के बारे में क्या सोचा जाय !
  • नेताओं के पास नैतिकता की उतनी मात्रा भी नहीं कि नेता शब्द की लज्जा बचा सकें। झूठ शब्द भले ही असंसदीय हो किन्तु झूठ बोलना असंसदीय नहीं है। भारत की संसद में भारतीय संस्कृति तो दिखती ही नहीं है, अरे संस्कृति की बात क्या भारतीय परिधान तक नहीं दिखते।
  • न्यायपालिका में न्यायाधीश लोगों को बोलते हैं कि अंग्रेजी में बोलो भारतीय भाषा (हिन्दी) में नहीं। दुराचार का तो ऐसा दलदल हो गया है कि CD बन जाती है, सोशलमीडिया पर वीडियो वायरल हो जाता है। समोसे की चर्चा की जाती है। न्यायाधीशों के घर में करोड़ों रुपये के जले हुये बोरे मिलते हैं, उपराष्ट्रपति बारम्बार उलाहना देते हैं किन्तु टस-से-मस नहीं होते हाँ उपराष्ट्रपति को ही त्यागपत्र देना पड़ जाता है। आतंकवादियों के लिये आधी रात को भी उठ जाते हैं, सामान्य लोगों को मिल भी नहीं सकते। यदि कोई योगी जैसा मुख्यमंत्री हो जाये तो नांथने का भरपूर प्रयत्न करते हैं। कितना गिनायें, न्यायालय में ही वकीलों ने बोला है कि “सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम कोठा कहा जाता है।”
  • नित्यकर्म में क्या-क्या आता है इस प्रश्न का उत्तर भी ९९% लोग नहीं दे सकते करने की बात तो दूर की कौड़ी है। षोडश संस्कारों में ७५% संस्कार विलुप्त हो चुके हैं और जो बचे भी हैं वो मात्र अवशेष हैं। विवाह जैसे संस्कार जो थोड़े बहुत अवशेष हैं उसमें भी आग लगाया जा रहा है।
  • पढ़े-लिखे लोगों से बात करें तो ज्ञात होगा कि वो जितना शब्द बोलते हैं उनमें भारतीय भाषा के शब्द कम और विदेशी भाषाओं के शब्द अधिक होते हैं। अवलोकन करना हो मीडिया में होने वाली बहस को देखें और समझें।

निष्कर्ष

वर्तमान भारत में सांस्कृतिक आपात्काल केवल बाहर से थोपा गया नहीं है, बल्कि यह हमारे भीतर की वैचारिक शून्यता का भी परिणाम है। राजनीति और न्यायपालिका जब समाज के नैतिक मार्गदर्शक बनने की कोशिश करते हैं, तो विसंगतियां उत्पन्न होना स्वाभाविक है।

इस आपात्काल से निकलने का मार्ग केवल ‘प्रतिक्रिया’ में नहीं, बल्कि ‘पुनर्जागरण’ में है। हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा, जहाँ धर्म राजनीति का अधिनस्थ नहीं, बल्कि राजनीति धर्म (नीति) के अधीन थी।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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